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भारतीय संस्कृति

सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 20 ( क ) युद्ध में भी धर्म निभाने का भारत का दर्शन

युद्ध में भी धर्म निभाने का भारत का दर्शन

राजनीति में पवित्रता बनाए रखने और सार्वजनिक जीवन के प्रति अपने कर्तव्य भाव को उत्कृष्टता के साथ निर्वाह करने के लिए दिव्य गुणों से युक्त जीवनसंगिनी का होना आवश्यक है।
जिन जिन सम्राटों या क्रूर तानाशाहों के विरुद्ध इतिहास में क्रांति हुई हैं, उन उनकी जीवनसंगिनी या तो फिजूलखर्च करने वाली रही हैं या फिर किसी अन्य दुर्गुण या दुर्व्यसन की शिकार रही हैं।
फ्रांस की क्रांति के समय वहां की फिजूलखर्च रानी एंटोनेट का उदाहरण है। 14 जुलाई, 1789 को बैस्टिल पर एक भीड़ के धावा बोलने के बाद , रानी लुई को मेट्ज़ में अपनी सेना के साथ शरण लेने के लिए मनाने में विफल रही । अगस्त-सितंबर में, हालांकि, उसने सामंतवाद को खत्म करने और शाही विशेषाधिकार को प्रतिबंधित करने के लिए क्रांतिकारी नेशनल असेंबली के प्रयासों का विरोध करने के लिए उसे सफलतापूर्वक उकसाया । जिसका परिणाम यह निकला कि, वह लोकप्रिय आंदोलनकारियों का मुख्य लक्ष्य बन गई, जिनकी शत्रुता ने किंवदंती में योगदान दिया जब यह बताया गया कि लोगों के पास रोटी नहीं है, तो उसने बड़ी बेरहमी से कहा, “उन्हें केक खाने दो!” (“क्विल्स मैंजेंट डे ला ब्रियोचे!”)। 
इससे पता चलता है कि इस रानी को इतना भी ज्ञान नहीं था किक 1 से रोटी बहुत सस्ती होती है और वह भी फ्रांस के लोगों को नसीब नहीं हो पा रही थी।

आज के राजनीतिज्ञों की स्थिति

भारत के राजाओं के लिए उनकी आदर्श आचार संहिता को लागू करने के दृष्टिकोण से यह भी आवश्यक माना गया है कि उनकी जीवनसंगिनी दिव्य गुणों से युक्त हो। राजा को भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला होना चाहिए। यदि राजा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखने में असफल हो जाता है तो वह रूप पर आकर्षित होकर अपने धर्म से पतित हो सकता है। सारे संसार में इस समय जितने भर भी राजनीतिज्ञ हैं उनमें से अधिकांश जितेंद्रिय नहीं हैं। रूप पर फिसलने वाले इन राजनीतिज्ञों में से कितने ही कितनी ही बार सेक्स स्कैंडलों में फंस जाते हैं ,जब राजाओं की स्थिति ऐसी है तो प्रजा की कैसी होगी ? - यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
 कहने का अभिप्राय है कि वर्तमान में संसार की दुर्दशा के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी आज की फिसलती हुई राजनीति है। स्वामी दयानंद जी महाराज ने इस विषय में स्पष्ट किया है कि ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़कर यहां तक राज्य कार्य करके पश्चात सौंदर्य रूप गुणयुक्त हृदय को अति प्रिय, बड़े उत्तम कुल में उत्पन्न सुंदर लक्षण युक्त अपने क्षत्रिय कुल की कन्या जो कि अपने सदृश विद्यादि गुण कर्म स्वभाव में हो, उसे उस एक ही स्त्री के साथ विवाह करे। दूसरी सब स्त्रियों को अगम्य समझकर दृष्टि से भी न देखे।

बहुत सुंदर और सुव्यवस्थित स्वरूप देने के लिए महर्षि मनु द्वारा प्रतिपादित इस विधिक व्यवस्था से ही आज के कानून के राज की अवधारणा ने जन्म लिया है। यद्यपि हमारा मानना है कि कानून के राज्य से अधिक विधिक व्यवस्था महत्वपूर्ण होती है। इस विधि में सारी चीजें विधेयात्मक व सृजनात्मक शक्तियों से संपन्न होती हैं। सृजनात्मक शक्तियों के माध्यम से जब विधिक व्यवस्था को लागू किया जाता है तो उसमें सर्वत्र शांति और सात्विकता का वास होता है। जब किसी देश या राष्ट्र का राष्ट्रीय जीवन इस प्रकार के सात्विक और शांतिपूर्ण सह- अस्तित्व के भावों के साथ जीने को अपना राष्ट्रीय संकल्प बना लेता है तो ऐसे देश या राष्ट्र का इतिहास सात्विक महापुरुषों के जीवन चरित्र से बना करता है। उनके जीवन में तनिक सा भी शिथिलता का या पतित होने का भाव नहीं होता। ऐसे दिव्य समाज से इतिहास को असीम ऊर्जा प्राप्त होती है और राजनीति को इससे एक उत्तम गति प्राप्त होती है।
राजा के लिए संध्योपासनादि कार्य नितांत आवश्यक होते हुए भी उसके लिए महर्षि दयानंद जी यह व्यवस्था करते हैं कि वह उत्तमता से अपने राज्य कार्यों का संचालन करे। उत्तमता से अभिप्राय है कि उसमें किसी भी प्रकार का प्रमाद, शिथिलता या पक्षपात ना बरते। फिर भी वह अपने राज कार्यो में अधिक व्यस्त रह सकता है इस बात के दृष्टिगत वह यज्ञ याग आदि कार्यों के लिए अपने यहां पुरोहित और ऋत्विज को नियुक्त करे। ये लोग अग्निहोत्र और पक्षेष्टि आदि सब राजघर के कर्म किया करे। स्वामी दयानंद जी का मानना है कि राजा अपने आप सर्वदा राज कार्यों में तत्पर रहे। यही राजा का संध्योपासनादि कर्म है, जो रात दिन राज कार्य में प्रवृत्त रहे और राज्य कार्यों को किसी भी स्थिति में बिगड़ने ना दे।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजधर्म की चर्चा

प्रजा के हित में ही अपना हित देखना राजा का धर्म है। उसका अपना कोई हित नहीं होता। उसकी प्रजा सुख चैन से जीवन यापन करे। इसकी व्यवस्था करना और उसी में आनंदित रहना राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य कर्म है।

प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ (अर्थशास्त्र 1/19)

अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।”

तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।
स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति॥ (अर्थशास्त्र 1/3)

अर्थात्- “राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।) एक राजा का धर्म युध भूमि में अपने दुश्मनों को मारना ही नहीं होता अपितु अपने प्रजा को बचाना भी होता है।”

राजा को धार्मिक कार्यों से निवृत्त करने का कोई प्रावधान नहीं है परंतु वह किसी राज्य कार्य के निष्पादन के लिए संध्या आदि के बंधन में ना रहे , इसलिए यह व्यवस्था की गई है। जुआ खेलने, शराब पीने, ताश खेलने या फिजूल की बातों में समय को नष्ट करने के लिए राजा के लिए कहीं भी व्यवस्था नहीं की गई है। इसका अभिप्राय है कि पूर्ण सात्विक और धार्मिक भाव से वह अपने राज्य कार्यों का संपादन करे, यही उसकी सबसे बड़ी भक्ति है।

समय के अनुसार लेना चाहिए निर्णय

भारत के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब हमने अंधी वीरता का प्रदर्शन करते हुए अपने पास मानव के रूप में मिलने वाले बड़े-बड़े एटम बमों को हाथों से खो दिया। यदि थोड़ी देर के लिए हम नीति – रणनीति पर विचार कर लेते तो इतिहास आज कुछ दूसरा होता। यहां पर कितने ही ऐसे पृथ्वीराज चौहान हुए हैं जिन्होंने किसी संयोगिता के चक्कर में अपनी विशाल सेनाओं का विनाश करवा लिया। कितने ही राजाओं को समाप्त करवा दिया और जब कोई मोहम्मद गौरी आया तो वह आराम से मैदान को जीत कर ले गया। यदि वह शक्ति और अंधी वीरता राष्ट्र के काम आती और सात्विक भाव में निहित होकर कार्य करती तो देश को दीर्घकाल तक विदेशियों से लड़ना नहीं पड़ता।
जब भारत ने नीति और रणनीति में कुशल किसी शिवाजी के नेतृत्व में संकल्पित होकर कार्य किया तो इतिहास ने नई ऊंचाई को छुआ, नए गौरवपूर्ण पृष्ठों को हमारे समक्ष उद्घाटित किया। महर्षि दयानंद जी महाराज इतिहास के इस दर्शन से भली प्रकार परिचित थे कि अंधी वीरता राष्ट्र के लिए क्षतिकारक होती है। यही कारण था कि उन्होंने महर्षि मनु के चिंतन को आधार बनाकर स्पष्ट किया कि कभी-कभी शत्रु को जीतने के लिए उनके सामने से छुप जाना भी उचित है क्योंकि जिस प्रकार से शत्रु को जीत सके वैसे काम करें। जैसे शेर क्रोध में सामने आकर शस्त्राग्नि में शीघ्र भस्म हो जाता है, वैसे मूर्खता से नष्ट भ्रष्ट नहीं हो जाना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि देश, काल, परिस्थिति के अनुसार विवेकपूर्ण निर्णय लेने में ही बुद्धिमत्ता है। यदि परिस्थिति युद्ध क्षेत्र से पीछे हटने की बनी हुई है तो पीछे हटना चाहिए और यदि शत्रु चालाकी, दुष्टता या किसी भी प्रकार की अमानवीयता का सहारा लेकर युद्ध में उतर आया है तो उसके विरुद्ध उसी के जैसे उपायों को अपनाकर युद्ध करना चाहिए।
केवल मर जाने के लिए युद्ध करना उचित नहीं है। यदि युद्ध क्षेत्र में यह दिखाई देता है कि आज मृत्यु अवश्यंभावी है तो अगले दिन के युद्ध के लिए शत्रु को उस समय किसी भी प्रकार से झांसे में डालकर अपनी प्राण रक्षा करते हुए वहां से निकलना चाहिए और फिर अगले दिन दुगने वेग से शत्रु पर प्रहार करना चाहिए। जैसे श्री कृष्ण जी ने युद्ध क्षेत्र में एक बार कर्ण से अर्जुन की प्राण रक्षा की थी। पर उसी दिन रात्रि में जाकर अर्जुन को इस बात की प्रेरणा भी दी थी कि किसी प्रकार का कमजोरी का भाव मन में न लाकर उसे कल प्रातः काल में कर्ण पर दुगने वेग से हमला करना है। अर्जुन ने श्री कृष्ण जी के परामर्श को स्वीकार कर उसी के अनुरूप कार्य किया तो अगले दिन युद्ध का पासा पलट गया।

राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

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