सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विर्मश ( एक से सातवें समुल्लास के आधार पर) अध्याय 13 ( ख ) तीन सभाओं की देन भारत की है

तीन सभाओं की देन भारत की है

जब सृष्टि के प्रारंभ में अपौरुषेय वेद परमपिता परमेश्वर ने हमारे ऋषि यों को प्रदान किए तो उनमें यह व्यवस्था की गई कि राजा और उसकी सभा का परस्पर संबंध और उद्देश्य क्या होगा?
वेद का संदेश है :-
त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषाथः सदांसि ।। – ऋ० मं० 3। सू० 38। मं० 6।।

स्वामी दयानंद जी महाराज इस पर लिखते हैं कि “ईश्वर उपदेश करता है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिल के सुख प्राप्ति और विज्ञान वृद्धि कारक राजा प्रजा के संबंध रूप व्यवहार में तीन सभा अर्थात विद्यार्य्यसभा , धर्मार्य्य सभा , राजार्य्य सभा नियत करके बहुत प्रकार के समग्र प्रजा संबंधी मनुष्य आदि प्राणियों को सब ओर से विद्या स्वतंत्र धर्म शिक्षा और धन आदि से अलंकृत करें।”
वेद के इस मंत्र का जिस प्रकार स्वामी जी महाराज ने अर्थ किया है उसे समझने की बहुत अधिक आवश्यकता है। यदि वेद के इस मंत्र का अर्थ समझ लिया तो आज संसार में जितने भर भी संविधान प्रचलित हैं ,उनके अनेक प्रावधानों के विषय में यह स्पष्ट हो जाएगा कि उन प्रावधानों का मूल स्रोत वेद ही है। इस मंत्र के अर्थ से स्पष्ट है कि भारत में तीन प्रकार की सभाओं का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है। यह बात और भी अधिक गौरवपूर्ण है कि भारत को अपने राजनीतिक चिंतन में या राजनीतिक शासन प्रणाली में कभी परिवर्तन करने या संशोधन करने अर्थात संविधानिक संशोधन लाने संबंधी किसी विधेयक की आवश्यकता नहीं पड़ी। एक बार जिस विचार को राजनीतिक चिंतन के रूप में स्वीकार कर लिया गया वह निर्बाध रूप से और बिना किसी संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया को अपनाए चिरकाल तक इस देश का ही नहीं अपितु संपूर्ण संसार का मार्गदर्शन करता रहा।
उपरोक्त वर्णित तीनों समय आजकल के संसार में चल रही व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ही थी। सृष्टि के प्रारंभ में इस प्रकार की व्यवस्था विषयों के माध्यम से हमको प्राप्त होना हमें इस बात के लिए गर्व और गौरव से भर देता है कि संसार को सबसे पहले हमने ही कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका का चिंतन और दर्शन प्रदान किया। यदि आज संसार में इस प्रकार की व्यवस्था पाई जाती है तो वह भारत की प्राचीन शासन प्रणाली की नकल है। किसी भी शासन व्यवस्था का निर्बाध हजारों लाखों करोड़ों वर्ष तक चलते रहना अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है। यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब हम आज के अपने संविधान को देखते हैं जिसे 75 वर्ष में ही 100 से अधिक बार संशोधित किया जा चुका है। इससे पता चलता है कि हमारे ऋषियों का चिंतन कितना ऊंचाई को प्राप्त हो चुका था ? उन्होंने जिस क्षेत्र में भी कार्य किया उसी में कीर्तिमान स्थापित किए।
आजकल के प्रत्येक लोकतांत्रिक देश में कार्यपालिका न्यायपालिका, व्यवस्थापिका संबंधी कई प्राविधान होते हैं। इन तीनों के परस्पर समन्वय और क्षेत्राधिकार संबंधी भी अनेक प्राविधान होते हैं। जबकि वेद के उपरोक्त मंत्र में तीनों सभाओं के बारे में संकेत करके मनु महाराज ने शासन सूत्र संभालते समय अपने संविधान अर्थात मनुस्मृति में इनके कार्य और क्षेत्राधिकार को भी निश्चित कर दिया था।

प्राणी मात्र का कल्याण करना है शासन का उद्देश्य

इस मंत्र में मनुष्य आदि प्राणियों की बात भी कही गई है। इसका अभिप्राय है कि शासन केवल मानव मात्र के कल्याण के लिए ही स्थापित नहीं किया जाता अपितु वह प्राणी मात्र के कल्याण के लिए स्थापित किया जाता है। प्राणी मात्र का हितचिंतन करना शासन व्यवस्था का ही उत्तरदायित्व है। इसका कारण यह है कि हमारे ऋषियों को प्राणी मात्र के प्रति मानव के कर्तव्यों का बोध था। वे यह भी भली प्रकार जानते थे कि पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व में रहना आवश्यक है। अतः कोई भी मानव अन्य प्राणियों के जीवन का नाश न करने लगे, इसके लिए यह भी सुनिश्चित किया गया कि राजा या शासक वर्ग अथवा शासन व्यवस्था प्रत्येक प्राणी के प्रति अपने धर्म का पालन करेगी।
ऐसा नहीं हो सकता कि शासन के अधीन रहकर लोग एक दूसरे के अधिकारों का तो सम्मान करें पर अन्य प्राणियों को अपनी क्षुधा निवृत्ति के लिए प्रयोग करें अर्थात जीव हत्या को प्रोत्साहित करें। मनुष्य को सभी प्राणियों का संरक्षक बनाकर ईश्वर ने भेजा है। अतः उसके द्वारा स्थापित शासन का यह परम पवित्र कर्तव्य है कि वह सभी प्राणियों को जीने का अधिकार प्रदान कराए। जो लोग अपनी राक्षस वृत्ति पर उतरकर अन्य प्राणियों का वध करके उन्हें अपने भोजन में प्रयोग करते हैं ,उन राक्षसों का अंत करना भी राजा का ही कार्य है।
भारत के ऋषियों ने या धर्म के आदि स्रोत वेद ने शासन को या शासन में बैठे लोगों को सभी प्राणियों के जीवन का सम्मान करने का अधिकार इसलिए भी दिया कि ऐसा करने से सृष्टि का संतुलन बना रहना संभव है। यदि कोई भी प्राणी अन्य प्राणियों का समूल नाश करने पर उतर आया तो इससे सस्ती संतुलन बिगड़ना निश्चित है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत के वैदिक धर्म में विश्वास रखने वाले लोगों के अतिरिक्त अन्य मजहब वाले लोग इस तथ्य को आज तक नहीं समझ पाए हैं ? हमारे वेदों में सभा समिति और सेना जैसे शब्द हमें मिलते हैं।

सभा, समिति और सेना

भारत के वैदिक चिंतन को न समझ कर लोगों ने अपनी कल्पनाओं के आधार पर इतिहास लिखना आरंभ किया। उन्होंने मनमाने ढंग से सभा, समिति और सेना के अस्तित्व को पिछले हजार दो हजार वर्ष के इतिहास में दिखाने और स्थापित करने का अतार्किक और मूर्खतापूर्ण व्यक्त किया। यदि वेद के उपरोक्त मंत्र को पढ़ समझ लिया जाए तो पता चलेगा कि भारत में सेना का इतिहास उतना ही पुराना है जितना वेदों का ज्ञान पुराना है।
इस मंत्र में आगे के “सब ओर से विद्या स्वातंत्र्य, धर्म सुशिक्षा और धन आदि” शब्द भी ध्यान देने योग्य हैं। आज के तथाकथित सभ्य समाज के संविधान जिन मौलिक अधिकारों को देने की बात करते हैं और इस बात पर गर्व करते हैं कि ऐसी व्यवस्था केवल हम ने ही दी है उनके गर्व को चकनाचूर करने के लिए वेद के मंत्र का यह अगला भाग ही पर्याप्त है। निश्चित रूप से वेद की यह व्यवस्था आज के संविधानों के द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों से भी बड़ी घोषणा है। हमारे देश के संविधान में भी जिस प्रकार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को देने की बात कही गई है वह भी वेद के इस मंत्र की इस घोषणा के समक्ष बहुत ही छोटी है। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद का यह मंत्र आज के विश्व के संविधानों के उन हजारों निर्माताओं के बौद्धिक चिंतन और मस्तिष्क की क्षमताओं से भी बड़ा है जिन्होंने अपने अपने देशों को अलग अलग कालों में संविधान बना कर दिए हैं। हमारा मानना है कि आज के संविधान विशेषज्ञों, मनीषियों ,चिंतकों और राजनीतिशास्त्रियों को वेद के इस मंत्र के गहरे अर्थ पर चिंतन करना चाहिए। वेद को संसार की का आदेश संविधान घोषित करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त आज के सभी राजनीतिशास्त्रियों को इस बात पर भी सहमति बनानी चाहिए कि वेद सृष्टि प्रारंभ में किसी देश विशेष के लोगों को नहीं दिए गए थे और ना ही किसी देश विशेष के पूर्वजों की धरोहर हैं बल्कि यह मानवता की धरोहर हैं। जिन पर सबका समान अधिकार है और जिन की नीतियों, सिद्धांतों और मान्यताओं को मानकर संसार का आज की कल्याण हो सकता है।

राकेश कुमार आर्य

मेरी यह पुस्तक डायमंड बुक्स नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित हुई है । जिसका अभी हाल ही में 5 अक्टूबर 2000 22 को विमोचन कार्य संपन्न हुआ था। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले 7 अध्यायों का इतिहास के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है। पुस्तक में कुल 245 स्पष्ट हैं। पुस्तक का मूल्य ₹300 है।
प्रकाशक का दूरभाष नंबर : 011 – 407122000।

Comment: