जाड़े ने दस्तक दे दी है। सिर पर पंखों की पंखडि़यां थमती जा रही है और रजाई या कंबल चढ़ती जा रही है। मार्गशीर्ष आरंभ। आयुर्वेद तो कहता है : मार्गशीर्षे न जीरकम्। जीरा इस दौरान नहीं खाएं मगर कहने से कौन मानेगा, जीरा सेक कर गुड़ में मिलाकर खाएं तो खांसी जाए। हां, शक्कर से दूरी रखी जाए। गुड़ से याद आया कि इस दौर में तिल और गुड़ खाने और गन्ने चूसने की इच्छा हाेती है। ये इच्छा कालिदास की भी हाेती थी। तभी तो ऋतु वर्णन में उन्होंने इस बात का इजहार किया है :
प्रचुर गुडविकार: स्वादुशालीक्षुरम्य। (ऋतुसंहार 16)
हमारे यहां गुड के कई व्यंजन बनाए जाते हैं। गुड़ में तिल को मिलाकर घाणी करवाई जाती है। आज घाणी को कोल्हू के नाम से जाना जाता है। कई जगह खुदाइयों में घाणियां मिली है। इसे तेलयंत्र के नाम से नरक के वर्णनों में लिखा गया है। शिल्परत्नम् में घाणी बनाने की विधि को लिखा गया है।
घाणी में पिलकर तिलकूटा तैयार होता है… गजक तो खास है ही। गजकरेवड़ी, बाजरे का रोट और गुड़, गुड़धानी, गुडराब… और न जाने क्या-क्या। आपके उधर भी बनते ही होंगे। मगर, खास बात ये कि गुड एक ऐसा शब्द है जो संस्कृत में मीठे के लिए आता है।
दक्षिण के कुछ पाठों में ‘गुल’ शब्द भी मिलता है मगर वह गुड़ ही है। अनुष्ठानों में देवताओं की प्रसन्नता के लिए गुड़, गुडोदन, गुडपाक, गुलगुले आदि के चरु चढ़ाने का साक्ष्य कई अभिलेखों में भी मिलता है। सल्तनकालीन संदर्भों में इसके भाव भी लिखे मिलते हैं। बनारस के इलाके का गुड और खांड दोनों ही ख्यात थे। गुड शब्द देशज भी है और शास्त्रीय भी। मगर अपना मूल रूप मिठास की तरह ही बरकरार रखे हुए है, इस स्वाद का गुड़ गोबर नहीं हुआ। यदि अंधेरे में भी यह शब्द सुन लिया जाए तो भी जीभ उसकी मीठास जान लेती है, है न।
जब देवताओं को अमृत बंटा और सूर्यदेव पान करने लगे तब उसकी कुछ बूंदें धरती पर गिर पड़ी। उसी से शालि जैसा अगहनी धान्य, मूंग और इक्षुदण्ड हुए। इसकी शर्करा में उस अमृत की बूंदों की मिठास है। यह इक्षु की वंशादि अनेक परंपराओं का आधार बना :
अमृतं पिबतो वक्त्रात् सूर्यस्यामृतबिन्दव:।
निष्पेतुर्ये धरण्यां ते शालिमुद्गेक्षव: स्मृता:।।
शर्करा तु परा तस्मादिक्षुसारोऽमृतात्मवान्।
आष्टा रवेरत: पुण्या शर्करा हव्य कव्ययो:।।
(मत्स्य पुराण 77, 13-14)
यह रोचक तथ्य हो सकता है कि सूर्य से यह ईख इक्ष्वाकु जैसे वंश के नामकरण ही नहीं, शर्करा व्रत, अनुष्ठान, उद्यापन, दान, यज्ञ और कृषि क्षेत्र का भी आधार बना!
ईख की शर्करा की उत्पत्ति कामदेव के धनुष के मध्य भाग से हुई है : मनोभव धनुर्मध्यादुद्भूता शर्करा यत:। वह स्वाद, स्वरूप और सत्कार में अनन्य है। देवता तक उसका स्वाद लेने को लालायित रहते हैं। उसके अभाव में व्यंजन और मिठाई की कल्पना ही नहीं हो सकती। (मत्स्य पुराण : शर्कराचल व्रत विधान की कथा 92, 12)
मार्गशीर्ष में ईख की मिठास परम होती है।
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क्यों
यह माना गया है कि जिसे गन्ना प्रिय होता है, वह सत्व गुणी
होता है! भारत इसी कारण सत्व गुण प्रशंसा प्रधान रहा और यहां मिठास जैसे करुणा भाव का पोषण हुआ!