वैदिक संपत्ति : आदिमकालीन संहिताएं

वैदिक सम्पत्ति

गतांक से आगे …

संहिता नाम ज्यों के त्यों मंत्रों का है । संहिता का अर्थ करते हुए पाणिनि मुनि अष्टाध्यायी 1/4/106 में कहते ‘ पर : सन्निकर्षः संहिता ‘ अर्थात् ‘ पदान्तान्पदादिभि : सन्दधाति यत्सा ‘ अर्थात् पदों के अन्त को अन्य पदों के आदि के साथ सन्धिनियम से बाँधने का नाम संहिता है । ऋक्प्रातिशाख्य में लिखा है कि ‘ पदप्रकृतिः संहिता ‘ अर्थात् पदों की प्रकृति का असली हालत का नाम संहिता है । आदिमकालीन संहिताएं , संहिता ही थीं । उनमें मन्त्रों के पद अलग अलग न थे । सब मन्त्र संघियुक्त ही थे । परन्तु कुछ दिन के बाद वेदार्थ करने में तकरार होने लगी । कोई ‘ न तस्य ‘ को ‘ नतस्य ‘ कहने लगा और कोई ‘ न तस्य ‘ ही । ऐसी दशा में आवश्यकता हुई कि पदों का विच्छेद पाठ भी जारी किया जाय । अतः वैदिक आचार्यों ने अलग अलग करके एक एक संहिता की दो दो संहिताएँ कर लीं ।
यहीं से शाखाओं का प्रारम्भ हुआ । यह आरम्भ काल बहुत प्राचीन है । यह काल ब्राह्मणकाल के बहुत पूर्व का है । क्योंकि शाखा आरम्भकाल के बहुत दिन बाद संहिताओं में खैलिक भाग – प्रक्षिप्त भाग – जोड़े गये हैं और खैलिक भागों का वर्णन ब्राह्मणों में है , इससे प्रतीत होता है कि शाखाम्रों का प्रारम्भ बहुत ही पुराकाल में हुआ था । इसके अति रिक्त शाखाओं के ही कारण गोत्रों का प्रचार भी हुआ है । शाखाप्रचारक ही प्रायः गोत्रप्रवर्तक भी देखे जाते हैं । इन गोत्र प्रवर्तक ऋषियों का समय बहुत ही प्राचीन है , इससे भी पाया जाता है कि शाखाओं का प्रारम्भ अत्यन्त पुरा काल में ही हुआ है । उपर्युक्त प्रकृतिसंहिता और पदसंहिता का लक्षण करते हुए ऐतरेय आरण्यक 3।13 में लिखा है कि-
‘ यद्धिः सन्धि विवर्तयति तन्निर्भुजस्य रूपं अथ यच्छुद्धे अक्षरे अभिव्याहरति तत्त्रतृण्णस्य ‘
अर्थात् जिसमें सन्धि ज्यों की त्यों बनी रहती है , वह निर्भुजसंहिता है और जिसमें सन्धि के बिना केवल पदों का उच्चारण होता है , वह प्रतृण्णसंहिता है । उदाहरण के लिए जिसमें ‘ अग्निमोळे पुरोहितम् ‘ इस प्रकार का पाठ है , वह निर्भुजसंहिता है और जिसमें इस प्रकृतिपाठ का ‘ अग्निम् ईळे पुरः हितम् ‘ करके पदपाठ कर दिया गया है , वह प्रतृष्णसंहिता है । इन दोनों प्रकार की संहिताओं में न पाठभेद होता है और न पाठ न्यूनाधिक ही होता है । इन दोनों में सब मंत्र ज्यों के त्यों बने रहते हैं । प्राचीनकाल में इसी प्रकार की शाखाएँ थीं , परन्तु कुछ दिन के बाद इससे भी संतोष न हुआ । वेदों को शुद्ध रखने के लिए मंत्रों के पाठ करने की अनेक विधियों का आयोजन हुआ और प्रत्येक विधि भी अलग अलग एक एक शाखा बन गई । ऐतरेय श्रारण्यक 3।13 में लिखा है कि ‘ अग्र उ एवो भय मन्तरेणो भयव्याप्तं भवति ‘ अर्थात् आगे चलकर प्रतृण्णसंहिता उक्त दोनों के योग और घन – जटा माला आदि भेदों से विकृत रूप हो जाती है और क्रमसंहिता कहलाती है । इसका भी मतलब यह है कि जिसमें मूल मंत्र हों , उनके पद भी अलग अलग हों और इन पदों की विकृति भी हो , वह क्रमसंहिता है । क्रमसंहिता के इस विकृत प्रकरण को लेकर व्यास मुनि ने एक विकृतवल्ली नाम का ग्रन्थ ही बना डाला है । उस ग्रन्थ में लिखा है कि –
जटा माला शिला लेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः । अष्टौ विकृतयः प्रोक्ता : क्रमपूर्वा मनीषिभिः ॥ ( विकृतवल्ली 1/5 )
अर्थात् जटा , माला , शिला , लेखा , ध्वज , दण्ड , रथ और घन आदि आठ भेद हैं । इन भेदों के कारण पहिली शाखाओं के आठ भेद हो गये और उनकी संख्या दश बारह हो गई । परन्तु इतने पर भी संतोष न हुआ । गोत्रप्रवर्तन और शाखा सम्प्रदाय से प्रेरित होकर वैदिक आचार्यों ने शाखाओं के भेदों में और भी अधिक वृद्धि की । बृहदेवता १।१४ में लिखा है कि ‘ देवतार्थार्थद्वन्देभ्यां वैविध्यं तस्य जायते ‘ अर्थात् देवता , ऋषि , अर्थ और छन्दभेद से सूक्तों के अनेक भेद हो गये । सभी जानते हैं कि प्रत्येक मंत्र का देवता , ऋषि , छन्द और अर्थ होता है । अतः इस सूक्तक्रम से भी संहिताए बनीं । अमुक देवतावाले सूक्तों के बाद अमुक देवतावाले सूक्तों को रखकर जो संहिता बनाई गई , वह दैवत शाखा कहलाई । इसी तरह अमुक ऋषिवाले सूक्तों के बाद अमुक ऋषिवाले सूक्तों को रखकर जो संहिता बनाई गई , वह आर्षशाखा कहलाई । इसी तरह अमुक अर्थवाले सूक्तों के बाद अमुक अर्थवाले सूक्तों के क्रमवाली संहिता अर्थशाखा और अमुक छन्दवाले सूक्तों के बाद अमुक छन्दवाले सूक्तों के क्रमवाली संहिता छान्दशाखा कहलाई । यद्यपि मन्त्रों का इतना अधिक उलट फेर हुआ , परन्तु अब तक मन्त्रों में पाठभेद अथवा न्यूनाधिक्यता नहीं हुई । उपर्युक्त समस्त शाखाविभागों की संख्या चौदह पंद्रह तक पहुँची- प्रत्येक संहिता इतने इतने प्रकारों की हो गई — किन्तु मंत्रों में गड़बड़ नहीं हुई ।
गोत्रप्रवर्तक वैदिक ऋषियों का शाखाभेद इतने ही दर्जे का था । वे मानते थे कि पठनपाठनशैली में तो भेद हो , परन्तु मूल मन्त्रों में भेद न पड़ने पावे । मीमांसादर्शन १।१।३० में शाखातत्व का निर्वाचन करते हुए जैमिनि मुनि ने लिखा है कि ‘ आख्याप्रवचनात् ‘ अर्थात् प्रवचन के कारण ही शाखा नाम हुआ है । जो ऋषि मूल मन्त्रों को जिस क्रम से पढ़ाते थे , केवल वह क्रम ही अमुक शाखा के नाम से प्रसिद्ध हो जाता था । शाखा का मतलब यह कभी नहीं रहा कि वेदों का अमुक भाग शाखा है । भाग , अंश , चरण आदि भाव शाखा के नहीं हैं , प्रत्युत शाखा का मतलब पठन पाठन का क्रम ही है – शैली ही है- महाभाष्य की कारिका ( अष्टा ० ४१११६३ ) में लिखा है कि ‘ गोत्रं च चरणैः सह ‘ अर्थात् चरण के साथ गोत्र । यहाँ चरण शब्द शाखा के ही लिए आया है और चरण – आचरण – पठन– अध्ययन आदि ही शथं रखता है । परन्तु बहुतों ने चरण शब्द का मतलब वेदों का एक देश – एक भाग- समझा है । उनको चरण शब्द का आचरण- तरीका- अर्थ ग्रहण करने की नहीं सूझी । पर महाभाष्य की इस कारिका का अर्थ स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध वैयाकरण कैयट महोदय लिखते हैं कि ‘ चरणशब्दाऽध्ययनवचनः ‘ अर्थात् चरण शब्द अध्ययन का वाचक है । कहने का मतलब यह कि चरण और शाखा आदि शब्द वेदों के पठनपाठन की शैली – तरीका – के ही वाचक हैं , वेदों के विभाग के बोधक नहीं । उस शाखातत्व पर विचार करते हुए वैदिक साहित्य के प्रसिद्ध मर्मज्ञ • पण्डित सत्यव्रत सामश्रमी ‘ ऐतरेयालोचन ‘ में लिखते हैं कि ‘ तत्त्वत्तो नहि वेदशाला वृक्षशाखेव नापि नदीशाखेव प्रत्यु ताध्येतू मेदात् सम्प्रदाय भेदजन्याध्ययनविशेषरूपैव ‘ अर्थात् वास्तव में वेद की शाखाएँ न तो वृक्षों की शाखाओं की भाँति हैं और न नदी की शाखाओं की भाँति हैं , प्रत्युत वे पठन पाठनभेद से संप्रदायजन्य अध्ययन का ही विशेष रूप हैं । इस निष्पत्ति से जाना गया कि वेद की शाखाएँ वेद का अंश या भाग नहीं हैं प्रत्युत पठन पाठन का भिन्न भिन्न प्रकार हैं । यह बात हम उन शब्दों से भी जान सकते हैं , जो शाखाओं के लिए प्रयुक्त हुए हैं । अनेक ग्रन्थों में लिखा है कि –

एकशतमध्वयुं शाखा सहस्त्रवर्मा सामवेदः ।
एकविंशतिधा बाह्वव्यं ननधाइथर्वणो वेदः || ( महाभाष्य )
एकविंशतिभेदेन ऋग्वेद कृतवान् पुरा ।
शाखानां तु शतं नाथ यजुर्वेदमथाकरोत् ।।
सामवेदं सहस्रोण शाखानां च विमेदतः ।
माथवीणमथो वेदं विभेद नवकेन तु || ( कूर्मपुराण )
चैते शाकला शिष्या शाखाभेद प्रवर्तका : । ( विकृतवल्ली )
शाखासु त्रिविधा भूव शाकलयास्कमाण्डुका : || ( देवीपुराण )
सामवेदस्य किल सहस्रमेदा आसन् ।
यजुर्वेदस्य षडशीतिभँदा भवन्ति अथर्ववेदस्य नवमेदा भवन्ति ॥ ( चरणव्यूह )
यहाँ जितने वाक्य उद्धृत हुए हैं , सबमें शाखाओं के लिए भेद , विधि , वर्मा , घा आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं । ये सभी शब्द प्रकार , तरीका और ढंग आदि के ही वाचक है , खण्ड , भाग , प्रकरण , देश और अंश आदि के नहीं । इससे अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि शाखाएँ वेदों के भाग नहीं , प्रत्युत भेद ही हैं । भेद में घटाव बढ़ाव की गुञ्जायश नहीं रहती , केवल अदला बदली ही हो सकती है । यही कारण है कि देवत , आर्ष आदि विभागों तक मन्त्रों की अदलाबदली ही हुई है । अब तक इस प्रकार की अदलाबदलीवाली शाखाएँ बनती रही तब तक वेदों के स्वरूप में अन्तर नहीं पड़ा — उनमें घटाव बढ़ाव नहीं हुआा – किन्तु कृष्णयजुर्वेद के अवतार धारण करते ही वैदिक शाखाओं में उथलापथल शुरू हुआ । रावणादिकृत साहित्य के सम्मिश्रण में शाखाओं में गड़बड़ मचा और संहिताओं में ब्राह्मणभाग तथा ब्राह्मणेतर भाग भी मिला मिलाकर अथवा मूल मन्त्रों को ही घटा घटाकर और पाठभेद कर करके अनेक शाखाओं को जन्म दिया गया । पुराने ग्रन्थों में शाखाओं की जो संख्या लिखी हुई है , वह हजारों तक पहुँची है और सबमें मतभेद है । महाभाष्यकार चारों वेदों की शाखाएँ 1131 बतलाते हैं । सर्वानुक्रमणी में 1137 लिखी हैं । कूर्मपुराण के अनुसार 1130 हैं और चरणव्यूह में 116 ही लिखी हुई हैं । इसी तरह अन्य ग्रन्थों में भी मन मानी संख्याएँ पाई जाती हैं । इन अनिश्चित संख्याओं में आर्य अनार्य सभी शाखाएँ गिन ली गई हैं । इसलिए हम आवश्यक समझते हैं कि मूल आर्य शाखाओं का पता लगावें ।
क्रमशः

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