यज्ञोपवीत हमारे आत्मिक कल्याण का प्रतीक है : आचार्य विद्या देव

ग्रेटर नोएडा ( विशेष संवाददाता ) गुरुकुल मुर्शदपुर में नवीन विद्यार्थियों के उपनयन संस्कार पर बोलते हुए आर्य जगत के सुप्रसिद्ध विद्वान आचार्य विद्या देव जी ने कहा कि जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की आज्ञा दी गई है। इसे उपनयन संस्कार कहते हैं। ‘उपनयन’ का अर्थ है, ‘पास या सन्निकट ले जाना।’
किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना।
प्राचीन काल में विद्यार्थी तीन सुविधाएं लेकर अपने गुरु के पास जाया करते थे। उसकी व्याख्या करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि जैसे समिधा में अग्नि छुपी हुई है वैसे ही प्रत्येक विद्यार्थी के भीतर अग्नि छुपी हुई होती है। जैसे अग्नि के पास समिधा के जाते ही उसमें अग्नि प्रदीप्त होती है वैसे ही गुरु के पास शिष्य के पहुंचने पर वह भी प्रदीप्त हो उठता था।
यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता। मैला होने पर उतारने के बाद तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है।
आचार्य श्री ने कहा कि प्राचीन काल से ही आर्य वैदिक परिवारों की यह परंपरा रही है कि प्रत्येक व्यक्ति यज्ञोपवीत धारण करता था। इसे धारण करने के पश्चात उसके नियमों का पालन करना प्रत्येक वैदिक धर्मी अपना कर्तव्य मानता था। इस के धारण करने से सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय मर्यादाओं का पालन करने में सुविधा होती थी। संपूर्ण देश में शांति स्थापित रहती थी पूर्णविराम लोग एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते थे।
आचार्य श्री ने कहा कि ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। उन्होंने कहा कि राष्ट्र को सबल सक्षम समर्थ बनाने के लिए हमारे विद्यार्थी कठोर तपस्या करते थे और अपनी जवानी को देश के लिए समर्पित कर देते थे। भारतवर्ष में चोटी और जनेऊ की रक्षा के लिए अनेक युद्ध हुए हैं । उन के बारे में हम जानकर आज भी रोमांचित हो उठते हैं। उन्होंने कहा कि चोटी जनेऊ की रक्षा के लिए आज भी संकल्प लेने की आवश्यकता है । इसी से देश की संस्कृति की रक्षा हो पाएगी।
आचार्य श्री ने कहा कि हमारे लिए राष्ट्र प्रथम होना चाहिए। संस्कृति की रक्षा करके ही हमारी आत्मिक उन्नति संभव है। उन्होंने कहा कि जब राष्ट्र में शांति का परिवेश होगा तभी व्यक्ति की जागतिक कल्याण करने की कामना पूर्ण हो सकती है।
उन्होंने कहा कि यज्ञोपवीत संस्कार करा के विद्यार्थी अपने आत्मिक कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ते थे। आचार्य के गर्भ में जाकर वह अपने दूसरे जन्म की तैयारी करते थे और जब विद्या में पारंगत हो कर विद्यालय अथवा गुरुकुल से बाहर आते थे तो उस समय लोग उनका द्विज कहकर सम्मान करते थे। यदि विच लोग संसार के कल्याण के लिए अपने आप को समर्पित करते थे।

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