छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें – डॉ निष्ठा विद्यालंकार

उपनयन और वेदारम्भ संस्कार मनुष्य को द्विज बनाता है : प्रो. डॉ. व्यास नन्दन शास्त्री वैदिक, बिहार

महरौनी (ललितपुर)। महर्षि दयानंद सरस्वती योग संस्थान आर्य समाज महरौनी,जिला ललितपुर के तत्वावधान में विगत दो वर्षों से अनवरत वैदिक धर्म के मर्म को युवा पीढ़ी को परिचित कराने के उद्देश्य से आर्यरत्न शिक्षक लखन लाल आर्य के संयोजकत्व में आयोजित आर्यों के महाकुंभ में दिनांक 6 सितंबर 2022 को “छ: शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें” विषय पर बोलते हुए डॉ.निष्ठा विद्यालंकार लखनऊ ने कहा कि संस्कार हमारे जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि है बिना संस्कारों के मनुष्य का जीवन समुन्नत नही होता है इस जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कारों की महती भूमिका है जीवन को सुसंस्कृत करने के लिए हमें छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनी होगी और वह छः शत्रु है अज्ञान (मोह) क्रोध, ईष्या, कामवासना, अभिमान और लोभ आदि को त्याग कर हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी बन सकते हैं क्योंकि यह छः दूष्प्रवृतियां जिस मनुष्य के ऊपर हावी हो जाती हैं वह मनुष्य विनाश से नहीं बच सकता है ।विनाश की ओर ले जाने वाला पहला शत्रु अज्ञान है और अज्ञान अविद्या का प्रतीक है अविद्या ही सारे दोषो की जननी है। “अविद्याक्षेत्रमुतरेषामप्रसुप्ततनुविछिननोदाराणाम” अतः अज्ञान से ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहिए तभी कल् संभव है
व्याख्यानमाला क्रम में “”गुण- संवर्द्धन में संस्कारों की भूमिका” विषय पर प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् प्रो.डा.व्यास नन्दन शास्त्री ने अपने वक्तव्य में कहा कि संस्कारों की गणना में उपनयन और वेदारम्भ 11वां और 12 वां संस्कार है। ये दोनों संस्कार मनुष्य को द्विजत्व प्रदान करता है।
यहां द्विज का आशय दूसरे जन्म से है। एक सामान्य जन्म मां के गर्भ से सबको प्राप्त है और दूसरा जन्म आचार्य के ज्ञान रूपी गर्भ से होता है। इसलिए उपनयन का अर्थ है- उप =समीप ,नयन =ले जाना । गुरु वा आचार्य के पास ले जाने का संस्कार ही उपनयन है। आचार्य उसे यज्ञोपवीत(जनेऊ)धारण करवाता है और यज्ञीय तीन समिधाओं से ज्ञान,कर्म,उपासना का संदेश देकर शिष्य अर्थात् अन्तेवासी बनाता है। अन्तेवासी का अर्थ है- जो गुरु के अन्दर तक बसा हुआ है।उपनयन संस्कार करते हुए गुरु शिष्य को कितना अपने अन्तरतम में ले जाता है इस भाव को दर्शाने के लिए अथर्ववेद काण्ड 11, सूक्त 5 का 3रा मंत्र जो वेदारंभ संस्कार में आया है ,अवलोकनीय है–
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्त : ।
तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवा: ।। अर्थात् बालक को शिक्षा देने के लिए स्वीकार करते हुए गुरु उसे इस प्रकार सुरक्षित,संभालकर रखता है जैसे माता पुत्र को अपने गर्भ में सुरक्षित तथा संभाल कर रखती है। तत्पश्चात् शिष्य अग्नि, वायु,सूर्य,चन्द्र और व्रतों के पति परमात्म देव से असत्य को छोड़ कर सत्य को धारण करने का व्रत यानी शुभ संकल्प लेता है । इस प्रकार बालक और – बालिका दोनों को यज्ञोपवीत धारण करने का यहां अधिकार है। वैदिक संस्कृति में दोनों को शिक्षा का समान अवसर दिया गया है। दोनों यज्ञोपवीत धारण कर देव ऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋण से ऊरीण होने का संकल्प लेकर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हैं। वेदारंभ संस्कार में गायत्री मंत्र द्वारा गुरुमंत्र दिया जाता है और गायत्री से लेकर सांगोपांग वेद-शास्त्रों का अध्ययन करते हुए विद्वान् व विदुषी बनते हैं। वैदिक काल में लोपामुद्रा,श्रद्धा,,सरमा, रोमशा,विश्ववारा, अपाला, यमी, घोषा, गार्गी,मैत्रेयी आदि नारियां इन्हीं दोनों संस्कारों के बल पर विदुषियां व ऋषिकाएं हुई हैं। आज आवश्यकता है,इन दोनों संस्कारों को विधिवत् करने की तभी हमारी युवा पीढ़ी वैदिक धर्म के मर्म को समझ पाने में सक्षम होगी।

व्याखान माला में प्रो डॉ अरिमर्दन सिंह राजपूत, पंडित नागेश चंद्र शर्मा मुंबई, अनिल नरूला गुरुग्राम,चंद्र कांता चंडीगढ़,प्रेम सचदेवा दिल्ली,दया आर्या हरियाणा,ईश आर्य राज्य प्रभारी पतंजलि भारत स्वाभिमान हरियाणा,आराधना सिंह शिक्षिका,सुमन लता सेन शिक्षिका,रामसेवक निरंजन शिक्षक,अवधेश प्रताप सिंह बैंस,जयपाल सिंह बुंदेला मिदरवाहा, ,सहित पूरे विश्व से आर्य जन जुड़ रहें हैं।
संचालन आर्य रत्न शिक्षक लखन लाल आर्य एवं आभार मुनि पुरुषोत्तम वानप्रस्थ ने जताया।

Comment: