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गीता के मूल 70 श्लोकों का काव्यानुवाद

गीता मेरे गीतों में , गीत 45 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)

अहं पदार्थ

मानव मर्त्य हैं जग में , आते और चले जाते ।
अमर्त्य तो केवल ईश्वर है सब गीत उसी के ही गाते।।

ज्ञानी जन कहें हमको कीर्ति की ना इच्छा है।
उन्नति में बाधक है कीर्ति ,कथन ऋषियों का सच्चा है ।।

जितने भर भी हुए महात्मा , सबकी इच्छा एक रही।
हम आत्मतत्व की खोज करें , ईश्वर में सच्ची टेक रही।।

सब ज्ञानों की खान है ईश्वर, चिरकाल से हम सुनते आए।
विद्वान उत्सव और यज्ञ में , भगवान को ही भजते आए।।

निरीक्षण किया जिसने जगती का , वो ही भक्ति में डूबा।
निर्माण विधान समझ ईश्वर का,बस उसका ही हो बैठा।।

जब जब विकट संकट आते और व्याकुल मानव मन होता।
भगवान ही दूर करे संकट को प्रफुल्लित मानव मन होता।।

खुशियों की सौगात लिए भगवान हमारे साथ रहे।
हम देखें या ना देख सकें , पर उसका हम पर हाथ रहे।।

वास सभी में परमेश्वर का ,जितने भी जग के प्राणी हैं।
एक ओंकार ही पालक सबका जितने भी जग के प्राणी हैं।।

वही यज्ञ है , वही स्वाहा, वही माता – पिता और श्रद्धा भी।
वही है धाता , वही ओंकार , वही भर्त्ता और है स्वधा भी।।

उत्पत्ति, स्थिति , प्रलय , का बीज वही परमेश्वर है।
कहां ढूंढने जाऊं उसको , प्रत्यक्ष ब्रह्म परमेश्वर है ।।

वह इतना प्रत्यक्ष होकर के भी , ना हमें दिखाई देता है।
सर्वत्र उसी का वास जगत में , छुपकर सबकी सुध लेता है।।

जो उसको देखें कण-कण में , वह भेदभाव से मुक्त रहें।
सब में वह और सब उसमें हैं – इस भाव से सारे युक्त रहें।।

सब पर दया करें परमेश्वर, चाहे दुराचारी हो या हो पापी।
मोक्ष के द्वार खुले सबको हैं ,अत्याचारी हो या हो कामी।।

जिसको परमेश्वर दिखता नहीं, वह ज्ञानी नहीं अज्ञानी है।
जिसके भीतर के नेत्र खुले , जग में सच्चा वही ज्ञानी है।।

यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004

डॉ राकेश कुमार आर्य

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