Categories
कविता

गीता मेरे गीतों में , गीत 43 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)

योग धारणा

योग धारणा से होती है मन की शुद्धि , चित्त विमल,
योग साधना वाला मानव नहीं हो सकता कभी विकल।
ऋतगामी वह हो जाता है और कंटकरहित मार्ग बने,
अभय ज्योति उसको मिल जाती बुद्धि होती है निर्मल।।

सबको बसेरा देने वाले परमपिता करते हैं दया,
मंगल कामना पूरी करते और करते कदम -कदम रक्षा।
वह प्रकाशकों का प्रकाशक और दुर्गुण घातक परमेश्वर,
योगी का रक्षक बन जाता और करता है अमृत – वर्षा।।

धर्मसुशिक्षक, अधर्मनिवारक और प्रीतिसाधक परमेश्वर,
उसका हाथ पकड़ चलते हैं ऐसे दयालु जगदीश्वर ।
अनुत्साहविदारक ईश्वर का जब साथ मिलता जीवन में,
तब आनंद की वर्षा होती है खुशियां छा जाती हैं घर पर।।

प्रभु की प्रेमसनी गोदी में , सौभाग्य से आसन मिलता है,
जिसको भी मिल जाता है वह कमल की भांति खिलता है।
जैसे पुत्र के लिए पिता है, सरलता से है अति सुगम,
वैसे ही योगी से आकर , पिता परमेश्वर मिलता है।।

सब द्वारों का संयम करके, योगी निज आसन पर बैठे ,
मन को ह्रदय में रोके और सिर में ही प्राण चढ़ा बैठे ।
ऐसी योग – साधना वाला जन सच्चा योगी होता है,
त्याग – तपस्या उसकी देख , संसार मौन हो आ बैठे ।।

कभी कठोर – कभी कोमल बनना पड़ जाता जीवन में,
विजय आकांक्षी बन करो आक्रमण पहले शत्रु पर रण में।
नीति यही कहती है अर्जुन ! है हथियार फेंकना कायरता,
नीति के अनुसार खड़ा हो, हथियार उठा ले, तू रण में।।

युद्ध योग में डूब जा अर्जुन ! क्यों करता अब देरी है?
मूढ़ – मति तू रहा कभी ना , बुद्धि बड़ी निर्मल तेरी है।
जो तू होता मूढ़मति तो मैं भी ना कुछ कहता तुझसे,
युद्ध योग का योगी है तू कह रही ऐसा मति मेरी है।।

यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004

डॉ राकेश कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version