शिवाजी महाराज से प्रेरणा लेकर आगे बढ़े थे सावरकर

सावरकर के आदर्श शिवाजी थे

प्रो ० देवेन्द्रस्वरूप ( इतिहासकार तथा पूर्व सम्पादक ‘ पाञ्चजन्य ‘ )

पहला 30 अगस्त 1911 को लिखा , दूसरा 13 नवम्बर 1913 को , तीसरा 10 सितम्बर 1914 को , चौथा 2 अक्टूबर 1917 को , पांचवां 24 जनवरी 1920 को छठा 31 मार्च 1920 को । क्या उन्होंने कभी सोचा कि सावरकर के बार – बार दया की याचिका करने पर भी अंग्रेज शासकों ने उनको जेल से रिहा क्यों नहीं किया ? इस प्रश्न का उत्तर राष्ट्रीय अभिलेखागार की फाइलों में उपलब्ध है , किन्तु उन्हें पढ़ने की उन्हें आवश्यकता क्या है ? ये लोग सत्य की खोज के लिए नहीं , झूठ का प्रचार करने के लिए निकले हैं । इसलिए कहीं से एक दस्तावेज हाथ पड़ गया और बस उसे ले उड़े । क्या उन्होंने सावरकर की 13 नवम्बर 1913 की याचिका पर भारत सरकार के गृहसचिव सर क्रैडोक की टिप्पणी पढ़ी है । क्रैडोक ने स्वयं अन्डमान आकर सावरकर और अन्य क्रांतिकारियों से भेंट की थी । वहां से लौटकर 19 दिसम्बर 1913 को उन्होंने सावरकर से अपनी भेंट का वर्णन इन शब्दों में किया है- ” उन्होंने किसी प्रकार का खेद या पश्चात्ताप प्रकट नहीं किया । सावरकर को अंडमान में किसी प्रकार की आजादी देना असंभव है । और , मेरा मानना है कि किसी भी भारतीय जेल से वह भाग निकलेगा । वह इतना महत्वपूर्ण नेता है । कि भारतीय क्रांतिकारियों का यूरोपीय दस्ता कुछ ही समय में उसके पलायन के लिए षडयंत्र रच देगा । यदि उसे अंडमान में सेल्यूलर जेल से बाहर जाने की इजाजत दी गयी तो उसका भाग जाना निश्चित है । उसके मित्र आसानी से किराए के स्टीमर को किसी टापू पर लगा देंगे और स्थानीय निवासियों को थोड़ी – सी घूस देकर अपना काम पूरा कर लेंगे । ”
यह था अंग्रेजों का विनायक दामोदर सावरकर के बारे में मूल्यांकन । वे समझते थे कि सावरकर की ये याचिकाएं केवल छलावा हैं , जेल से बाहर निकलने का बहाना हैं । सावरकर के आदर्श शिवाजी थे । वे मरना नहीं , लड़ना चाहते थे । और लड़ने के लिए जेल से बाहर आना आवश्यक था । इसीलिए जब अंग्रेज उन्हें लंदन में गिरफ्तार करके जहाज से भारत ला रहे थे तो वे शौचालय के रास्ते से बीच समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए कि वह उन्हें शरण देगा – अंग्रेजों को नहीं सौंपेगा । किन्तु फ्रांस ने कमजोरी दिखायी , हेग के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने भी उन्हें न्याय नहीं दिया , और अंग्रेजों ने उन्हें दो जन्म का अर्थात् 50 वर्ष का कारावास देकर अंडमान अर्थात कालापानी भेज दिया ।
अंडमान में उनके साथ कितना कठोर व्यवहार किया गया इसका उल्लेख सावरकर ने उस दस्तावेज में भी किया है , जिसे कम्युनिस्ट लिक्खाड़ उनके चरित्र हनन का औजार बना रहे हैं । सावरकर लिखते हैं , ‘ जब मैं जुलाई 1911 में यहां लाया गया तब मुझे अपने अन्य साथियों के साथ चीफ कमिश्नर के कार्यालय ले जाया गया । वहां अन्यों को छोड़कर केवल मुझे ‘ डी ‘ अर्थात ‘ खतरनाक ‘ श्रेणी में रखा गया । मुझे छह महीने तक अकेले बंद रखा गया । अन्य कैदियों को यह सजा नहीं दी गयी । इन दिनों मुझसे मूंज की रस्सी बंटवाई गई , जिससे मेरे हाथ लहूलुहान हो गए । फिर मुझे तेल के कोल्हू में जोता गया , जिसे जेल में सबसे कठोर श्रम माना जाता है । इस पूरी अवधि में मेरा आचरण पूरी तरह अच्छा रहने पर भी ,दस माह की अवधि पूरी होने पर नियमानुसार मुझे जेल से बाहर रहने की सुविधा नहीं दी गयी ,जबकि मेरे साथ आए अन्य सब कैदियों को यह सुविधा दी गयी। ‘
अंडमान की जेल में सावरकर को दस साल तक जो यातनाएं झेलनी पड़ीं उसका कुछ आभास उस ‘ हिस्ट्री टिकट ‘ में भी मिल सकता है , जो 2 मई 1921 को अंडमान से भारतीय जेल में उनका स्थानान्तरण करते समय उनके साथ भेजा गया था । यह दस्तावेज बम्बई सरकार द्वारा 1957 में प्रकाशित ‘ भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास की स्रोत सामग्री ‘ नामक पुस्तक के दूसरे खण्ड के पृष्ठ 478 से 481 पर उपलब्ध हैं । इस सरकारी दस्तावेज के अनुसार सावरकर को छह महीने की तन्हाई के अलावा दो बार एक – एक महीने के लिए कालकोठरी में बंद रखा गया । दो बार सात – सात दिन के लिए खड़ी बेड़ी लगायी गयी । 4 महीने तक उन्हें जंजीर से बांधकर खींचा गया । सावरकर का दुबला – पुतला शरीर इतनी यातनाएं झेलकर भी कैसे अपनी विचार शक्ति को बनाए रख सका , कैसे कागज – कलम से वंचित रहकर केवल नाखूनों से अपनी कोठरी की दीवारों पर देशभक्ति से ओत – प्रोत कविताएं रच सका । सावरकर पहलवान नहीं , बौद्धिक प्राणी थे । उनकी पतली काया एकमात्र शक्ति , उनकी शक्ति का एकमात्र स्रोत उनकी प्रखर देशभक्ति और स्वातंत्र्य कामना थी ।
अंग्रेज इस सत्य को पहचानते थे । वे जानते थे कि जेल से बाहर आते ही सावरकर ब्रिटिश साम्राज्य के लिए भारी खतरा बन जाएंगे । इसीलिए सर क्रैडेक ने लिखा कि ‘ सावरकर के लिए कुछ वर्षों की कड़ी मशक्कत ही पर्याप्त सजा होती , किन्तु फिर भी बाकी समय उसे जेल में रखने का उद्देश्य सजा देना नहीं है , बल्कि केवल नजरबंद रखना है । क्योंकि बाहर जाकर वह भारी खतरा बन सकता है । इसीलिए अंग्रेज उनकी प्रत्येक याचिका को खारिज कर देते । उनका एक ही उत्तर होता कि विनायक सावरकर की रिहाई जनसुरक्षा के हित में नहीं है । प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर ब्रिटिश सरकार ने आम रिहाई की घोषणा की , किन्तु उससे भी सावरकर बन्धुओं को बाहर रखा गया । सावरकर का स्वास्थ्य बहुत गिर गया । उन्हें खूनी पेचिश हो गयी । उनका वजन 119 पौंड से घटकर 98 पौंड रह गया । यह समाचार पुणे के ‘ मराठा ‘ में छप गया । सावरकर की पत्नी यमुनाबाई ने 25 नवम्बर 1918 को लेडी वायसराय के नाम याचिका लिखी , जिसमें सावरकर बंधुओं को रिहा करने या भारत की किसी जेल में भेजने की प्रर्थना की । पुनः 18 जुलाई 1919 को यमुनाबाई और सावरकर के छोटे भाई डॉ . नारायण दामोदर सावरकर ने अलग – अलग याचिकाएं वायसराय को भेजीं । किन्तु भारत सरकार ने 8 अक्टूबर 1919 को ये याचिकाएं अस्वीकार कर दीं । उत्तर मिला कि वायसराय आम रिहाई की सुविधा सावरकर बंधुओं को देने के पक्ष में नहीं हैं ।
उनकी रिहाई के लिए सार्वजनिक आंदोलन शुरू हो गया । समाचार पत्रों में लेख प्रकाशित होने लगे । श्री खापर्डे ने केन्द्रीय असेम्बली में प्रश्न उठाने की धमकी दी । प्रसिद्ध विद्वान रंगास्वामी आयंगार ने असेम्बली में उनकी रिहाई के लिए गैर सरकारी प्रस्ताव प्रस्तुत किया । तब इस आंदोलन से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बर्मा की जेल भेजना तय किया । फिर दोनों भाइयों में से केवल एक भाई गणेश दामोदर सावरकर को रिहा करने का विचार उनके मन में घूमने लगा । यह विचार पैदा होने पर अंग्रेज अधिकारियों के शब्दों में दोनों भाइयों के चरित्र का अंतर पढ़ने योग्य है । एक अधिकारी लिखता है कि विनायक कभी समझौता नहीं करेगा और वह बहुत खतरनाक है , इसलिए उसका भारतीय जेल में स्थानान्तरण उचित नहीं । एक अन्य अधिकारी सी.डब्ल्यू . ग्वाइने ने 17 मार्च 1920 को लिखा , ‘ दोनों भाइयों में विनायक अधिक खतरनाक है । ‘ 18 मार्च 1920 को गृह सचिव मेक्फर्स ने लिखा , ‘ विनायक ही असली खतरनाक व्यक्ति है । उसके पास दिमाग है और जन्मजात नेता का स्वभाव है । उसकी रिहाई पर आपत्ति का कारण यह नहीं है कि उसका अपराध गंभीर है , बल्कि यह कि वह खतरनाक है । ‘
राष्ट्रीय अभिलेखागार के दस्तावेज ऐसे अनेक उद्धरणों से भरे हुए हैं । पर जो मस्तिष्क पूंजीपतियों के अखबारों में मोटी तनख्वाहें बटोरकर ऐश की जिन्दगी जी रहा हो , बौद्धिक वेश्याचार जिसका स्वभाव बन चुका हो , वह रणनीति के तहत भाषायी आवरण के भीतर धधक रही देशभक्ति की आग को कैसे पहचान सकता है ?
देशभक्ति का कितना महंगा मूल्य विनायक सावरकर ने चुकाया । अन्डमान पहुँचते ही 14 अगस्त 1911 को बम्बई विश्वविद्यालय ने उनकी बी.ए. की डिग्री छीनने का तोहफा उन्हें भेजा । यह डिग्री 1937 में निर्वाचित सरकार के आने पर ही उन्हें वापस मिली । लंदन में बैरिस्टरी की डिग्री उनकी क्रांतिकारी – गतिविधियों के कारण उन्हें नहीं दी गई । उन्होंने इस अन्याय के विरुद्ध अपील की । ग्रेजइन में 15 दिन की सुनवायी के बाद उनके सामने शर्त रखी गयी कि यदि वे क्रांतिकारीयों गतिविधियों में भाग न लेने का लिखित आश्वासन दें तो वे बैरिस्टर बन सकते हैं । सावरकर ने बैरिस्टरी छोड़ना स्वीकार किया । उन्हें पचास साल के लिए कालापानी भेज दिया गया । वहां जेल की चारदीवारी में बंद कर दिया गया । उनकी दुबली – पतली काया को घोर यातनाएं दी गयीं । ऐसी स्थिति में हो सकता है सावरकर को लगा हो कि घुट – घुटकर मरने से तो अच्छा है कि आत्महत्या करके मर जाऊं ताकि नया जन्म लेकर मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ सकूं । यही पाठ उन्होंने अपने शिष्य मदनलाल ढींगरा को सिखाया था । इसीलिए ढींगरा ने ब्रिटिश जज से कहा था कि मुझे फांसी देनी ही है तो देर क्यों करते हो ? जल्दी करो ताकि मैं पुनर्जन्म लेकर मातृभूमि के लिए लड़ सकूं । सावरकर के मन में यही भाव उनकी इस मराठी कविता में फूट पड़ा था –

तुझसाठी मरण ते जनन
तुझवीण जनन ते मरण

हे मातृभूमि ! तेरे लिए मरना ही जीना है और तुझे भूलकर जीना ही मरना है । सावरकर के विचारों से किसी का मतभेद हो सकता है किन्तु उनकी देशभक्ति पर उंगली उठाना सूर्य पर थूकने के समान है । अंतःकरण में धधकती आग के साथ बाहरी परिस्थितियों से समझौता करके भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की कोशिश करते रहना कितना कठिन होता है , यह कौटिल्य , शिवाजी और विनायक दामोदर सावरकर के जीवन में गहरे तक प्रवेश करके ही समझा जा सकता है । अंग्रेज सरकार की शर्तों को मानकर रत्नागिरि जिले में स्थानबद्धता के काल में वे चुप नहीं बैठे । 1925 में कोहट के दंगों से आहत उनके मन का आक्रोश एक लेख के रूप में फूट ही पड़ा । उस लेख से क्षुब्ध ब्रिटिश सरकार को जो स्पष्टीकरण उन्होंने लिखा वह झुकने का नहीं , बौद्धिक चातुर्य का प्रमाण है । यदि सावरकर टूट चुके थे , यदि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे , यदि वे ब्रिटिश सरकार के एजेंट बन गए थे , यदि ब्रिटिश सरकार उन्हें गांधी की उभरती शक्ति के विरुद्ध प्रयोग कर सकती थी , तो पांच वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर 1931 में उन्होंने सावरकर को गांधी विरोधी प्रचार के लिए खुला क्यों नहीं छोड़ दिया ? क्यों 1931 में फिर 1933 , 1934 और उन पर आरोपित बंधनों की अवधि को ब्रिटिश सरकार 2-2 साल के लिए आगे बढ़ाती गयी ? 1937 में वे तभी बाहर निकल पाए जब जनता की निर्वाचित सरकार बम्बई प्रान्त में सुनिश्चित हो गयी । उस समय समाजवादी नेता एस . एम . जोशी और अच्युत पटवर्धन उनके पास समाजवादी पार्टी का निमंत्रण लेकर गए थे , पर सावरकर ने हिन्दू महासभा का मंच चुना । इस चयन से कुछ लोगों को मतभेद हो सकता है किन्तु इसके कारण उनकी प्रखर देशभक्ति , उनके दुर्दम्य साहस , उनके असामान्य त्याग को झुठलाया नहीं जा सकता ।

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