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पेरिस में पैगंबर के पैगाम की हत्या

फ्रांस की व्यंग्य पत्रिका ‘चार्ली एब्दॉ’ के पत्रकारों की हत्या विश्व-पत्रकारिता के इतिहास में सबसे काले दिन की तौर पर जानी जाएगी। हर वर्ष साहसी पत्रकारों की हत्या की खबरें हम सुनते ही रहते हैं, लेकिन पेरिस के इस हत्याकांड ने सारी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इस हत्या के विरोध में सिर्फ यूरोप के ही लाखों लोग सड़कों पर नहीं उतर आए हैं, दुनिया के ईसाई, हिंदू, बौद्ध और यहां तक कि मुसलमानों ने भी इसकी कड़ी भर्त्सना की है। जो लोग ‘चार्ली एब्दॉ’ पत्रिका की निर्मम टीका-टिप्पणी और कार्टूनों को पसंद नहीं करते, उन्हें भी इस नृशंस हत्याकांड से सदमा पहुंचा है।

उन लोगों का मानना है कि बोली का जवाब बोली से दिया जाना चाहिए, गोली से नहीं। गोली से जो जवाब देता है, वह यह सिद्ध करता है कि उसकी बोली में दम नहीं है। गोली चलाकर वह इस बात को प्रमाणित करता है कि उसके विरोधी ने जो कुछ कहा है, वह सच है। वह सच हो, यह जरूरी नहीं है, लेकिन हत्यारा अपने कुकर्म से उस तथ्य को हजार गुना शक्तिशाली बना देता है। यदि ईसा मसीह, महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी की हत्या करके उनके हत्यारों ने यह सोचा होगा कि वे इनकी आवाजों को ठंडा कर देंगे तो क्या हुआ? उसके परिणाम उल्टे ही हुए। जिन दो हत्यारों ने फ्रांस के 10 पत्रकारों की हत्या की है, उन्होंने दुनिया के घर-घर में यह संदेश पहुंचा दिया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा हर कीमत पर होनी चाहिए।

उक्त व्यंग्य-पत्रिका का संपादक स्टीफन चार्बोनिए किसी चर्च या धार्मिक संगठन का कार्यकर्ता नहीं था। वह कोई इस्लाम-विरोधी अभियान का योद्धा नहीं था। वह फ्रांस की स्वातंत्र्य-परंपरा का पत्रकार था। फ्रांसीसी-क्रांति ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जो मशाल 1779 में जलाई थी, उसी के प्रकाश में वह अपनी कलम चला रहा था। वह संगठित धर्मों के खिलाफ था। उसने सिर्फ इस्लाम के खिलाफ ही कार्टून नहीं छापे, ईसाइयत के खिलाफ भी वह लगातार कुछ न कुछ सामग्री प्रकाशित करता रहता था। फ्रांसीसी सेक्यूलरिज्म की पुरानी परंपरा में वह यह मानता था कि उसका यह धर्म है कि वह सभी धर्मों का विरोध करे। विरोध ही नहीं करे बल्कि धार्मिकों पर प्रहार भी करे, चाहे उसका वे बुरा मानें या उससे दुखी हों या उस पर कुपित हों। उसने अपनी पत्रिका में केथोलिक ईसाइयों के ब्रह्मचर्य की खिल्ली उड़ाते हुए कार्टून में पोप बेनेडिक्ट को कंडोम हिलाते हुए दिखाया था। इस तरह के कई बेलगाम और आक्रामक कार्टून, जिनका जिक्र हम यहां नहीं कर रहे हैं, वह छापता रहता था। वह यह जानता था कि ऐसे कार्टूनों से धर्मप्रेमी लोग बहुत नाराज़ होंगे। उसे धमकियां भी मिलती रहती थीं, लेकिन वह निर्भय होकर अपना काम करता रहता था।

यहां प्रश्न यह है कि सभी मज़हबों पर आक्रमण करने की उसकी नीति क्या सही थी? इस प्रश्न का उत्तर देने के पहले हमें एक अन्य प्रश्न का उत्तर खोजना चाहिए। वह प्रश्न यह है कि वह ऐसा क्यों करता था? उसका लक्ष्य क्या था? क्या उसका लक्ष्य किसी अंतिम सत्य की खोज था? क्या उसने हर मजहब की गहराई में जाकर उसे देखा-परखा था? क्या महर्षि दयानंद के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की तरह उसने कभी हर मजहब की गंभीर और तर्कसम्मत चीड़-फाड़ की है? क्या उसने कोई पाखंड-खंडिनी पताका गाड़ी है? क्या वह धर्म के नाम पर चल रहे पाखंडों को काटकर मानवता को नया रास्ता दिखाना चाहता था?

क्या वह कोई नया धर्म चलाना चाहता था? ऐसा कोई प्रमाण तो हमें नहीं मिला। वह तर्क-वितर्क भी नहीं करता था। वह सिर्फ हंसी-मजाक का सहारा लेता था। उसकी पत्रिका ‘चार्ली एब्दॉ’ की सामग्री पढ़कर पाठकगण थोड़ा-बहुत हंस लेते थे। उसके हास्य-व्यंग्य से कोई न कोई संदेश जरूर निकलता था, लेकिन वह ऐसा नहीं होता था कि कोई अपने मजहब को छोड़कर दूसरा मजहब अपना ले। जो पारंपरिक मजहब चल रहे हैं, उनके भक्तगण की श्रद्धा मिटाने की क्षमता उसके कार्टूनों में कभी नहीं रही। हां, उन कार्टूनों से नाराज़ होकर वह श्रद्धा, अंध-श्रद्धा में जरूर बदल जाती होगी, इसीलिए ऐसे पत्रकार को मार डालना तो घोर अधार्मिक कार्य हुआ। यदि आपको वह पत्रिका पसंद नहीं तो आप उसे क्यों पढ़ते हैं? आप उसकी सदस्यता शून्य करने का अभियान चला सकते हैं। आप एक जवाबी पत्रिका निकाल सकते हैं। आप उस पर मुकदमा चला सकते हैं। कोई भी कानून किसी को भी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर असीमित छूट नहीं देता है। आप उस पर कानूनी प्रतिबंध लगवा सकते हैं और एक विकल्प यह भी है कि ऐसी हंसी-मजाक की चीजों को आप दरी के नीचे सरकाकर भूल सकते हैं।

पैगंबर साहब के कार्टून की वजह से आपने पत्रकारों की हत्या कर दी, क्या आपने पैगंबर मुहम्मद से कुछ सीखा है या नहीं? स्वयं पैगंबर साहब पर रोज़ मैला फेंकने वाली यहूदिन की कथा आपको पता है या नहीं? जिस दिन उसने उन पर मैला नहीं फेंका, उन्हें अचरज हुआ। मालूम पड़ा कि वह बीमार है। खुद पैगंबर उसके घर में गए। उन्होंने उसकी सेवा की और कुशल-क्षेम पूछा। हत्यारों तुमने पैगंबर के पैगाम की हत्या कर दी। यह घृणित काम करके इन हत्यारों ने इस्लाम की जितनी कुसेवा की है, शायद अब तक किसी ने नहीं की है। फ्रांस में रहने वाले लगभग 60 लाख मुसलमानों का जीना अब शायद आसान नहीं होगा। बुर्के आदि पर तो रोक पहले से ही है, अब मस्जिदों और मदरसों की भी खैर नहीं होगी। जिन संस्थाओं ने लगभग 2000 मुस्लिम जवानों को सीरिया में लड़ने भेजा है, उन पर अब कड़ी निगरानी रहेगी।

फ्रांस के अतिराष्ट्रवादी तत्व अब पहले से अधिक मुखर हो जाएंगे। अपनी रोजी-रोटी के खातिर यूरोप में रहने वाले लाखों मुसलमान, जिन्हें अपने काम से काम है, अब इन सिरफिरे आतंकवादियों की क्रूरता का फल भुगतेंगे। इतना ही नहीं, पेरिस का यह हत्याकांड न्यूयार्क के ट्रेड टाॅवर-कांड की तरह पूरी दुनिया में इस्लाम और आतंकवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू बनाने की कोशिश करेगा। दुनिया के मुसलमान मौलानाओं और राष्ट्रों से आशा की जाती है कि वे इस हत्याकांड की स्पष्ट निंदा करें। आश्चर्य है कि भारत के कई राजनीतिक दलों और नेताओं की बोलती बंद है। सत्य को बोलने और लिखने से डरने वाले लोग भारत-जैसे महान राष्ट्र का नेतृत्व करने का दम कैसे भरते हैं?

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