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कविता

गीता मेरे गीतों में ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद) गीत 23


कर्तव्य का निश्चय

नित्य – कर्म करते चलो , हो जीवन का उत्थान।
गुरुजनों और मात – पिता का करते रहो सम्मान।।

शरीर की रक्षा करना भी, नित्य कर्म ही होय।
जो इनका निश्चय करे ,सदा उसका मंगल होय।।

समय – समय पर जो हमें, करने पड़ते काम।
नैमित्तिक उनको कहें, बात सही मेरी मान।।

अतिथि का सत्कार कर स्नान करो हर रोज।
ये ही ऐसे कर्म हैं, जो देते तेज और ओज।।

हमारी कामना की पूर्ति , करते हों जो काम।
काम्य – कर्म उनको कहें, अर्जुन ! देना ध्यान ।।

काम से इच्छा जन्म ले, और इच्छा है एक रोग।
जब इच्छा में अवरोध हो, तो आता है तब क्रोध।।

जब मन ऐसा सोच ले, त्याग रहा हूं क्रोध ।
इच्छा को भी मार ले, तब समझो हुआ बोध।।

निष्कामता इसको कहें, कह गए ऋषि सुजान।
जीवन को जो सुधार ले, हो उसको सच्चा ज्ञान।।

कर्म के दो रूप हैं , और एक बाहरी होय।
एक भीतरी होत है , समय अनुसार जरूरी दोय ।।

सिर झुके गुरु देखकर , भीतर भी श्रद्धा होय।
विशिष्ट – कर्म इसको कहें, जो भी पंडित होय ।।

भीतरी श्रद्धा शून्य हो , और खड़ा झुकाए शीश।
विकर्म कभी होता नहीं , ना मिलती कोई सीख।।

निष्काम कर्म तभी सिद्ध हो, जब मन भी देता साथ।
बारूद धमाका तब करे, जब बत्ती देती साथ।।

बारूद कर्म बंदूक की , विकर्म की हो आग।
विकर्म ही चैतन्य है , बारूद के प्राण हैं आग।।

कर्म जुड़े जब विकर्म से , दूर भगे अहंकार।
काम – क्रोध भी नष्ट हों , होते शुद्ध विचार।।

यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004

डॉ राकेश कुमार आर्य

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