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विहार : बिन मांझी की नाव

बिहार की राजनीति मजाक बनकर रह गई है। कहां तो नीतीश और लालू, मुलायम के साथ मिलकर एक कठोर तीसरा मोर्चा खड़ा कर रहे थे और कहां अब नीतीश के जनता दल को ही मोर्चा लग रहा है। नीतीश की रणनीति कितनी बुरी तरह विफल हो गई! उन्होंने सोचा होगा कि जैसे लालू ने राबड़ी को बिठाकर बिहार में कभी कठपुतली राज चलाया था, वैसे ही जीतनराम मांझी को गद्दी सौंपकर नीतीश भी चला लेंगे। संसदीय चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर नीतीश अपनी छवि चमकाना चाहते थे लेकिन अब लेने के देने पड़ गए हैं। मांझी ने अपनी विचित्र उक्तियों से बिहार सरकार को मझदार में लटका दिया है। उन्होंने कोई खास काम भी ऐसा नहीं किया, जिससे जनता दल (एकी) का वोट—बैंक बढ़े। बल्कि उल्टा ही हुआ है। जिन महादलितों पर एकाधिकार का सपना नीतीश देख रहे थे, वह भी चकनाचूर हो रहा है। अब सभी महादलित मांझी को अपना नेता मान रहे हैं। कल उन्होंने नीतीश—समर्थकों की पिटाई भी कर डाली। मांझी के साथ कुछ मंत्री और कई विधायक खुलकर आ गए हैं। अध्यक्ष शरद यादव द्वारा बुलाई गई विधायक दल की बैठक को रद्द करने की घोषणा भी मांझी ने कर दी है और उन्होंने 20 फरवरी को वह बैठक बुला ली है। उन्होंने शरद और नीतीश की आलोचना भी खुले—आम की है।

जाहिर है कि शरद और नीतीश के सामने मांझी टिक नहीं पाएंगे। उन्हें जाना तो पड़ेगा ही। लेकिन वे जाते—जाते विधानसभा भंग करवा सकते हैं। अगर दोनों धड़ों में दंगल बढ़ जाए तो बिहार में राष्ट्रपति शासन भी लागू हो सकता है। यह भी असंभव नहीं कि मांझी अपने समर्थकों के साथ भाजपा में शामिल हो जाएं। भाजपा उनके प्रति इधर नरम पड़ी है। पटना में आगे जो भी हो, उसका अतंतोगत्वा फायदा भाजपा को ही मिलेगा। आज का बिहार बिन मांझी की नाव बन गया है।

कुल मिलाकर इन सब घटनाओं का असर नवंबर में होनेवाले प्रांतीय चुनाव पर पड़ेगा। नवंबर में भाजपा को बिहार में अपनी सरकार बनाने का मौका मिल सकता है। जहां तक तीसरे मोर्चे का सवाल है, यह उसके लिए बड़ा धक्का होगा। उसके दो मजबूत स्तंभ गिर जाएंगें। उनकी साख नगण्य हो जाएगी। जो अपने प्रदेश में ही बेअसर हैं, उनका असर देश में कैसे पनपेगा? भारतीय लोकतंत्र के लिए यह चिंता का विषय है। यदि देश में सशक्त विपक्ष नहीं होगा तो मोदी सरकार को प्रवाह पतित होने से रोकना मुश्किल है।

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