ओ३म्

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त्वं सोम क्रतुभिः सुक्रतुर्भूस्, त्वं दक्षैः सुदक्षो विश्ववेदाः।
त्वं वृषा वृषत्वेभिर्महित्वा, द्युम्नेभिर् द्युम्न्यभवो नृचक्षाः।।
ऋग्वेद 1.91.2
ऋषिः गोतमः राहूगणः। देवता सोमः। छन्दः पंक्ति।।

(सोम) हे जगदुत्पादक तथा शुभगुणप्रेरक परमात्मन्! (त्वं) तू (क्रतुभिः) प्रज्ञाओं और कर्मों से (सुक्रतुः) सुप्रज्ञ और सुकर्मा (भूः) हुआ है। (विश्ववेदाः) सर्वव्यापक तथा सर्वज्ञ (त्वं) तू (दक्षैः) दक्षताओं एवं बलों से (सुदक्षः) सुदक्ष [हुआ है]। (त्वं) तू (वृषत्वेभिः) विद्या, सुख, धन आदि की वर्षाओं से [तथा] (महित्वा) महिमा से (वृषा) वर्षक तथा महान् [हुआ है] है, और, (नृचक्षाः) मनुष्यद्रष्टा [तू] (द्युम्नेभिः) तेजो, यशों, अन्नों और धनों से (द्युम्नी) तेजस्वी, यशस्वी, अन्नवान् और धनी [हुआ है]।

हे सोम! हे जगत् के रचयिता तथा हृदय में शुभ गुणों की प्रेरणा करनेवाले परमात्मन्! मैं जब कभी तुम्हारे स्वरूप पर दृष्टिपात करता हूं, तब मुग्ध हो जाता हूं। तुम्हारे अन्दर जैसे अद्भुत गुण-कर्मों का सम्मिलन और सांजस्य है, उसे देख श्रद्धा से तुम्हारे प्रति मेरा मस्तक नत हो जाता है। तुम ‘विश्ववेदाः’ हो, विश्वव्यापक और विश्ववित् हो, विश्व के ‘नृचक्षाः’ हो, प्रत्येक मनुष्य के द्रष्टा हो। ज्यों ही मनुष्य अपने मन में अच्छा या बुरा कोई विचार लाता है अथवा अच्छा या बुरा काई कर्म करता है, त्यों ही तुम उसे जान लेते हो। तुम अपने क्रतुओं के कारण ‘सुक्रतु’ कहलाते हो। ‘क्रतु’ शब्द से सूचित होनेवाले ज्ञान और कर्म तुम्हारे अन्दर आदर्शरूप में विद्यमान हैं। तुम्हारे ज्ञान और कर्म दोनों ही सत्य, शिव और सुन्दर हैं। चारों वेद तुम्हारे अगाध और शुभ ज्ञान के साक्षी हैं और यह सकल ब्रह्माण्ड तुम्हारे व्यवस्थित शुभ कर्म का साक्षी हैं। तुम दक्षताओं एव बलों से ‘सुदक्ष’ हो। तुम्हारी दक्षता, तुम्हारा शिल्पकौशल, तुम्हारा कला-चातुर्य जगत् की एक-एक वस्तु में, तरु-वल्लरियों में, फूल-पत्तियों में, भूमि-आकाश में, चांद-सितारों में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। तुम्हारे बल, तुम्हारे अपार सामथ्र्य का तब पता लगता है जब तुम प्राणियों को किसी ऐसी भयंकर विपत्ति से बचा लेते हो जिसके प्रतिकार के लिए वे स्वयं बेबस होते हैं, या किन्हीं दुर्जनों को उनके द्वारा किये जानेवाले सम्पूर्ण रक्षा-प्रयासों को विफल करके तुम काल का ग्रास बना देते हो।

हे सोम प्रभु! तुम अपने द्वारा हमारे ऊपर निरन्तर की जानेवाली वर्षाओं से ‘वृषा’ या वर्षक बने हुए हो। तुम हमारे ऊपर बल, विद्या, धन, सुख, विनय, सत्य, न्याय, दया, रक्षा आदि की सतत वृष्टि करते रहते हो, जिससे हम परिपुष्ट होते हैं। हे प्रभु! तुम ‘द्युम्नों’ से ‘द्युम्नी’ बने हुए हो। तेज, यश, धन, अन्न आदि प्रशस्त द्युम्न के तुम धनी हो, अतएव प्रशस्य और वन्दनीय हो।

(आचार्य डा0 रामनाथ वेदालंकार की पुस्तक वेद-मंजरी से साभार प्रस्तुत)

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