सुख के लिए लाना होगा अपने अंदर सुधार : स्वामी विवेकानंद परिव्राजक


लोग कहते हैं कि “संसार बहुत बिगड़ गया है.” जी हां। यह सत्य है, कि “संसार बहुत बिगड़ गया है।” और कुछ लोग इसके सुधार की चिंता भी बहुत करते हैं। वे लोग सुधार के लिए प्रयास भी बहुत करते हैं। परंतु फिर भी परिणाम वैसा नहीं दिखाई दे रहा, जैसा कि वे लोग चाहते हैं, अथवा जैसा सुधार होना चाहिए।
कारण क्या है? कारण यह है, कि “वे लोग भावुकतावश सुधार की बातें तो बहुत करते हैं, परन्तु सुधार की वास्तविक प्रक्रिया को नहीं जानते। सुधार की प्रक्रिया को न जानने से, न तो उनका अपना सुधार हो पाता है, और न ही दूसरों का।”
वेदों और वैदिक शास्त्रों में सुधार का वास्तविक उपाय यह बताया गया है, कि “सबसे पहले ‘अपने मन’ को शुद्ध बनाएं। फिर ईमानदारी और बुद्धिमत्ता से सत्य को समझने का प्रयत्न करें। यदि आपका मन शुद्ध नहीं होगा, आपका बौद्धिक स्तर ऊंचा नहीं होगा, तो आप सत्य को समझ ही नहीं पाएंगे। बौद्धिक स्तर ऊंचा होने के कारण, यदि कुछ मात्रा में सत्य समझ में आ भी गया, तो मन शुद्ध न होने से आप सत्य को हृदय से स्वीकार नहीं करेंगे। जब तक आप सत्य को हृदय से स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक उसको आचरण में नहीं लाएंगे।” “जब तक आप स्वयं अपने आचरण में सत्य को धारण नहीं करेंगे, तब तक आप में कोई सुधार नहीं आएगा। जब आपमें ही सुधार नहीं आएगा, तो आप कितनी भी पुस्तकें लिख लें, छाप दें, बाँट दें, कितने भी प्रवचन कर लें, कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर लें, बड़ी-बड़ी सभाएं कर लें, कोई ठोस परिणाम नहीं आएगा, अर्थात जैसा सुधार आप चाहते हैं, वैसा नहीं होगा, और न ही हो रहा है। क्योंकि आप ऊपर लिखी प्रक्रिया को जानते नहीं, और अपनाते नहीं।”
इसलिए सबसे पहले ‘अपने अंदर’ सुधार लाएं, जिसकी प्रक्रिया ऊपर लिखी है। “जब आपके ‘अंदर’ सुधार आएगा, तभी आपके ‘बाह्य आचरण’ में भी सुधार आएगा। जब तक आप के ‘अंदर सुधार नहीं’ आएगा, तब तक आपके ‘बाह्य आचरण’ में भी कोई परिवर्तन या सुधार नहीं होगा।”
जब आप का बाह्य आचरण सुधर जाएगा, तो उसे देख कर दूसरे बुद्धिमान लोग भी आपके बाह्य आचरण से प्रभावित होंगे। प्रभावित होने के बाद वे भी सोचेंगे, कि “इस व्यक्ति का विचार वाणी व्यवहार आचरण बहुत उत्तम और सुखदायक है।” तब जाकर वे सोचेंगे, कि “हम भी ऐसे बनें।” इस प्रकार से दूसरों में भी सुधार आने की संभावना है।
फिर भी सारे लोग तो नहीं सुधरेंगे। क्यों?
उसका कारण यह है, कि “जो लोग संस्कारी सत्यवादी सत्यग्राही बुद्धिमान होंगे, वे तो अपने जीवन में सुधार ले आएंगे। परंतु जो हठी दुराग्रही और मूर्ख लोग होंगे, वे आपके उत्तम आचरण को देखकर भी अपने अंदर कोई सुधार नहीं लाएंगे।” जैसे श्रीकृष्ण जी महाराज ने दुर्योधन को समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर भी वह नहीं माना। आजकल भी दुर्योधन के अनुयाई बहुत लोग हैं। वे आपके समझाने से भी नहीं समझेंगे। “ऐसे मूर्ख और हठी लोगों की चिंता न करें।” “उनका सुधार आपके प्रेमपूर्ण उपदेश से नहीं होगा, बल्कि राजा के या ईश्वर के दंड से होगा।”
“अतः पहले अपने जीवन को सुधारें। फिर बाद में दूसरों को भी सुधारने का यथासंभव प्रयत्न करें।” “उसमें भी जबरदस्ती न करें। कठोर भाषा का प्रयोग न करें। उससे कोई अच्छा परिणाम नहीं आएगा, बल्कि हानियां ही होंगी। अतः उन हानियों से बचने के लिए, तथा ठीक ढंग से सत्य का प्रचार करने के लिए, सभ्यतापूर्वक नम्रतापूर्वक मीठी भाषा में लोगों को सत्य बताएं। जो व्यक्ति पूर्व जन्म का संस्कारी होगा, वह सुधर जाएगा। “मूर्ख और हठी लोग, कठोर भाषा बोलने पर भी नहीं सुधरेंगे, क्योंकि वे सुधरना ही नहीं चाहते।” बल्कि अब तक के प्रयत्न से ‘आपका’ जो थोड़ा बहुत सुधार हुआ था, आपके द्वारा कठोर भाषा बोलने और कठोर व्यवहार करने के कारण, वह भी नष्ट हो जाएगा।” “आपकी ही बड़ी हानि हो सकती है। चले थे दूसरों का सुधार करने, और स्वयं ही बिगड़ गए, तो क्या कमाया?”
“हमारे पूज्य गुरुदेव स्वामी सत्यपति जी महाराज ने हमें समझाया कि, पहले अपना ध्यान रखें। अपना बिगाड़ न करें। अपने जीवन आचरण को सुरक्षित रखते हुए, दूसरों का सुधार करने का यथाशक्ति यथासंभव प्रयत्न करें। इसी में बुद्धिमत्ता है।”
इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए पूज्य गुरुदेव जी द्वारा सिखाए हुए दो सूत्र सदा याद रखें, तथा आचरण में लाएं। “दुनियां सुधरे या न सुधरे, हम ज़रूर सुधरेंगे।” और “दुनियां सुधरे या बिगड़े, हम नहीं बिगड़ेंगे।”
—- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।

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