Categories
आतंकवाद

मुस्लिमों को समझाने की बजाय हर बार भड़काने का काम क्यों करता है पर्सनल लॉ बोर्ड?

 संजय सक्सेना

बोर्ड के कार्यकारिणी सदस्य कासिम रसूल इलियास ने एक न्यूज एजेंसी को दिए बयान में बताया कि बोर्ड की कार्यकारी समिति (वर्किंग कमेटी) की 17 मई की रात एक आपात वर्चुअल बैठक हुई थी, जिसमें कई अहम फैसले लिए गए।

वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद को लेकर कोर्ट में चल रहे विवाद में अब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की भी इंट्री हो गई है, लेकिन वह इस बार भी हमेशा की तरह निष्पक्ष की बजाए भड़काऊ मुद्रा में नजर आ रहा है। बोर्ड धमका रहा है कि मस्जिदों के अपमान को मुसलमान बर्दाश्त नहीं कर सकते। साम्प्रदायिक शक्तियां अराजकता पर उतारू हैं और अदालतें भी पीड़ितों को निराश कर रही हैं। साथ ही बोर्ड ने ज्ञानवापी को लेकर फैसला किया कि वह खुद पूरे मामले को टेक ओवर करेगी। इसके लिए एक कमेटी बनाई जाएगी। यह कमेटी ज्ञानवापी मस्जिद की तरफ से कोर्ट से लेकर अन्य सभी मामलों पर पैरवी करेगी, जहां भी मस्जिदों को लेकर विवादित मामले चल रहे हैं।

खैर, कथित तौर पर देश में मुसलमानों का प्रमुख संगठन समझे जाने वाले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश में मुसलमानों की इबादतगाहों को कथित रूप से निशाना बनाए जाने पर केन्द्र की मोदी और प्रदेश की योगी सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने की तो मांग की है, लेकिन वह इतिहास पढ़ने और मुसलमानों को यह बताने को तैयार नहीं है कि जिन विवादित धार्मिक स्थलों को वह मुसलमानों के पवित्र इबादतगाह बता रहे हैं, दरअसल उसे मुगल शासकों ने हिन्दुओं के प्रमुख मंदिरों को तोड़कर इबादतगाह में बदला था, जो पूरी तरह से गैर इस्लामी कदम था। बोर्ड ने विरोध ही नहीं किया है इससे आगे बढ़कर  ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में मस्जिद इंतजामिया कमेटी और उसके वकीलों को विधिक सहायता मुहैया कराने का फैसला किया है। बोर्ड ने इबादतगाहों पर विवाद खड़ा करने की ‘असल मंशा’ के बारे में जनता को बताने के लिए जरूरत पड़ने पर देशव्यापी आंदोलन चलाने का भी निर्णय लिया है।
बोर्ड के कार्यकारिणी सदस्य कासिम रसूल इलियास ने एक न्यूज एजेंसी को दिए बयान में बताया कि बोर्ड की कार्यकारी समिति (वर्किंग कमेटी) की 17 मई की रात एक आपात वर्चुअल बैठक हुई थी, जिसमें कई अहम फैसले लिए गए। इलियास ने वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही मस्जिद ईदगाह मामलों का जिक्र करते हुए बताया कि बैठक में इस बात पर अफसोस जाहिर किया गया कि मुल्क में मुसलमानों की इबादतगाहों को निशाना बनाया जा रहा है। बोर्ड के नुमांइदे बता रहे हैं कि वर्ष 1991 में संसद में सबकी सहमति से बनाए गए पूजा स्थल अधिनियम की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं तो इस हिसाब से तो सीएए/ एनआरसी, तत्काल तीन तलाक पर बनाए गए कानून का भी विरोध नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह कानून भी तो संसद में ही बने हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसी प्रकार से इस्लाम में मुल्ला-मौलवियों, यहां तक कि इबादत के लिए मस्जिद की भी जरूरत नहीं है। क्यों बोर्ड समान नागरिक संहिता का विरोध करता है ? क्यों वह मुसलमानों को यह नहीं बताता है कि काफिर किसे कहा जाता है? क्योंकि अधिकांश मुस्लिम अहमदियों को मुस्लिम नहीं मानते हैं।

दरअसल, 1973 में बना ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड पूरी तरह से एक गैर-सरकारी संगठन है। ये संगठन कब बना, किसने बनाया ? नाम से तो यही लगता है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है तो इसे मुसलमानों ने ही बनाया होगा। पर यह सच नहीं है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का विचार 1973 में सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दिमाग में आया था। इसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि उस समय देश में इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता बहुत तेजी से घटने लगी थी। तब इंदिरा गाँधी ने सेक्युलर भारत में मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए स्वयं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की 1973 में स्थापना की थी। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए इंदिरा गाँधी के विशेष नियम भी बनाया। इस संस्था का आज तक कभी ऑडिट नहीं हुआ है, इसे विशेष छूट मिली हुई है। बोर्ड के पास अरब देशों से कितना पैसा आता है, उस पैसे का वह क्या करता है, किसी को कुछ नहीं पता। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का हाल यह है कि 91 फीसदी मुस्लिम महिलाएं ट्रिपल तलाक के खिलाफ हैं फिर भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ट्रिपल तीन तलाक के मामले पर सुप्रीम कोर्ट को हिंसा तक की धमकी देता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 95 फीसदी मुसलमान महिलाओं को तो ये भी नहीं पता कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड असल में है क्या ? इस बोर्ड में केवल कट्टरपंथी मुस्लिम ही हैं। नरेंद्र मोदी के सर पर फतवा देने वाला इमाम बरकाती भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का सदस्य है। जिहादी किस्म के ही लोग इस संस्था में हैं। इस संस्था में 1 भी महिला नहीं है। यह बोर्ड कभी इस बात को लेकर चिंतित नहीं होता है कि उसकी कौम कैसे आगे तरक्की करे, बच्चे पढ़ें-लिखें, मुस्लिम महिलाओं को उनका अधिकार मिले, बच्चियां स्कूल जाएं? बोर्ड कभी नहीं कहता है कि अजान से होने वाले शोर जिससे लोगों को तकलीफ होती है उसको बंद किया जाए या मदरसों की शिक्षा में सुधार हो ?
इसके उलट आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के रहनुमाओं को लगता है कि देश के मुसलमान अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के मामले में वर्ष 1857 और 1947 से भी ज्यादा मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि बोर्ड की मनमानी पर लगाम लगाई जा रही है। मोदी सरकार इस बात का हिसाब रख रही है कि किसको विदेश से कितना पैसा मिल रहा है और यह पैसा किस मद में आता है और कहां खर्च होता है।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version