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कविता

मोहग्रस्त अर्जुन

गीता मेरे गीतों में

( 1 )

मोहग्रस्त अर्जुन

कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में थी सेनाएं सजकर खड़ी हुईं,
अपने पक्ष को प्रबल बता विजय हेतु थी अड़ी हुईं ।
महासागर सेना का उमड़ा- थी सर्वत्र चमकती तलवारें,
हर योद्धा उनको भांज रहा ,थी अपने आपसे भिड़ी हुई ।।

अर्जुन ने अब से पहले भी न जाने कितने थे युद्ध लड़े,
महाबलियों को दिया प्राण दण्ड, जो सम्मुख आ हुए खड़े।
किया नहीं संकोच कभी भी उनके प्राणों के हरने में,
आज हुए सम्मुख स्वजन खड़े तो पग अर्जुन के ठिठके।।

जैसे एक न्यायाधीश प्राण दण्ड देता रहता है जीवन भर,
नहीं संकोच उसे कुछ भी होता दण्ड सुनाते अपराधी पर।
जब अपराधी रूप में उसके सम्मुख निज पुत्र लाया जाता,
तब अपना पक्ष बदल देता है, प्राण दण्ड को बुरा बताकर ।।

उस न्यायाधीश सम सोच से ग्रसित था अर्जुन को मोह हुआ,
अपनों को सम्मुख खड़ा देख अर्जुन भी था कुछ सोच रहा ।
वह युद्ध से विमुख हो हथियार फेंक कर कृष्ण जी से बोला –
‘मैं युद्ध नहीं कर सकता केशव’ ! ” – मुझे युद्ध से क्षोभ हुआ।।

दु:ख मेरे की नहीं है सीमा, स्वजनों को यहां एकत्र देख ,
किस कारण ये यहां पर आए, बताओ ! कौन सा कर्म लेख ?
नहीं कल्याण मेरा हो सकता कभी स्वजनों का वध करने से,
मैं विजय, राज्य और सुख को भी अपने से रहा हूँ दूर फेंक ।।

डॉक्टर राकेश कुमार आर्य

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