उन सबको यह डर था कि कहीं हमारे मुसलमान मतदाता नाराज न हो जाएं और अरब देशों से हमारे संबंध खराब न हो जाएं। ये दोनों धारणाएं निराधार थीं। भारतीय मुसलमानों को फिलस्तीन तो क्या, कश्मीर की ही परवाह नहीं है। यों भी फिलस्तीन के नेता अपने आपको इस्लामवादियों से अलग याने सेकुलर मानते रहे हैं। जहां तक अरब देशों का प्रश्न है, सबसे बड़े अरब देश सउदी अरब का रवैया इजराइल के प्रति नरम रहता है और जोर्डन, मिस्र और तुर्की ने तो उसे बाकायदा मान्यता दे रखी है। मुशर्रफ के जमाने में पाकिस्तान ने भी इजराइल से संबंध बढ़ाने की कोशिश की थी। इजराइल अफगानिस्तान में भी सक्रिय भूमिका निभाने का इच्छुक है। ईरान के अलावा किसी भी देश के साथ इजराइल के संबंध जानलेवा नहीं हैं। भारत तो फिलस्तीनी राज्य का कट्टर समर्थक है। इस बात को सुषमा स्वराज ने भी दोहराया है। इसके बावजूद हमारे प्रधानमंत्री का इजराइल जाना शुद्ध व्यावहारिकता है। बल्कि मैं तो यह कहता हूं कि मोदी थोड़ी हिम्मत करें तो भारत वह भूमिका निभा सकता है, जो अमेरिका भी नहीं निभा पाया। भारत चाहे तो फिलस्तीन के मामले में एक सफल मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है।
इजराइल के साथ भाजपा के परंपरागत संबंध उत्तम रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जब विदेश मंत्री थे तब प्रसिद्ध इस्राइली नेता मोशे दयान ने भारत की गुप्त-यात्रा भी की थी। भाजपाई नेता अक्सर इजराइल जाते रहे हैं। इस समय इजराइल जैसे छोटे-से देश के साथ भारत का व्यापार पांच अरब डालर का है। इजराइली हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार भारत ही है। खेती और तकनीक के कई क्षेत्रों में इजराइल हमसे आगे है। परमाणु-तकनीक और शस्त्र-निर्माण में भी भारत-इजराइल सहयोग नई उंचाइयां छू रहा है। हमारे प्रधानमंत्री सारी दुनिया में घूम आए लेकिन उनका इजराइल जाना क्यों रह गया, यह प्रश्न मैंने पिछले हफ्ते अपने एक लेख में उठाया था। मुझे खुशी है कि विदेश मंत्री सुषमा इजराइल और फिलस्तीन, दोनों जगह जाएंगी।