प्रतिभापुँज व्यक्ति आकर्षण का केंद्र होता है

बिखरे मोती

प्रतिभापुँज व्यक्ति आकर्षण का केंद्र होता है

प्रतिभापुँज संसार में,
बिरला होता कोय।
आकर्षण का केंद्र हो,
सभा भी रोशन होय॥1669॥

भावार्थ:- जिस प्रकार झील का कमल और सरोवर का हंस दोनों ही अपनी उपस्थिति से यथा स्थान शोभा में चार चांद लगाते हैं, वहां की शोभा बढ़ाते हैं, ठीक इसी प्रकार प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति जीवन के किसी भी कार्य क्षेत्र में विद्यमान रहकर चाहे वह विद्यालय हो, कार्यालय हो, चिकित्सालय हो, कल- कारखाने अथवा औद्योगिक इकाई हो, सुरक्षा बल अथवा सेनाएं हो, बड़े-बड़े प्रतिष्ठा अथवा अनुसंधान संस्थान हो, सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक अथवा धार्मिक संगठन में हो इसके अतिरिक्त किसी सभा – सम्मेलन, गोष्ठी, उत्सव, क्रीड़ा-स्थल में हो, उनकी प्रतिभा का जादू सिर चढ़कर बोलता है। वे सम्मान और सत्कार के तथा आकर्षण का केंद्र होते हैं। उनके यश की समीर से धरती और आकाश सुरभित होते हैं। ऐसे लोग संसार में बड़े दुर्लभ होते हैं। संक्षेप में यही कहूंगा कि प्रतिभा प्रभु -प्रदत्त है, कृत्रिम नहीं। यह व्यक्तित्व का गहना है। परमपिता परमात्मा का अनमोल उपहार है। इसका रक्षण परिभार्जन और संवर्धन करते रहिए। परमपिता परमात्मा के प्रति कृतज्ञ रहिए तथा अहंकार शून्य रहिए।

प्रभु – मिलन की राहें तीन –

प्रभु – मिलन की राह हैं,
ज्ञान, उपासना, कर्म ।
ये ईश्वर का स्वरूप हैं,
समझ इन्हें ही धर्म॥1670॥

ध्यान कैसे हो ?

ध्यान निर्विषयं मन:
संख्या दर्शन 6/25

अर्थात् मन निर्विषय करने का नाम ही ध्यान है।

घोड़ा रज में लेटकर,
रोमों को दे झाड़।
मनुआ ध्यान में बैठकर,
दुर्भावों को उखाड़॥1671॥

मन – बुद्धि और चित्त का सौन्दर्य ही आत्मा का सौन्दर्य है:-

मन बुद्धि और चित्त का,
जो सुन्दरतम रूप।
आत्मा का सौन्दर्य ही,
मानव तेरा स्वरूप॥1672॥

पूजा कैसे करें-

इन्द्रियों से पूजा करी,
मन से कर लगातार।
हरिदर्शन हो जायेंगे,
भव-सागर हो पार॥1673॥

मर्यादित व्यवहार कुलीनता का परिचायक है:-

खेत की उर्वरा -शक्ति को,
बताती पैदावार।
किस में कितनी कुलीनता,
व्यक्त करे व्यवहार॥1674॥

वाणी रूपी गाय हमें कौन से चार प्रकार के अमृत प्रदान करती है:-

वाणी रूपी गाय को,
दोहते रहो दिन-रात।
भक्ति प्रताप और तेज-बल,
वाणी की सौगात॥1675॥

भावार्थ:- वाणी रूपी गाय को दोहते रहो दिन-रात से अभिप्राय है कि, वाणी का परिमार्जन क्षण- प्रतिक्षण करते रहो। वाणी को वाणी के उद्वेगों (दोषो) से सर्वदा बचा कर रखो, उद्वेगों से वाणी की सर्वदा सजगता से रक्षा करो। यदि आप ऐसा करोगे तो याद रखो वाणी रूपी गाय के चार स्तनों में चार प्रकार का अमृत (भक्ति, प्रताप ,तेज और बल) भरा है जिसे यह उसी को उपहार स्वरूप प्रदान करती है जो इसका रक्षण, संवर्धन और परिमार्जन करता है। इस संदर्भ में रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास कितना सुन्दर कहते है:-
वाणी गोधन दोहै जोई।
भक्ति प्रताप तेज -बल देई॥
क्रमशः

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