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विशेष संपादकीय

आराम या विराम नही-काम होना चाहिए

‘उगता भारत’ के पांचवें वर्ष का पहला अंक पाठकों के हाथों में सौंपते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है। आज से ठीकचार वर्ष पूर्व इस समाचार पत्र का ‘जन्म’ हुआ था। तब कारवां में दस बीस लोग सवार थे। आज चार वर्ष का सफर तय करने के बाद इसके कारवां में हजारों पाठकों का आशीर्वाद साथ में है। आप जैसे सुबुद्घ पाठकों से मिली प्रेरणा का पुण्य प्रसाद मानकर संपूर्ण ‘उगता भारत’ परिवार इस प्रसाद को बड़ी सहृदयता से स्वीकार करता है और पूर्ण विनम्रता से इसे जगन्नियन्ता ईश्वर के श्री चरणों में समर्पित करता है।

इस पत्र की सफलता के लिए ईश्वरीय अनुकंपा तो उत्तरदायी है ही साथ ही चार वर्ष के इस अल्पकाल में देश के विभिन्न कोनों में हमारे लिए उठे सहयोग के वो हाथ भी पूर्णत: बधाई के पात्र हैं, जो किसी न किसी रूप में इस विचार संग्राम को प्रचारित और प्रसारित करने में किसी न किसी प्रकार से पत्र के सहयोगी और सहभागी बने हैं। उन सबको कोटिश: धन्यवाद।

पर संघर्ष अभी अपने शैशव में ही है। नवजात शिशु की आंखें खुलने और आदमी की आंखें खुलने में जमीन आसमान का अंतर होता है। अभी रास्ता मिला है, और रास्ते पर मात्र चार कदम ही रखे हैं। यह अलग बात है कि चार कदमों ने भी एक खुशनुमा अहसास का आगाज कराया है, पर हमें विदुर जी का यह संदेश भी ध्यान में रखना होगा कि विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊंचे कुल का मद है। ये सभी घमण्डी पुरूषों के लिए तो मद है परंतु सज्जन पुरूषों के लिए दम के साधन हैं। मद का उल्टा दम है। बात साफ है कि मद का दमन ही होना चाहिए। इसलिए अच्छी से अच्छी उपलब्धि का भी मद नही करना ही उचित होता है। क्योंकि वह उपलब्धि भी कितने ही लोगों के सहयोग की परिणति होती है। उस परिणति में से उन सबके सहयोग और प्रेम को निकाल दो, तो आप को पता चल जाएगा कि तुम स्वयं इन उपलब्धियों में कितने सहयोगी हो। अत: उचित यही है कि समय रहते ही सबको सबका दे दिया जाए। श्री रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड (92/3) में आया है कि-

गुरू बिन भव निधि तरइ न कोई।

जो बिरंचित शंकर सम होई।।

अर्थात संसार रूपी सागर को कोई अपने आप तर नही  सकता। चाहे वह ब्रह्मा जी जैसे सृष्टिकर्ता हों, या शिवजी जैसे संहारकत्र्ता हों फिर भी अपने मन की चाल से अपनी मान्यताओं के जंगल से निकलने के लिए पगडंडी दिखाने वाले सदगुरू की आवश्यकता है।

‘उगता भारत’ ने चार वर्ष पूर्व देश के धर्म, संस्कृति और इतिहास पर आये संकट के बादलों को छितराकर इस देश की गौरवपूर्ण संस्कृति की महान परंपराओं को स्थापित करने का संकल्प व्यक्त किया था। इसलिए लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार, हिंसा, प्रतिहिंसा और दुष्टता की बातों को इसने  प्रचारित प्रसारित करना उचित नही समझा, जबकि आज का मीडिया इसी काम में लगा हुआ है। जिसका प्रभाव समाज पर भी गलत ही पड़ रहा है। समाज को सदा ऊर्जान्वित रखने के लिए आवश्यक होता है कि उसे सकारात्मकता के भावों से भरते रहना चाहिए। क्योंकि नकारात्मकता समाज को भटकाती है और निराशा उत्पन्न करती है, जबकि सकारात्मकता समाज को उन्नत करती है और सही राह दिखाती है। इसलिए मीडिया धर्म यही है कि प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों के प्रेरणास्पद कार्यों को ही लोगों के सामने लाया जाए। जिससे कि युवा वर्ग में उत्साह और आशा का संचार होता रहे। क्योंकि ये दोनों तत्व ही वो चीजें हैं जो व्यक्ति को उन्नति और नवसृजन की सतत प्रेरणा देती रहती हैं। समाज पर नकारात्मक प्रचार का विपरीत प्रभाव पड़ा करता है, और सकारात्मक प्रचार से सदा ही नवयुवकों को आगे बढऩे की प्रेरणा मिलती है।

दूसरी बात ये है कि समस्याओं का बखान करते रहने से अच्छा है कि समस्याओं का कोई न कोई समाधान प्रस्तुत किया जाए। मीडिया या प्रेस केवल समस्याओं का बखान करने का माध्यम नही है, अपितु वह समाज की ज्वलंत समस्याओं का समाधान देने का एक जनमंच या संसद भी है। जिस बात को हमारे चुने हुए  जनप्रतिनिधि संसद या विधानमंडलों में उठाने में असफल हो गये हों या हो रहे हों, उन्हें आप समाचार पत्रों के माध्यम से उठा सकते हैं और जैसे विधानमंडल समस्याओं का कोई समाधान खोजते हैं, वैसे ही उसी शैली में आप भी अपने विचारों को समस्या के बखान से आरंभ कर समाधान के किसी समाधान पर समाप्त करें। यह भी मीडिया धर्म है।

‘उगता भारत’ अपने इसी आदर्श के सहारे बीते चार वर्ष का सफर तय कर पाया है। आज इसी आदर्श को प्रैस धर्म घोषित करने की आवश्यकता है। हमें अभी सामूहिक प्रयास करना है, और रूकना नही है, राष्ट्र हित एक सतत चेतना का नाम है, तो उसका सफाई अभियान भी सतत ही रहना चाहिए। इसलिए ना आराम होगा ना विराम होगा-होगा तो बस काम होगा।

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