दिल्ली ने भारत के उत्थान-पतन के कई पृष्ठों को खुलते और बंद होते देखा है। कई राजवंशों ने यहां लंबे समय तक शासन किया, पर समय वह भी आया कि जब उनका इतिहास सिमट गया और उनके सिमटते इतिहास केे काल में ही किसी दूसरे राजवंश ने दिल्ली की धरती पर आकर अपने वैभवपूर्ण उत्थान का मधुर गीत गाना आरंभ कर दिया।
पर अब परिस्थितियां कुछ दूसरी थीं। अब दिल्ली पर एक विदेशी आक्रांता शासक बन बैठा था। वह ऐसा शासक था जिसका धर्म विदेशी था, सोच विधर्मी थी, भावों में हिंसा थी, विचारों में घृणा थी और कार्यों में निर्दयता का पूर्ण समावेश था। जिस समय यह विदेशी-विधर्मी शासक कुतुबुद्दीन भारत में अपने पैर जमा रहा था। उस समय के दिल्ली के तत्कालीन वैभव, इतिहास और सांस्कृतिक विकास को उसी प्रकार इतिहासकारों ने उपेक्षित और दृष्टिसे ओझल किया है जैसे मध्यकालीन इतिहास के विध्वंसित मंदिरों के ध्वंसावशेषों से निर्मित किसी मस्जिद, मीनार या मकबरे आदि के अब जांच पड़ताल करने की बात को दृष्टिसे ओझल किया जाता है।
स्वतंत्रता के द्वीप बुझाकर जलाये ‘गुलामी के दीये’
यदि हम तत्कालीन दिल्ली के विषय में उपलब्ध साक्ष्यों प्रमाणों एवं ऐतिहासिक महत्व के पुरातात्विक अवशेषों की भी उपेक्षा कर दें, तो भी दिल्ली जैसे प्राचीन और ऐतिहासिक महत्व के नगर के विषय में यह नही माना जा सकता कि यहां इतनी सदियों के इतिहास काल में ऐसा कुछ भी नही किया गया होगा या कुछ भी नही बनाया गया होगा जिसका ऐतिहासिक महत्व हो और जो एक भव्य स्मारक के रूप में एक दिव्य देश के सांस्कृतिक गौरव के इतिहास को ऊंचा मस्तक करके वर्णित करने की योग्यता रखता हो। निस्संदेह ऐसे कितने ही प्रमाण रहे होंगे जिन्हें मिटाकर और स्वतंत्रता की ज्योति को बुझाकर ‘गुलामी का दीया’ जलाने का प्रयास किया गया होगा। क्योंकि यह सर्वमान्य और सार्वभौम सत्य है कि ‘गुलामी का दीया’ सदा ही स्वतंत्रता की कब्र पर ही जलाया जाया करता है।
हमारी स्वतंत्रता का भव्य स्मारक मिहिरावली की वेधशाला (कुतुबमीनार)
भारत के तत्कालीन इतिहास की समीक्षा करने पर हमें ऐसे बहुत से प्रमाण और अवशेष या ऐतिहासिक महत्व के भव्य भवन, मीनारें इत्यादि मिलते हैं, जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि कभी यहां उजालों ने आत्महत्या की है अवश्य। इन प्रमाणों में सबसे प्रमुख स्थान कुतुबमीनार का है। यह मीनार हमारी स्वतंत्रता के वैभवपूर्ण कालखण्ड का एक ऐसा प्रमाण है जिस पर किसी भी देश को गर्व और गौरव की अनुभूति हो सकती है। क्योंकि यह मीनार केवल एक मीनार ही नही है, अपितु यह भारत की स्थापत्य कला का एक ऐसा बेजोड़ नमूना भी है जिसके अवलोकन से भारत के ज्ञान-विज्ञान के गांभीर्य का भी हमें पता चलता है कि जिस समय उस समय इस मीनार का निर्माण हुआ था, उस समय हमारे पूर्वजों का नक्षत्रादि के विषय में भी कितना गहरा ज्ञान था?
वराहमिहिर की वेधशाला थी
यह मीनार दिल्ली के मिहिरावली (महरौली) क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र में भी कभी मिहिरावली के नाम से ही दिल्ली ख्यात रही है, अर्थात कभी मिहिरावली दिल्ली का ही नाम रहा है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में भारत के सुप्रसिद्घ वैज्ञानिक वराहमिहिर (गणितज्ञ) ने अपने नक्षत्रीय ज्ञान-विज्ञान के परीक्षण के लिए यहां एक वेधशाला बनायी थी। उसी वेधशाला को अरबी में कुतुबमीनार कहा गया। कुतुबुद्दीन नाम के मुस्लिम सुल्तान के विषय में पी.एन. ओक महोदय कहते हैं कि उसने इस मीनार को देखकर कहा था कि-‘यह क्या है?’ तब उसे बताया गया था कि ये कुतुबमीनार है। सुल्तान ने इस कुतुबमीनार के पास कुछ निर्माण कार्य अवश्य कराया था, जो कि वहीं बने मंदिरों को तोडक़र उन्हीं के अवशेषों से बनाने का प्रयास किया गया था।
कुतुबुद्दीन ने कुतुबमीनार के बनाने का नही किया दावा
कुतुबमीनार भारत के वैभव की कहानी का प्रतीक है। कुतुबुद्दीन के विषय में एक सर्वमान्य सत्य ये है कि उसने स्वयं ने या उसके किसी लेखक ने कहीं भी ये नही कहा कि कुतुबमीनार कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनायी थी। वैसे भी उस सुल्तान को भारत में स्वतंत्र शासन करने के लिए मात्र साढ़े-तीन चार वर्ष का ही समय मिला था। इस अवधि में भी वह भारत में होने वाले विद्रोहों की चुनौती से जूझता रहा। गौरी के समय में तो उसने भारत में अपना विजय-यात्रा अभियान जारी रखा था, परंतु जब वह भारत के कुछ भू-भाग का स्वतंत्र शासक बना तो एक भी विजय-यात्रा अभियान नही चला पाया। क्योंकि अब उसे पता चल गया था कि किसी बाहरी देश में जाकर उस देश की स्वतंत्रता प्रेमी जनता पर अपना शासन थोपना कितना चुनौती पूर्ण होता है? ऐसा परिस्थितियों में उससे किसी नये भवन या मीनार के बनाने की अपेक्षा नही की जा सकती।
सर सय्यद अहमद खान की स्वीकारोक्ति
पी.एन. ओक महोदय हमें बताते हैं कि सर सय्यद अहमद खान एक कट्टर मुस्लिम विद्वान थे, जिन्होंने यह स्वीकार किया था कि यह स्तंभ एक हिंदू भवन है।
हमारी उपेक्षापूर्ण नीतियां
यह स्तंभ सदियों से भारत को नक्षत्र विद्या का ज्ञान कराता आ रहा था, परंतु कुतुबुद्दीन जैसे लोगों ने इसका महत्व नही समझा और इसे भारी क्षति पहुंचायी। आज स्वतंत्र भारत में यह मीनार अपने गौरवपूर्ण अतीत पर खड़ी-खड़ी आंसू बहा रही है, और हमें इसके आंसू पोंछने तक का समय नही है। हमारा अपना इतिहास और उसका गौरव हमारे सामने एक स्वर्णिम पृष्ठ के रूप में खड़ा है और हम उसकी ओर पूर्णत: उदासीनता का भाव प्रकट कर रहे हैं। हमने कुतुबमीनार, महरौली, वराहमिहिर आदि के अतीत को समीक्षित और निरीक्षित करने का प्रयास नही किया।
दिल्ली का लालकोट
‘दिल्ली : प्राचीन-इतिहास’ के लेखक उपिन्दर सिंह ने प्रमाणों के आधार पर लिखा है कि (गुर्जर) तोमर राजा अनंग पाल द्वितीय, जिसको प्राय: 1052 से 1060 के बीच दिल्ली की स्थापना (पुराने अवशेषों पर नया शहर बसाने से अभिप्राय है यहां) का श्रेय दिया जाता है, इसके काफी पहले इंद्रप्रस्थ अपनी पहचान खो चुका था (कनिंघम) तब पहली बार इस शहर का अस्तित्व महरौली के निकट लालकोट के इर्दगिर्द प्रकट होता है।
अनंगपुर का राजा अनंगपाल
इस गुर्जर राजा अनंगपाल तोमर ने ही दिल्ली का लालकोट नामक किला बनवाया था। इसका निर्माण काल 11वीं शताब्दी को माना गया है। इस किले का कुल क्षेत्रफल लगभग सात लाख चौंसठ हजार वर्गमीटर माना जाता है। गढ़वाल कुमायूं क्षेत्र से मिली पाण्डुलिपियों के अनुसार मार्ग शीर्ष महीने के दसवें दिन 1117 संवत या 1060 ई. में अनंगपाल ने दिल्ली का किला बनवाया और उसका नाम उसने लालकोट दिया। अनंगपुर गांव इसी राजा अनंगपाल के नाम से है। वस्तुत: यह अनंगपुर भी कभी की दिल्ली का ही पुराना नाम है। इस क्षेत्र में स्थित लालकोट को तोमर राजाओं ने अपनी राजधानी बनाया था। ये भी माना जाता है कि ये तोमर शासक गुर्जर प्रतीहारों के सामंती शासक थे। परंतु ग्यारहवीं शताब्दी में ये स्वतंत्र शासक थे। इनकी नगरी के और इनके राजकीय वैभव के अवशेष कुतुब पुरातात्विक क्षेत्र में आज भी मिलते हैं। परंतु दु:ख की बात ये है कि इन क्षेत्रों को केवल पुरातात्विक होने का ही महत्व दिया गया है, इससे अधिक कुछ नही किया गया। जबकि होना ये चाहिए था कि इन क्षेत्रों का इतिहास खोजा जाता और इनके शासकों के लिए देश के राष्ट्रीय इतिहास में स्थान सुरक्षित किया जाता।
यह सचमुच दुर्भाग्य का विषय है कि जिस व्यक्ति ने देश के दैदीप्यमान इतिहास दिवाकरों का गौरवपूर्ण इतिहास मिटाने का घृणित कार्य किया उस कुतुबुद्दीन के साढ़े तीन चार वर्षों को भी देश के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में महिमामंडित किया जाता है, और जिन राजाओं ने देश के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में महिमामण्डित किया जाता है और जिन राजाओं ने देश के लिए और देश की महान परंपराओं की सुरक्षा के लिए अपना जीवन होम कर दिया या जिन्होंने अपने महान कृतित्व के कीर्तिमान स्थापित किये उनका कहीं कोई अता-पता नही है। अत: कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के लालकोट और उसके निर्माता का उल्लेख कहीं नही किया जाता।
महरौली लौह स्तंभ व रायपिथौरा
सदियों से आंधी, बरसात और तेज धूप को सहन करता महरौली लौह स्तंभ इस बात के लिए जगविख्यात है कि इसमें आज तक जंग नही लगा। आज का वैज्ञानिक युग भी इसे कौतूहल और आश्चर्य की दृष्टिसे देखता है।
कुतुबमीनार के पास आज भी एक किले के अवशेष हमें मिलते हैं जिसे राय पिथौरा के नाम से जाना जाता है। लालकोट की ही भांति इस किले को भी मुस्लिम आक्रमणों से देश की सुरक्षार्थ बनाया गया था। इसके निर्माण की अवधि 12वीं शताब्दी के मध्य में मानी जाती है। स्पष्टहै कि जिस समय कुतुबुद्दीन ने दासवंश की स्थापना की थी, उस समय यह किला निश्चित रूप से अस्तित्व में रहा होगा। परंतु जब कुतुबुद्दीन का शासन दिल्ली पर स्थापित हो गया तो लालकोट की भांति राय पिथौरा को भी ‘हिंदू अवशेष मिटाओ’ अभियान के अंतर्गत समाप्त करने या इतिहास से ओझल करने का प्रयास किया गया होगा।
कर दिया ‘राय पिथौरा’ का बलिदान
फलस्वरूप हिंदू गौरव के वो अवशेष जो हिंदुत्व को गौरवान्वित कर सकते थे या किसी भी प्रकार से हिंदू समाज में अपने अतीत के प्रति स्वाभिमान का भाव भर सकते थे, एक सुनियोजित अभियान के अंतर्गत मिटाये जाने लगे। आज लौहस्तंभ तो यहां खड़ा है, परंतु राय पिथौरा का बलिदान अपने बलिदान पर ही आंसू बहा रहा है। कुतुबुद्दीन के विषय में अनेकों मुस्लिम इतिहासकारों ने भी यह तथ्य स्पष्टकिया है कि उसने इस (कुतुबमीनार के निकट) क्षेत्र में स्थित 27 हिंदू मंदिरों को तोडक़र अपनी मस्जिद बनायी।
तनिक कल्पना करें कि जब आज की महरौली के पास दो किले होते होंगे, उनमें से एक के भीतर 27 भव्य मंदिरों की जगमगाहट होती होगी, वेदमंत्रों से जहां यज्ञादि होते होंगे, कुतुबमीनार का प्रयोग नक्षत्रादि का ज्ञान कराने के लिए देश की युवाशक्ति को उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान से जोड़ा जाता है होगा, तो दृश्य कितना मनोरम, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक बनता होगा।
कहां गये वो लोग? कहां गयीं उनकी भव्य राजधानियां?? और कहां गया उनका राजकीय वैभव ??? ये सभी जिस संप्रदाय के दुष्टदावानल की भेंट चढ़ गये उसे आज धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है और हम इसी धर्म निरपेक्षता के नाम पर ही अपने हृदय में इस सुप्त दावानल को आज भी इन ऐतिहासिक भव्य भवनों, स्तंभों व मंदिरों पर अत्याचार करने दे रहे हैं। जबकि इनकी पूजा हमारी स्वतंत्रता के महान स्मारकों के रूप में होनी चाहिए थी।
लौह स्तंभ के जंगरोधी होने का रहस्य
जहां तक लौहस्तंभ के जंगरोधी होने की बात है तो इसके लिए यह स्पष्टकरना उचित होगा कि प्राचीनकाल में भारत में लोहे को जंगरोधी बनाने के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया जाता था। जिनमें से एक ये थी कि केले के क्षार को दही के साथ अच्छी प्रकार गूंथ लेना चाहिए, तैयार की गयी इस सामग्री को कुछ दिनों तक संरक्षित रखा जाना चाहिए। फिर उसे लोहे पर लगा देना चाहिए। इस लेप को लगाने से लोहे को आवश्यकतानुसार कड़ापन प्रदान करना चाहिए। वराहमिहिर का कहना है कि इस प्रकार तैयार किये गये लोहे को न तो पत्थर पर तोड़ा जा सकता है और ना ही लोहे के हथौड़े से पीटकर तोड़ा जा सकता है।
(संदर्भ : ‘दिल्ली: प्राचीन इतिहास’ लेखक-उपिन्दर सिंह)
सचमुच हमें गर्व है अपने मेधा संपन्न पूर्वजों पर, जिनके कारण हमारी संस्कृति आज तक भी विश्व में अनुपम और अद्वितीय मानी जाती है।
मुख्य संपादक, उगता भारत