Categories
पुस्तक समीक्षा

“आर्यसमाज के भजनों की महत्वपूर्ण पुस्तक त्रिवेंणी भजन सरिता”

ओ३म्

==========
आर्यसमाज के भजनों की एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘त्रिवेंणी भजन सरिता’ ‘हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौन सिटी-322230 (राजस्थान)’ से प्रकाशित की गई है। डेमी आकार में 56 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 20.00 रुपये है। पुस्तक की प्राप्ति के लिये श्री प्रभाकरदेव आर्य, हितकारी प्रकाशन समिति, ब्यानिया पाड़ा, द्वारा-‘अभ्युदय’ भवन, अग्रसेन कन्या महाविद्यालय मार्ग, स्टेशन रोड, हिण्डौन सिटी (राजस्थान)-322230 से सम्पार्क किया जा सकता है। प्रकाशक महोदय के फोन नम्बर 7014248035 एवं 9414034072 हैं। पुस्तक भव्य एवं आकर्षक रूप में प्रकाशित की गई है। पुस्तक का प्रकाशकीय ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने लिखा है। हमें यह पूरा प्रकाशकीय महत्वपूर्ण प्रतीत हुआ, अतः इसका अधिकांश भाग हम प्रस्तुत कर रहे हैं।

साधना का संगीत और सगीत की साधना। यह सत्य ही है कि साधना के बिना लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। जितना बड़ा लक्ष्य उतनी ही प्रबल साधना सफलता प्राप्त कराती है। सफलता का मधु जीवन को आह्लाद से पूरित कर देता है। इसी प्रकार संगीत में भी बहुत तन्मयतापूर्वक साधना करनी पड़ती है। लगन और निष्ठा तथा तद्नुरूप प्रयत्न लक्ष्य तक पहुंचाता है। संगीत में जो जितनी साधना करता है वह उतनी ही प्राप्ति करता है। बाहशाह अकबर जैसा व्यक्ति भी झाड़ियों के मध्य संगीत के चरम तक पहुंचे महात्मा हरिदास का भजन सुनकर इहलोक की सुधबुध भूलकर अलौकिक सुख की क्षणिक प्राप्ति कर सका, क्योंकि वह संगीत सीमित समय के लिये ही था।

संगीत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। पुभु प्राप्ति के साधन से लेकर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इसका व्यापक और असरदार स्थान है। जीवन में जब हताशा या निराशा आती है तब संगीत उल्लास-उमंग भर फिर से क्रियाशील होने की शक्ति प्रदान करता है। पशु-पक्षी आदि भी संगीत से अनुप्राणित होते हैं। निष्ठापूर्वक लम्बी साधना कण्ठ में माधुर्य भर देती है। यह माधुर्य सुनने वाले को सुखद अनुभूति देता है। इन भजनों का संकलन करने वाली मेरी (श्री प्रभाकरदेव आर्य जी की) पूज्या माता का जन्म एक बहुत ही छोटे से गांव अरौदा (भरतपुर) में हुआ। गांव भी ऐसा कि आये दिन डकैतों का आतंक झेलना पड़ता था। दकियानूसी ग्रामीण परिवेश में पिता श्री शिवलाल ने ग्रामीणों के प्रबल विरोध के बाद भी अपनी बेटी को ग्राम के एक पंडित से प्राइमरी शिक्षा दिलवाई। विद्यालय के दर्शन जीवन में कभी नहीं किये। विवाह के पश्चात् पतिदेव श्री प्रह्लादकुमार आर्य ने रिश्ते में बहिन लगनेवाली गोयल बहिनजी से संस्कृत पढ़ने की व्यवस्था की।

माता श्रीमती त्रिवेंणीदेवी जी आर्या अपनी निष्ठापूर्ण लग्न के कारण आज 86 वर्ष की अवस्था में सक्रिय जीवन व्यतीत कर रही हैं। दो से तीन घण्टा स्वाध्याय करती हैं और लेखन का कार्य भी करती हैं। चारों वेदों से समाज में हवन करवाया है। विद्वान् भी आपके शुद्ध वेदपाठ को सुन प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। जीवन के प्रति सकारात्मक भावों के कारण विषम परिस्थियों में भी जीवन-यापन कर रही हैं। वर्षों आर्यसमाज में महिला सत्संग चलाया है। गायन से लेकर उपदेश तक का कार्य किया है। यह सब आपकी साधना का प्रभाव है। इसी साधना का संगीत आपको वेद व दयानन्दीय निष्ठा का प्रसाद दिये हुये है। माता जी ने सैकड़ों भजनों का संकलन किया हुआ है। इनमें से कुछ भजनों का संकलन इस लघु पुसतक में समाहित है। आशा है कि संगीत प्रेमी अध्येताओं को इससे सहायता मिलेगी।

प्रकाशकीय के बाद पुस्तक में अनेक शीर्षकों से भजन दिये गये हैं। भजन के कुछ शीर्षक हैं 1-वेदों में मूर्ति पूजा नहीं, 2- विदुषी-वीरांगना महिलायें, 3- कहां छिपा भगवान्, 4- मां की ममता, 5- नामकरण संस्कार, 6- पुत्री के जन्मदिन पर, 7- पुत्र के जन्म दिन पर, 8- सर्वज्ञ परमात्मा, 9- शान्ति गीत, 10- करुणा पुरुष दयानन्द, 11- मनुष्य को चेतावनी, 12- सत्य डगर, 13- सुमार्ग पर चलें। इसी प्रकार 57 अन्य शीर्षकों से अनेक भजन दिये गये हैं।

पुस्तक से एक भजन ‘सर्वज्ञ परमात्मा’ की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत कर रहे हैं जोकि निम्न हैं:-

कण-कण में बसा प्रभु देख रहा,
चाहे पुण्य करो चाहे पाप करो।
कोई उसकी नजर से बच न सका,
चाहे पुण्य करो चाहे पाप करो।।1।।
कण-कण में ……….

यह जगत् रचा है ईश्वर ने,
जीवों के कर्म करने के लिये।
कुछ कर्म नये करने के लिये,
जो पहले किये भरने के लिये।
यह आवागमन का चक्र चला,
चाहे पुण्य करो चाहे पाप करो।।2।।
कण-कण में ……….

इन्सान शुभाशुभ कर्म करे,
अधिकार मिला है जमाने में।
कर्मों में स्वतन्त्र बना है मगर,
परतन्त्र सदा फल पाने में।
है न्याय प्रभु का बहुत बड़ा,
चाहे पुण्य करो चाहे पाप करो।।3।।
कण-कण में ……….

पुस्तक से ही ‘करुणा पुरुष दयानन्द’ शीर्षक से एक अन्य भजन भी प्रस्तुत है।

महर्षि दयानन्द दया का था सागर,
जगत् के व्यथा की दवा बन के आया।।
तिमिर छा रहा अविद्या का भू पर,
गगन में दिवाकर बन के आया।।

किसी का खुदा आसमा में पड़ा था,
किसी का प्रभु क्षीर सागर में सोया।।
धरा पर बहुत ईश्वर लड़ रहे थे,
सभी में है व्यापक ऋषि ने बताया।।
महर्षि दयानन्द ……….

ये मानव भटकता चला जा रहा था,
नहीं जानता था किधर जा रहा था।।
दयालु दयानन्द भटकते जगत् का,
सहारा हुआ देवता बन के आया।।
महर्षि दयानन्द ………

कुछ भजन व गीत ऐसे होते हैं जो मनुष्य को सुनने व गुनगुनाने में बहुत ही प्रिय लगते हैं। हम यह भी अनुमान करते हैं कि भजनों के माध्यम से भी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना होती है। कोई भी साधक भजन गुनागुना कर अपने मन व हृदय को पवित्र कर सकता है। हम भी यदा कदा ऐसा कर लेते हैं। भजन सुनकर भी सुख व आनन्द की हल्की अनुभूति मनुष्य करता है। इससे मन को एकाग्र करने सहित ईश्वर का ध्यान व चिन्तन करने में लाभ मिलता है। अतः उपर्युक्त भजन की पुस्तक अन्य पुस्तकों की तरह स्वाध्याय के लिए लाभप्रद होने के साथ भजन पढ़ने व गुनगुनाने में सहायक व लाभदायक हो सकती है। हम आशा करते हैं हमारे कुछ पाठक इस पुस्तक से अवश्य लाभ उठायेंगे। यह पुस्तक प्रकाशक महोदय ने पाठकों के हित व लाभ के लिए ही प्रकाशित की है जिसका सदुपयोग किया जाना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version