वैदिक सम्पत्ति : अध्याय – चितपावन और आर्यशास्त्र

गतांक से आगे…

अतः हम उनमें से कुछ श्लोक यहां लिखते हैं-

कौकणाश्रवित्तपूर्णास्ते चित्तपावनसंज्ञका:।ब्राह्मणेषु च सर्वेषु यतस्ते उत्तमा मता:।।
एतेषां वंशजा:सर्वे विज्ञेया ब्राह्मणाःखलु।माध्यंदिनाश्रच देशस्था गौडद्रविडगुर्जरा:।।
कर्णाटा तैलंगाद्यापि चित्तपूर्णस्य वंशजा।अतश्रिवत्तस्य पूर्ण यो निद्यात्तस्य क्षयो भवेत्।।
अर्थात सब ब्राह्मणों में चितपावन ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं।गौड़, देशस्थ, द्राविड़,गुर्जर, कर्णाटक और तेलंग आदि जितने ब्राह्मण हैं, सब चितपावनों के ही वंशज हैं। इसलिए जो इन चितपावन ब्राह्मणों की निन्दा करें,उसका क्षय हो जावे। इस प्रकार की इन्होने रचना करके अपनी जाति को निकृष्टता को दूर करने का प्रयत्न किया गया था, परन्तु यह बात आगे न चली और लोगों को इनका प्रपंच मालूम हो गया। इसके अतिरिक्त इन्होंने जिस समय क्षत्रियों के राज्य का अपहरण किया,उस समय सतीप्रथा के सम्बन्ध में उन्होंने जो कुछ नवीन रचना की,वह बड़ी ही विचित्र है। यहां हम उसका भी थोड़ा सा वर्णन करते हैं। सोशल रिफॉर्म सीरीज 2 में और अहिंसा- धर्म- प्रकाश में पंडित गावस्कर लिखते हैं कि, दक्षिण के शाहूराजा ने बालाजी विश्वनाथ नामी एक चितपावन ब्राह्मण को अपना सेनापति बनाया। बालाजी विश्वनाथ ने मौका पाकर शाहुराजा को उपचार प्रयोग द्वारा मरवा डाला और स्वयं राजा बनने की चेष्टा करने लगा। उधर शाहुराजा की रानी शंभराबाई राज्य का वारिस बनाने के लिए दत्तक पुत्र लेने का विचार करने लगीं। इस पर बालाजी विश्वनाथ ने शंभराबाई को समझाना शुरू किया।उसने कहा कि हाय! जिस पति पर आपकी इतनी भक्ति थी, जो तुम्हें प्राणों से भी अधिक प्यारा था, अभी उसे मरे हुए कुछ भी समय नहीं बीता कि, आप राज्य शासन का आनन्द लेने लगी। धन्य थी वह पतिव्रता स्त्रीयां जो अपने प्राणपति के साथ धधकती हुई चिता में जलकर सदैव के लिए पति के समीप चली जाती थी। शंभराबाई के दिल पर इन बातों ने बड़ा असर किया। किन्तु स्त्री को पति के साथ जलना भी कोई विशेष धर्म है, यह बात उसने अपने जीवन में नई सुनी।वह जल्दी से बोल उठी कि क्या, पति के साथ जल मरने पर पतिदेव मिल सकते हैं ? बालाजी ने उस समय की समस्त हस्तलिखित पुस्तकों में क्षेपक मिलवा मिलवाकर कथा बांचने वाले भाटों के द्वारा दिखला दिया कि, दशरथ, पाण्डू,रावण, इन्द्रजीत आदि बड़े-बड़े पुरुषों की स्त्रियों ने अपने पति के साथ जलकर प्राण दिये हैं। बालाजी ने यह भी कहलवाया कि, यदि पति जल में डूब कर मर गया हो, दूसरे ग्राम में मर गया हो, उसकी लाश का पता न हो अथवा उस समय स्त्री सगर्भा हो, तो समय आने पर सुभीते के साथ अपने पति की खड़ाऊँ या वस्त्र आदि लेकर जल मरने से भी वह अपने पति को प्राप्त होती है और दोनों स्वर्ग को जाते हैं। इस उपदेश से शंभराबाई जलने के लिए तैयार हुई। बालाजी ने तुरन्त ही अपने कृष्णवेद के तैत्तिरीय आरण्यक 6/20 में आये हुए ऋग्वेद के ‘इमा नारीरविधवा: सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषाः। संविशन्तु अनश्रवोऽनमीवाःसुरत्ना रोहन्तु जनया योनिमग्रे’ इस मंत्र के ‘अग्रे’ शब्द को ‘अग्ने’ करके पति के साथ अग्नि में जल मरने की वैदिक विधि और विनियोग भी दिखला दिया। वेद पर विश्वास करने वाली आर्यजाति की पतिव्रता राज महिषी अपने पति के साथ पास जाने को उत्तेजित हो उठे और बालाजी के षडयन्त्र से तुरन्त ही चिता में धरकर फूक दी गई। रानी के चलते ही समस्त राज्यसूत्र चितपावनों के हाथ में आ गया, तथा शाहूराजा की मृत्यु और शंभराबाई के सतीचरित्र की यह करुणापूर्ण कहानी समस्त महाराष्ट्र देश में अच्छी तरह से फैल गई। वहां के ग्रामीण अब तक इस कलंक कथा को गाया करते हैं।
क्रमशः

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