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ज्योतिष द्वारा स्थिर किया हुआ वेदों का समय

अब तक दो आक्षेपों का उत्तर देते हुए दिखलाया गया है कि मिश्र की सभ्यता वेदों से पुरानी नही है और न वेदों में कोई ऐतिहासिक वर्णन ही है। उक्त दोनों आक्षेपों का जिनसे वेदों की आयु कायम की जाती है, संशोधन हो गया। अब तीसरे आक्षेप का, जिसके द्वारा वेदों का समय निकाले की कोशिश की गयी है, संशोधन करना है। इस तीसरे आरोप में ज्योतिष के द्वारा वेदों का समय निकाला गया है। इस विषय में कई कई योरप निवासियों ने भी प्रयत्न किया है। पर लो. तिलक महाराज ने जैसा परिश्रम किया है वैसा किसी ने नही किया। आपने वेदों में आए हुए कुछ प्रकरणों से सिद्घ करना चाहा है कि वेद उस समय बने जब वसंत सम्पात मृगशिरा में था। यहां हम संक्षेप से उनकी विवेक माला लिखकर उसमें आये हुए वैदिक प्रमाणों पर विचार करेंगे। तिलक महोदय के कहने का सारांश इस प्रकार है-

चार प्रकार के वर्ष

वर्ष चार प्रकार के हैं, चांद्र वर्ष, सौर वर्ष, नाक्षत्र वर्ष और सायन या सम्पात वर्ष। बारह अमावस्याओं या पूर्णिमाओं का चान्द्र वर्ष होता है। सूर्य उदय से दूसरे दिन सूर्य उदय तक को एक सौर दिन कहते हैं और ऐसे 360 दिनों का सौर वर्ष होता है। किसी एक नक्षत्र से सूर्य चलकर जब फिर उसी नक्षत्र पर आता है, तो इस काल को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं और वसंत ऋतु से वसंत ऋतु तक के वर्ष को सम्पात वष्ज्र्ञ या सायन वर्ष कहते हैं। यह सायन वर्ष नाक्षत्र वर्ष से 20.4 मिनट छोटा है। अतएव सायन वर्ष प्रत्येक दो सहस्र वर्ष में एक मास पीछे खिसक जाता है। पृथ्वी के एक स्थान से चलकर उसी स्थान में आने का जो समय है वही सच्चा वर्ष है। उसी का नाम  सायन वर्ष है। सायन वर्ष को आरंभ करने वाले, साल में चार मुकाम हैं-रात का बिल्कुल बढ़ जाना, दिन का बिल्कुल बढ़ जाना और दो बार रात दिन का बराबर होना। इन चारों में से किस स्थान से वर्ष आरंभ करना चाहिए? इस प्रश्न को पूर्वजों ने इस प्रकार हल किया था कि जहां से प्रकृति देवी प्रफुल्लित हो उठे और जहां वृक्षावली में नूतनता आरंभ हो, वहीं से वर्षारंभ भी किया जाए। यह सब घटना वसंत से आरंभ होती है। इसीलिए कहा गया है कि ‘मुखं वा एतत् ऋतूनां यद्घसंत’ अर्थात वसंत ही सब ऋतुओं का मुख है। जब सूर्य वसंत सम्पात में आवे तभी से वर्ष आरंभ हो। इसके आगे सारी पुस्तक में उन्होंने तीन प्रकार से वसंत सम्पात दिखलाने की चेष्टा की है। अंत में आप कहते हैं-

यहां तक हमने तीन प्रकार के पंचांगों का विचार किया। इनमें सबसे प्रथम पंचांग के समय को हम अदिति काल अथवा मृगशीर्ष पूर्वकाल कहेंगे। इसकी मर्यादा अनुमान से ई. सं. पूर्व 6000 वर्ष से 4000 वर्ष तक जाती है। इस समय तक वैदिक ऋचाओं की उत्पत्ति नही हुई थी। दूसरा मृगशीर्षकाल है। इसकी मर्यादा स्थूल परिमाण से ई. सं. पूर्व 4000 वर्ष से 2500 वर्ष पर्यन्त है। यह काल वसंत सम्पात के आद्र्रा नक्षत्र से कृतिका नक्षत्र में आने तक का है और बड़े महत्व का है क्योंकि इसी काल में ऋग्वेद के बहुत से सूक्त निर्माण हुए थे और कितनी ही कथाएं भी रची जा चुकी थीं। इसी से ऋग्वेद में कृतिका काल के विषय का कुछ भी प्रमाण नही मिलता। वह काल विशेषत: सूक्त रचनाकाल था। तृतीय कृतिका काल है। इसकी मर्यादा ई.सं. पूर्व 2500 से 1400 वर्ष तक है। अर्थात जबसे वसंत सम्पात कृतिका में आया, तब से लेकर वेदांग ज्योतिष पर्यन्त इसकी मर्यादा है। तैत्तिरीय संहिता और कितने ही ब्राह्मणों की  रचना का यही काल है। इस समय ऋग्वेदसंहिता पुरानी हो चुकी थी, अत: उसका अर्थ समझने में भी सुविधा नही थी।

यह तिलक महोदयकृत ओरायन अर्थात मृगशीर्ष नामी ग्रंथ का सारांश है। इस विवेचन से आप यह कहना चाहते हैं कि नाक्षत्र वर्ष से सायन वर्ष 20.4 मिनट छोटा है।

क्रमश:

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