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कविता

… हो जाते सब मौन

कविता –   15

… हो जाते सब मौन

 

मरण जीवन का अंत है क्यों करता है शोक।
संयोग सदा रहता नहीं, वियोग बनावै योग ।। 1।।

जो फल पकता डार पर पतन से है भयभीत ।
मानव डरता मौत से भूल प्रभु की प्रीत ।। 2 ।।

मजबूत खम्भे गाड़कर भवन किया तैयार।
धराधूसरित हो गया जब पड़ी समय की मार।। 3 ।।

नदिया लेकर नीर को चली समन्दर ओर ।
रजनी बीती जा रही अब होने वाली भोर।। 4 ।।

जो बीता लौटा नहीं यही जगत की रीत ।
कहां गया बचपन सखे यौवन के वे गीत।। 5 ।।

दिन-रात निरंतर हो रही आयु मेरी क्षीण।
सूरज जल को सोखता तड़प रही है मीन।। 6 ।।

साथ ही चलती बैठती सफर में देती साथ ।
जिससे जग भयभीत है मौत है उसका नाम ।। 7 ।।

सिर पे सफेदी आ गई झुर्री पड़ गईं गात ।
बुढापा धरना दे रहा उठ चल मेरे साथ ।। 8 ।।

बुढापा लाता मौत को हो जाते सब मौन ।
जिसने जीता मौत को है बतलाओ कौन ?।।9।।

देश धर्म की सोच ले धन नहीं जाता साथ।
सखा सनातन धर्म है सदा निभाये साथ ।।10।।

कितना ही धन जोड़ ले होता एक दिन नाश।
जिसको ‘बढ़ना’ कह रहे करता वही विनाश।। 11।।

सच्चा धन तो धर्म है परलोक में देगा साथ।
यह धन धरती पर रहे,  खाली  जाते  हाथ ।। 12।।

आंधी आई वेग से,   ले  गई  पेड़  उखाड़।
अच्छे दरखत उड़ गए झंडे क्यों रहा गाड़ ।।13।।

‘राकेश’ विरक्ति बढ़ रही, विवेक रहा है जाग।
समय निकल रहा हाथ से पड़ रही भागम भाग।। 14।।

(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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