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कविता

रूप अनेकों धरती प्रकृति …..

कविता  — 9

प्रकृति बन रूपसी आई
लेकर अपना सुंदर संदेश।
सूर्य की लाली ने उसका
ग्रहण किया सारा उपदेश।।
प्रकृति की सुंदर साड़ी पर
जब फैली सूरज की लाली।
कल-कल करती नदिया बोली
मुझको दे दो मस्ती मतवाली।।
पुष्पों के ऊपर उड़ते भृमर
लगे सुनाने अपना राग।
कोयल कू – कू करके कहती
अब मत सो, तू भी जाग।।
दूर क्षितिज से लगा फैलने
सूरज का पावन प्रकाश।
छुप गए सारे तारे नभ के
छा गया चारों ओर विलास।।
आंखें खोल प्रकृति ने देखा
चारों ओर अपना ही रूप।
गर्वित भाषा में यूं बोली –
है कौन बताओ मेरे समरूप?
भेज बुलावा बादल को
जब मौसम ने ली अंगड़ाई।
मौन साध गई प्रकृति
घनघोर घटाएं घिर आईं ।।
हवा चली और बादल बरसा
नदिया उफनी सागर हरसा ।
मेंढक बोले और पक्षी बोले
नया स्वरूप प्रकृति का दर्शा।।
ठंडी ठंडी जब रातें आईं
सब ओर कोहरे का प्रकोप।
पेड़ों तक पर पड़ गया पाला
सब का यौवन हुआ विलोप ।।
रुप अनेकों धरती प्रकृति
ऋषियों ने कहा इसको माया।
‘ राकेश’ इसका भेद कोई  जन
समझ नहीं अब तक है पाया।।

(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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