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विशेष संपादकीय

इमाम-शरीफ और मोदी

imam sareef and modiदिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी ने अपने छोटे बेटे को आगामी 22 नवंबर को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के लिए होने वाले कार्यक्रम में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आमंत्रित ना करने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित किया है। शाही इमाम का यह निर्माण निश्चित ही साम्प्रदायिक है, क्योंकि इससे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलेगा। अभी कल परसों जो पाक हमारी सीमाओं पर ‘नापाक’ हरकतें करते हुए युद्घ विराम का उल्लंघन कर रहा था और उसकी ओर से युद्घ विराम के उल्लंघन की घटनाओं को लेकर दोनों देशों के बीच की गरमाहट और गुर्राहट अभी तक शांत नही हुई है, उसके पी.एम. को भारत के शाही इमाम द्वारा इस प्रकार आमंत्रित किया जाना कतई गलत है। यह बात तब तो और भी गलत है जब पाकिस्तान का पूर्व सैनिक तानाशाह और बाद में राष्ट्रपति बना मुशर्रफ अभी कुछ समय पहले ही ये कह रहा था कि युद्घ की स्थिति में भारत में रहने वाले हमारे मुस्लिम भाई भी हमारा साथ देंगे।

मुशर्रफ की इस बात को राष्ट्र संघ में जाकर पी.एम. मोदी ने यूं कहकर समाप्त कर दिया था कि भारत के किसी भी मुसलमान की निष्ठा पर शक नही किया जा सकता। तब अपनी सदाशयता और सहृदयता का प्रदर्शन कर चुके मोदी की ओर शाही इमाम को भी हाथ बढ़ाकर यह अहसास कराना चाहिए था कि भारत के मुसलमान भारत की ‘मादरेवतन’ को सलाम करते हैं और लोकतांत्रिक रूप से चुनकर आयी सरकार को सहयोग करना अपना फर्ज मानते हैं। इसलिए भारत का मित्र उनका मित्र है और भारत का शत्रु उनका शत्रु है। तब ऐसी परिस्थितियिों में यदि पाकिस्तान भारत के साथ नापाक हरकतें कर रहा है तो भारत का एक-एक नागरिक सारी मजहबी सीमाओं और संकीर्णताओं को त्याग कर अपनी सरकार के साथ खड़ा है।

अमेरिका ने 11 सितंबर के हमलों के बाद ओसामा बिन लादेन और अलकायदा के ऐसे 55 अड्डों का रहस्योद्घाटन किया था जहां से विश्व में आतंकवाद फैलाने और उसे नष्ट करने के षडयंत्र बनाये जाते हैं। ये सारे अड्डे पाकिस्तान में और अफगानिस्तान में हैं। यह भी एक सच है कि इन सभी संगठनों के लिए भारत भी एक शत्रु देश है। अब यह भी किसी से छिपा नही रह गया है कि भारत को दुर्बल बनाने और अस्थिर करने की सारी योजनाओं में पाक सरकार की भी भूमिका होती है। इसलिए पाकिस्तान के वजीरे आजम को फिलहाल बुलाया जाना दुश्मन को दावत देने के समान है।

भारत ने अपनी ओर से पाकिस्तान के आतंकवादी अड्डों और प्रशिक्षण शिविरों की सूची अमेरिका को क्लिंटन प्रशासन के दौर से देनी आरंभ की थीं। 300-300 पृष्ठों की दस्तावेजी रपटों को अमरीका यूं ही रद्दी की टोकरी में फेंकता रहा। उसने उत्तरी कोरिया, सूडान, लीबिया आदि को तो आतंकवादी देश घोषित किया पर पाकिस्तान को नही किया। इसके पीछे कारण यही था कि भारत को पाकिस्तान का भय दिखा दिखाकर उसे अपना बनाकर रखा जाए। अमेरिका इस नीति पर चलता रहा। जिसका लाभ पाकिस्तान उठाता रहा और वह हमारे लिए नित्य नई-नई समस्याएं उत्पन्न करता रहा। उसके कारण कश्मीर में पिछले बीस वर्षों में लगभग तीस हजार लोग मारे जा चुके हैं, और लाखों लोगों ने वहंा से पलायन कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना स्वीकार कर लिया है।  क्या इन सब चीजों में मानवता का खून बहता शाही इमाम को दिखाई नही दिया? या फिर हर बात को मजहबी चश्मे से ही देखना उनकी फितरत है।

वैसे जब अब शाह-बादशाह ही नही रहे तो शाही इमाम भी क्यों है? लोकतंत्र में बादशाहों का क्या काम? जब खिलाफत खत्म हो गयी तो भारत में शाही इमाम को खिलाफत की ताकतें क्यों दी जा रही हैं? पाकिस्तान की काली करतूतों के कारण भारत में आज भी 140 आतंकी संगठन सक्रिय हैं। इनमें से 50 गुट अकेले कश्मीर में सक्रिय हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों में 30 से ज्यादा आतंकवादी गुट हैं। यह भी किसी से छिपा नही है कि मुंबई बम काण्ड, कंधार विमान अपहरण काण्ड, कारगिल युद्घ के पीछे किसका शैतानी दिमाग काम करता रहा है?

एक तर्क दिया जा सकता है कि यदि भारत के पी.एम. नरेन्द्र मोदी अपने शपथ ग्रहण समारोह में  पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को बुला सकते हैं, तो शाही इमाम क्यों नही बुला सकते? यह तर्क तर्क नही कुतर्क है। क्योंकि मोदी के शपथ ग्रहण समारोह और शाही इमाम के प्रोग्राम दो अलग-अलग बातें हैं। मोदी के कार्यक्रम में शरीफ को बुलाया जाना राजनीति का राजनीति को दिया गया सदाशयता पूर्ण आमंत्रण था, जिसमें मोदी ने अपने को बड़े ‘दिल का मालिक’ दिखाया और पड़ोसी देश के पीएम को सम्मान देते हुए अपने कार्यक्रम में सादर आमंत्रित किया। पर यही नवाज शरीफ थे जिन्होंने अटल की उदारता और सदाशयता के बदले में ‘कारगिल’ दिया था और अब उसने मोदी की सदाशयता को भारत पाक सीमा पर युद्घ विराम का उल्लंघन कराते हुए भारी दी है, जिससे दोनों देशों के संबंधों में कड़ुवाहट फिर अपने चरम सीमा पर पहुंच गयी। राजनीति और धर्म (संप्रदाय कहें तो अधिक उचित है) का लोकतंत्र में कोई मेल नही है। तब एकधार्मिक कार्यक्रम में पड़ोसी देश के राजनीतिज्ञ की उपस्थिति का क्या अर्थ है? हां, शाही इमाम पड़ोसी देश के किसी  अपने समकक्ष को अवश्य बुला सकते थे।

आज भारत एक सम्प्रभु राष्ट्र है, और इसके विषय में यह बात अब किसी से छिपी नही है कि आज इस राष्ट्र को चुनौती देना हर किसी राष्ट्र के वश की बात नही है। पाकिस्तान को इस बार हमारे सैनिकों ने जिस प्रकार करारा जवाब दिया है, उसकी सिसकियां पाक अभी तक भर रहा है। उसकी ओर से छुटपुट वारदातें यद्यपि सीमा पर अभी भी जारी हैं, पर अब उनमें कोई दम नही है। इस प्रकार की परिस्थितियों में नवाज का भारत आना भी ठीक नही होगा। इससे मुशर्रफ का कथन ठीक होने जा रहा है और नवाज शरीफ इशारों में ही मोदी को समझाएंगे कि हिंदुस्तान में मेरे चाहने वाले भी हैं। बिना बोली जाने वाली उस भाषा के अर्थ बड़े गहरे होंगे। अपनी विश्वसनीयता को स्वयं संदिग्ध बनाना और सारे देश की भावनाओं की उपेक्षा करना उचित नही होता है।

इमाम ने शरीफ को बुलाकर यदि मोदी के प्रति अनास्था व्यक्त की है तो यह राष्ट्र के प्रति अनास्था है, यदि उसने मोदी को नीचा दिखाना चाहा है तो यह राष्ट्र के साथ छल है, यदि उसने अपने कार्यक्रम को केवल धार्मिक मामला माना है तो उसके पड़ोसी देश का राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री क्यों आ रहा है, और  यदि मजहब ने इमाम को निमंत्रण न देने के लिए विवश किया है तो फिर यह बात झूठी सिद्घ होती है कि मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना। हम सब एक हैं हमारा राष्ट्र एक है इसलिए हमारा चिंतन भी एक हो, लक्ष्य भी एक हो, और मंतव्य भी एक हो, तभी हम अपने राष्ट्र निर्माण के सांझा अभीष्ट को प्राप्त कर सकेंगे, अन्यथा हमारा अनिष्ट हमारा इष्ट बनकर स्विष्ट का सत्यानाश कर देगा। लगता नही कि इमाम आज की परिस्थितियों के इस रहस्य को समझेंगे। पाकिस्तान का ‘परमाणु बम’ भारत के मुसलमानों को भी उतनी ही चोट करेगा जितनी हिंदुओं को। यदि यकीन ना हो तो अपने प्रोग्राम में शरीफ से इस बात की तस्दीक कर लें।

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