आध्यात्मिकता की अनुभूति

लेखक- महात्मा नारायण स्वामी
प्रस्तोता- दीपक हाडा, प्रियांशु सेठ
संसार के अधिकतर मनुष्य आध्यात्मिकता को अच्छा समझते हैं, परन्तु बहुत थोड़े मनुष्य ऐसे मिलेंगे जो शब्द को अच्छा मानने के साथ इनका प्रायोजन भी समझते हैं। मानव का बाह्य भाग शरीर है तथा भीतरी भाग आत्मा, अत: आध्यात्मिकता शब्द ही (जो आत्मा से सम्बन्धित है) यह स्पष्ट करता है कि आध्यात्मिकता का प्रयोजन मनुष्य के बाह्य रुप से सम्बन्धित नहीं हो सकता, प्रत्युत इसका सम्बन्ध भीतरी भाग से है। रूह (आत्मा) को हम गुणी तथा रुहानियत (आध्यात्मिकता) को गुण कह सकते हैं।
आध्यात्मिकता का प्रायोजन self study (आत्म-स्वाध्याय) है। मनुष्य जब बाहर न देखकर अपने भीतर देखता है और अपनी ही स्थिति पर विचार करता है, तभी उसको यह योग्यता प्राप्त होती है कि वह अपनी की हुई बुराई-भलाई पर निःस्वार्थ भाव से निष्पक्षता से दृष्टि डाल सके। मानो वह किसी अन्य के खरे-खोटे कर्मों का अवलोकन कर रहा है। इस योग्यता का नाम आध्यात्मिकता है। बहुत-से मनुष्य ऐसे होते हैं जो पाप करके उसको छुपाया करते हैं और डरते रहते हैं कि उनकी पोल न खुल जाय। कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो सोच-विचारकर, सद्भावनापूर्वक भूल (पाप) करते हैं, परन्तु वे इसे पाप नहीं मानते। ये दोनों प्रकार के व्यक्ति वास्तव में आध्यात्मिकता से रहित होते हैं।
आध्यात्मिकता का प्रथम प्रयोजन या काम यही है कि मनुष्य को उसकी भूलों से परिचित कर देवे। जब मनुष्य भूल को समझता है तभी उसको तजता है। इस रीति से जब एक दोष उससे छूट जाता है तब वह देवपुरुष व धर्मात्मा बन जाता है। पाप छोड़ने के परिणाम का एक दूसरा पहलू है और उसका नाम आत्म-बल है। आत्मा कैसे बलवान् होता है और कैसे निर्बल होता है- इस प्रश्न का उत्तर यही है कि जितने कर्म आत्मा के प्रतिकूल किए जाते हैं उनसे आत्मा में दुर्बलता आ जाती है, तथा जितने काम आत्मा के अनुकूल किये जाते हैं उनसे आत्मा बलवान् हुआ करता है। ऊपर लिखी सब बातों को मिलाकर विचारने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आत्मा के बलवान् बनाने का साधन आध्यात्मिकता ही है। जिस प्रकार शरीर का बाहर-भीतर होता है, उसी प्रकार से आत्मा का भीतर-बाहर होता है। जब आत्मा निर्बल होता है तब वह अपने बाहर कार्य करनेवाला होता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि बाहर कार्य करनेवाला प्रत्येक आत्मा निर्बल ही हो। परन्तु यह आवश्यक है कि निर्बल आत्मा अपने बाहर ही कार्य करनेवाला होता है; अपने भीतर कार्य नहीं कर सकता। अपने भीतर वही आत्मा कार्य करता है या कर सकता है जिसमें आध्यात्मिकता से बल आ चुका है। इसलिए आध्यात्मिकता का दूसरा कार्य यह है कि उससे आत्मा में अपने भीतर कार्य करने की शक्ति आती है।
इस योग्यता का नाम योगदर्शन के बतलाए आठ अंगों में से सातवां अंग ‘ध्यान’ है। आत्मा के बाहर शरीर (प्रकृति) है व भीतर परमात्मा। जब आत्मा बाहर कार्य करता है तो उसका सम्बन्ध प्राकृतिक जगत् से रहता है, परन्तु जब अपने भीतर कार्य करता है तब उसकी प्रवृत्ति परमात्मा की ओर होती है। परमात्मा की ओर आत्मा की प्रवृत्ति होने का नाम ही ध्यान है। जब हम कहते हैं ‘आत्मा की प्रवृत्ति’ तो अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि ‘शरीर की प्रवृत्ति’ अभिप्राय नहीं है। आत्मा की प्रवृत्ति जब अपने भीतर होती है तब उसके बाहर के सब इन्द्रिय-सम्बन्धी कार्य बन्द हो जाते हैं। उसीको मन का ‘निर्विषय’ होना कहते हैं। जब आत्मा की प्रवृत्ति भीतर की ओर होती है तब वह ईश्वर के प्रेम में लीन हो जाता है।
इस अवस्था की जो सर्वोच्च स्थिति होती है जिसमें आत्मा स्वयं से बेसुध हो जाता है, उसे यदि खबर रहती है तो केवल अपने इष्ट ईश्वर की, और फिर वही सर्वत्र उसे दिखलाई देने लगता है। इस अवस्था का नाम योग का आठवां अंग ‘समाधि’ है।
यही आत्म-दर्शन मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य है और यही संसार-यात्रा का अन्तिम पड़ाव अथवा ध्येयधाम है। यहीं पहुंचने का प्रयास सब मनुष्यों को करना चाहिए। इसका आरम्भ तो आध्यात्मिकता से ही हो सकता है। इसलिए यत्न करना चाहिए कि मानव केवल आध्यात्मिकता के प्यारे शब्द से ही परिचित न हो, प्रत्युत उसके प्रयोजन को भी समझे तथा उससे काम भी ले।
[साभार- वैदिक ज्ञान-धारा]

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