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उगता भारत न्यूज़

1000 साल बाद वही काशी, 352 साल बाद वह ज्ञानवापी कूप जिसमें शिवलिंग लेकर कूद गए थे पुजारी; 27 मंदिरों की मणिमाला भी

माँ गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित, वाराणसी दुनिया का सबसे पुराना जीवंत शहर और भारत की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक राजधानी है। वहीं महादेव की नगरी काशी की पूरी भव्यता काशी विश्वनाथ मंदिर में है, जिसमें शिव, विश्वेश्वर या विश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग है। जो अब काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के रूप में विशाल आकार लेकर 1000 साल पुराने अपने उसी अखंड स्वरुप में है जो 11वीं सदी तक हुआ करती थी। यूँ तो काशी नित्य निरंतर रंग-उमंग से भरी रहती है, वही काशी जहाँ सप्त वार में नौ त्योहार मनाने की परंपरा रही है; आज वो काशी एक नव त्योहार के रंग में रंगी है और हो भी क्यों नहीं काशी पुराधिपती बाबा विश्वनाथ के भव्य दरबार के लोकार्पण की जो तैयारी है।

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग का भारत के आध्यात्मिक इतिहास में बहुत ही अनूठा महत्व है। परंपरा यह है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में बिखरे हुए अन्य ज्योतिर्लिंगों के दर्शन से अर्जित गुण काशी विश्वनाथ मंदिर में एकल यात्रा द्वारा शिव भक्तों को प्राप्त होते हैं। ऐसे में अद्भुत, अद्वितीय, अलौकिक और भव्य श्री काशी विश्वनाथ धाम आज 13 दिसंबर, 2021 को अगहन मास की दशमी तिथि को रवियोग में पीएम नरेंद्र मोदी जनता को समर्पित करेंगे। पीएम मोदी आज जब काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन करेंगे तो उस समय 12 ज्योतिर्लिंगों और 51 सिद्धपीठों के पुजारी भी उपस्थित रहेंगे। इसके साथ ही ‘न भूतो न भविष्यति’ की तर्ज पर काशी विश्वनाथ धाम के लोकार्पण समारोह को भव्य रूप देने के लिए सनातन धर्म के सभी संप्रदायों की आज प्रांगण में उपस्थिति होगी।

आज गौरव का दिन है। जिसका स्वागत होना चाहिए। वर्षो से यहाँ आते साधु-संतों, सन्यासियों, साधकों के साथ ही काशी और काशीवासियों के हृदय की आवाज को और उनके मन में दबे उस प्रतिकार को बिना विध्वंश के अपनी सृजनात्मक क्षमता द्वारा बदल देने का जो कार्य काशी के सांसद और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है। उसे मैं महीनों से यहाँ आने-जाने वाले सभी शिव भक्तों की आँखों में पढ़ रहा हूँ। सभी दिव्य और भव्य काशी के इस बदलते स्वरुप को देखकर गदगद हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रधानमंत्री ने अंजुमन इंतजामिया जामा मस्जिद (ज्ञानवापी मस्जिद) के रूप में बाबा विश्वनाथ परिसर में खींची गई छोटी लकीर को एक कॉरिडोर के रूप में एक बड़ी लकीर खींच कर बेहद छोटा कर दिया है। ज्ञानवापी अर्थात ज्ञान का कुआँ की जो प्राचीन अवधारणा है उस आधारभूत संरचना को धरातल पर लाने का जो संकल्प प्रधानमंत्री ने लिया था वो अब आम जनमानस के सामने दृष्टिगोचर हो रहा है।

                                                        काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर

आनंद कानन की जो परिकल्पना रही है वो अब एक बार फिर काशी में आकर ले चुकी है जहाँ एक ओर माँ गंगा की अविरल धारा है तो दूसरी ओर स्वर्ग से उतरी पतित-पावनी गंगा को अपनी जटा में स्थान देने वाले काशी पुराधिपती बाबा विश्वनाथ अब एक सीध में बिना किसी अड़चन के एकाकार हो चुके है। अट्ठारवीं सदी में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर के द्वारा जिस यज्ञ का अनुष्ठान किया गया था, अलौकिक काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के रूप में प्रधामंत्री मोदी ने 352 साल बाद उसे सिद्धि प्रदान की है।

बाबा विश्वनाथ जो काशी के सर्वमान्य राजा है और राजराजेश्वर के रूप में यहाँ विराजमान है। उनके मंदिर परिसर की जो स्वर्णमयी आभा होनी चाहिए उसे मूर्तरूप देने का काम प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता और सनातन धर्म और हिन्दुओं के प्रति अहोभाव को दर्शाता है। जिनके द्वारा कोरोना जैसी महामारी के बीच भी मात्र 33 माह में एक असंभव सा दिखने वाला कार्य संभव हुआ है। आज मंदिर परिसर में पहुँचने वाला हर शिव भक्त हर काशीवाशी अभिभूत है। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा की बाबा विश्वनाथ दरबार का जो स्वरूप उन्होंने जीवनपर्यंत देखा वो इस अद्भुत स्वरूप में कैसे परिलक्षित हुआ। मंदिर के मुख्य अर्चक महंत श्रीकांत मिश्र भी इस बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं, “आज मंदिर का जो दिव्य और भव्य परिसर सबके सामने है वो बाबा काशी विश्वनाथ की इच्छा और प्रधानमंत्री मोदी के सार्थक और दृढ़ इच्छशक्ति के कारण ही संभव हुआ हैं।”

इससे पहले कि आगे इतिहास की बात करूँ आपकी जानकारी के लिए बता देता हूँ कि काशी विश्वनाथ धाम में 27 मंदिरों की एक खास मणिमाला भी तैयार की गई है। यह वे मंदिर हैं, जिनमें कुछ मंदिर तो काशी विश्वनाथ के साथ ही स्थापित किए गए थे और बाकी समय-समय पर काशीपुराधिपति के विग्रहों के रूप में यहाँ बसाए गए थे। जलासेन घाट से गंगा स्नान के बाद जल लेकर चलने वाले शिव भक्त इस मणिमाला को साक्षी मानकर ही गर्भगृह तक जाएँगे और यहाँ से दर्शन के बाद इन विग्रहों की परिक्रमा का जो प्राचीन विधान था वह पुनः स्थापित हुआ है। परियोजना के दूसरे चरण में 97 विग्रह व प्रतिमाओं की स्थापना और तीसरे चरण में 145 शिवलिंगों को भी स्थापित किया जाएगा।

पिछले एक महीने में कई बार इस मंदिर परिसर में गया और तब भी गया था जब इस परियोजना के लिए ड्रोन सर्वे के बाद 300 से ज़्यादा भवन खरीदे गए और उनके अंदर कैद किए गए काशी खंड के अनेक मंदिरों को मुक्त कराया गया। एक हजार साल से काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वंस का जो दंश भोग रहा था, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर ने उससे मुक्ति दिलाई है। आज जो कॉरिडोर हमारे सामने है ग्यारहवीं शताब्दी तक इस मंदिर परिसर की शक्ल कमोबेश ऐसी ही थी, जैसी आज आकार दी गई है।

काशी विश्वनाथ सिर्फ़ एक मंदिर नहीं बल्कि मंदिरों का संकुल था। मंदिर परिसर के चारों तरफ़ कॉरिडोर की शक्ल में कई कक्ष थे, जहाँ संस्कृत, ज्योतिष, तंत्र और आध्यात्म की शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुल परंपरा के तहत विद्यार्थी यहीं अपने गुरु के सानिध्य में बैठकर वेद, पुराण, धर्म और दर्शन का ज्ञान अर्जित करते थे। कहा जाता है कि 1669 में औरंगजेब ने जब इस मंदिर संकुल को तोड़ने का आदेश दिया था तो उसकी एक वजह यह भी थी कि उसका सनातन धर्म के प्रति आकर्षित होता भाई दारा शिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था।

वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा इसका जिक्र करते हुए बताते है, “दारा शिकोह ने औरंगजेब और इस्लाम से बग़ावत की थी। इसलिए औरंगजेब ने 18 अप्रैल 1669 को मंदिर तोड़ने का फ़रमान जारी किया। फ़ारसी में लिखे इस फ़रमान में दर्ज था कि “वहाँ मूर्ख पंडित, रद्दी किताबों से दुष्ट विद्या पढ़ाते हैं।”

सोचिए हिन्दू धर्म और शास्त्रों के प्रति कैसी घृणा थी उन मुग़लों में जिन्होंने भारत की मूल संस्कृति, यहाँ की आध्यात्मिकता को मिटाने का दुस्साहस किया और हम सैकड़ों सालों से, यहाँ तक कि आजाद होने के बाद भी वर्षों तक उस विध्वंश का दंश झेलते रहे।

काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के बनने-उजड़ने का सिलसिला

कहा जाता है कि बाबा विश्वनाथ का यह मंदिर काशी में भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान भी है। 11वीं सदी तक यह अपने मूल रूप में बना रहा, सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है। इसके बाद 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। काशी वासियों ने इसे उस समय अपने हिसाब से बनाया लेकिन वर्ष 1447 में एक बार फिर इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। फिर वर्ष 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनवाया था लेकिन वर्ष 1632 में शाहजहाँ ने एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाने के लिए मुग़ल सेना की एक टुकड़ी भेज दी। लेकिन हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुग़लों की सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। हालाँकि, इस संघर्ष में काशी के 63 मंदिर नष्ट हो गए।

इसके बाद सबसे बड़ा विध्वंश आततायी औरंगजेब ने करवाया जो काशी के माथे पर सबसे बड़े कलंक के रूप में आज भी विद्यमान है। साक़ी मुस्तइद खाँ की किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ के मुताबिक़ 16 जिलकदा हिजरी- 1079 यानी 18 अप्रैल 1669 को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया। साथ ही यहाँ के ब्राह्मणों-पुरोहितों, विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था।

मंदिर से औरंगजेब के ग़ुस्से की एक वजह यह थी यह परिसर संस्कृत शिक्षा बड़ा केन्द्र था और दाराशिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था। और इस बार मंदिर की महज एक दीवार को छोड़कर जो आज भी मौजूद है और साफ दिखाई देती है, समूचा मंदिर संकुल ध्वस्त कर दिया गया। 15 रब- उल-आख़िर यानी 2 सितम्बर 1669 को बादशाह को खबर दी गई कि मंदिर न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसकी जगह मस्जिद की तामीर करा दी गई है। मंदिर के खंडहरों पर ही बना वह मस्जिद बाहर से ही स्पष्ट दीखता है जिसके लिए न किसी पुरातात्विक सर्वे की जरुरत है न किसी खुदाई की।

एक और घटना जो उस समय घटी वह यह है कि स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को कोई क्षति न हो इसके लिए मंदिर के महंत शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी कुंड में ही कूद गए थे। हमले के दौरान मुगल सेना ने मंदिर के बाहर स्थापित विशाल नंदी की प्रतिमा को भी तोड़ने का प्रयास किया था लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी वे नंदी की प्रतिमा को नहीं तोड़ सके। जो आज भी अपने महादेव के इंतजार में मंदिर के उसी पुराने परिसर जो अब ज्ञानवापी मस्जिद है, की तरफ एक टक देख रहे हैं।

हालाँकि, तब से आज तक विश्वनाथ मंदिर परिसर से दूर रहे ज्ञानवापी कूप और विशाल नंदी को एक बार फिर विश्वनाथ मंदिर परिसर में शामिल कर लिया गया है। और यह संभव हुआ है विश्वनाथ धाम के निर्माण के बाद। इस प्रकार 352 साल पहले अलग हुआ यह ज्ञानवापी कूप एक बार फिर विश्वनाथ धाम परिसर में आ गया है। लेकिन नंदी महराज की दिशा और दृष्टि से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। जो कहीं न कहीं बाबा विश्वनाथ की मुक्ति का आवाहन तब तक करते रहेंगे जब तक वो अपने महादेव को देख नहीं लेते।

एक बार फिर वापस लौटते हैं इतिहास के पन्नों में, औरंगजेब के आदेश पर उस समय मंदिर संकुल को तुड़वा कर बाबा विश्वनाथ मंदिर के ही ऊपर एक मस्जिद बना दी गई। जिसे बाद में औरंगजेब द्वारा दिया गया नाम था अंजुमन इंतजामिया जामा मस्जिद, जिसे बाद में ज्ञानवापी के नाम पर ज्ञानवापी मस्जिद कहा गया। ज्ञानवापी यानी ज्ञान का कुँआ। उसके बाद कई चरणों में काशीवासियों, होल्कर और सिन्धिया सरदारों की मदद से मंदिर परिसर का स्वरुप बनता-बिगड़ता रहा। लेकिन उसकी वह अलौकिक भव्यता नहीं लौटी जो काशी में कभी हुआ करती थी।

औरंगजेब के जाने बाद मंदिर के पुनर्निर्माण का संघर्ष जारी रहा। 1752 से लेकर 1780 तक मराठा सरदार दत्ता जी सिन्धिया और मल्हार राव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। पर 1777 और 80 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर को सफलता मिली। महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर तो बनवा दिया पर वह उसका वह पुराना वैभव और गौरव नहीं लौटा पाई। 1836 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर को स्वर्ण मंडित कराया। वहीं तभी से संकुल के दूसरे मंदिरों पर पुजारियों-पुरोहितों का क़ब्ज़ा हो गया और धीरे-धीरे मंदिर परिसर एक ऐसी गलियों की बस्ती में बदल गया जिसके घरों में प्राचीन मंदिर तक क़ैद हो गए।

आने वाले समय में काशी मंदिर पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया, जिस कारण मंदिर का निर्माण रोक दिया गया। फिर साल 1809 में काशी के हिन्दुओं द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया। इस प्रकार काशी मंदिर के निर्माण और विध्वंस की घटनाएँ 11वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक चलती रही। हालाँकि, 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था, लेकिन यह कभी संभव ही नहीं हो पाया। तब से ही जारी यह विवाद आज तक चल रहा है।

28 जनवरी, 1983 को मंदिर को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इसका प्रबंधन तब से डॉ विभूति नारायण सिंह को एक ट्रस्ट के रूप में सौंपा गया है। इसमें पूर्व काशी नरेश, अध्यक्ष के रूप में और मंडल के आयुक्त के चेयरमैन के साथ एक कार्यकारी समिति बनाई गई। अभी एक न्यास परिषद भी है जो मंदिर के पूजा सम्बन्धी प्रावधानों को भी देखता है।

एक और बात वर्तमान आकार में मुख्य मंदिर 1780 में इंदौर की स्वर्गीय महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा बनाया गया था। 1785 में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के कहने पर तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद इब्राहीम खान द्वारा मंदिर के सामने एक नौबतखाना बनाया गया था। 1839 में, मंदिर के दो गुंबदों को पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह द्वारा दान किए गए सोने से कवर किया गया। तीसरा गुंबद अभी भी वैसे ही बिना स्वर्ण जड़ित है। जिस पर योगी सरकार ने ध्यान देते हुए संस्कृति धार्मिक मामले मंत्रालय के जरिए मंदिर के तीसरे शिखर को भी स्वर्णमंडित करने में गहरी दिलचस्पी ले रहा है।

कहते हैं इतिहास के अपने प्रस्थान बिन्दु होते है। काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर के रूप में आज का यह स्वरूप निर्माण का तीसरा प्रस्थान बिन्दु है। जब भी इतिहास में काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के पुनर्निर्माण का ज़िक्र किया जाएगा, मंदिर का पुनरुद्धार करने वाली महारानी अहिल्या बाई होल्कर, इसके शिखर को स्वर्ण मंडित करने वाले महाराजा रणजीत सिंह और मंदिर को उसकी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आभा लौटाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम सामने होगा।

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