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दहकते शोलों पर मानवता का महल

जहां मुंह में राम बगल में छुरी, आचरण में इतनी गलती हो।

जहां धर्म और पूजा के नाम पर, लड़ते भाई-भाई हों।
जहां ऊंच-नीच रंग जाति भेद, जैसी कुटिल बुराई हो।

आस्तिकता को छोड़ जहां, नास्तिकता को अपनाते हों।
सेवा, त्याग, प्रेम, अहिंसा को, जहां गहवर में दफनाते हों।

मनुष्यता की छाती पर बैठी, पशुता जोर से हंसती हो।
घातक अस्त्रों के घेरे में, जहां प्रलय शिकंजा कसती हो।

है कितने विस्मय की बात सखे तुम नीव में शोले भरते हो।
बारूदी ढेर पर मानवता का, महल खड़ा ये करते हो।

अरे ये किसको धोखा देते हो, तुम खुद धोखा खा जाओगे।
होगा ध्वस्त मकां तुम्हारा, तुम मिट्टी में मिल जाओगे।

क्या कभी ये सोचकर देखा? निकट है काल की रेखा।

रक्त की नदी बहाने को, लगी होड़ है विनाश की।
रोक सको तो रोको कोई, हुई आशा क्षीण विकास की।
परमाणु के भंवर बढ़े, आज मानवता की नाव पर।
सच पूछो तो भूमंडल का, अस्तित्व लगा है दाव पर।

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