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पर्व – त्यौहार

वैदिक काल से अब तक कितनी बदल गई दिवाली ?

अर्जुन देव चड्ढा

दीपावली का पराचीन वैदिक नाम शारदीय नवससयेषटि है। शारदीय अरथात शरद का की। नव अरथात नया। ससय अरथात फसल। इषटि अरथात यजञ। इसका अरथ हआ – शरद का अनन से हवन करने का विधान गोभिलगृहयसूतर, समारतसूतर, पारसकरगृहयसूतर, आपसतमबी गृहयसूतर और मनसमृति में मिलता है। वैदिक काल में कृषक व जनसामानय न अनन का हवन करके उसका उपभोग करते थे। यह काल वरष में दो बार आता था-क बसंतकाल में और दूसरा शरदकाल में। इसे वासनती नवससयेषटि और शारदीय नवससयेषटि कहा जाता था। ये दोनों परव नई फसलों से संबंधित थे। कालानतर में इनका नाम होली और दीपावली पड़ा। हम यहां केवल शारदीय नवससयेषटि का विवेचन करेंगे।
यह परव मनाने के लि कारतिक मास की अमावसया तिथि ही कयों निशचित की गई है, जिस परकार आशविन मास की पूरणिमा की चांदनी सरवोतकृषट होती है उसी परकार कारतिक मास की अमावसया रात उतकृषट होती है। कारण यह है कि बारह अमावसयाओं में यह अमावसया सबसे सघन अनधकार वाली होती है। वेद में शरद ऋत की महिमा का उललेख है – ‘‘जीवेम शतं शतं पशचेम शरदः शतं जणयाम  शरदः शंत‘‘ – हम सौ शरद ऋतओं तक जीवित रहें, देखें, बोलें, सनें आदि। अनेक कारणों से शरद काल की अमावसया तिथि ऋषियांे को अभीषट लगा होगा।
 
सभी जानते हैं कि वरषा के चार महीनों में वातावरण आदर बन जाता है जिससे नाना परकार की सड़न उतपनन होने से अनेक रोगों के कीटाण पैदा हो जाते हैं। सवासथय की दृषटि से वरषा की समापति के बाद का समय मौसम परिवरतन का होता है। उससे लोग असवसथ हो जाते हैं। इन सब से बचने के लि वं रोगों के कीटाणओं के शमन के लि यह नव यजञ अमावसया के दिन निशचित किया गया। इस दिन घर-घर हवन होता था। रात में सरसों के तेल व घी के दीये जला जाते थे। इन दीपों के जलने से नाना रोग के कीटाणओं का विनाश हो जाता था और पूरा वातावरण रोगरहित और परफललित हो जाता था। यजञ हवन की सगनध से गांव-गली-मोहलला महक उठता था। इसी खशी में लोग क-दूसरे को मिषठान  वितरण करते थे। जिससे परसपर परेमभाव की वृदधि होती थी। जब घर बाहर सफाई करके रात में उनहें दीपों से सजाया जाता था तब अमावसया की वह रात तारों की शोभा को परापत होती थी। इसी शोभा को लकषमी नाम दिया गया। धीरे-धीरे शारदीय नवससयेषटि नाम लपत हो गया और दीपावली नाम परवचलन में आ गया।
हमारे ऋषि-मनि परयावरणविद थे। वे कोई सा कारय नहीं करते थे जिससे परयावरण की कषति हो। इस हवन-यजञ के माधयम से परयावरण की संशदधि हो जाती थी। कछ लोग इस परव को रावण वध के पशचात अयोधया आगमन से जोड़ते हैं, किनत राम ने रावण का वध चैतरमास में किया था और उसी मास में लौटे थे। तलसीदास ने भी लिखा है-चैतरमास चैदस तिथि आई। मरयौ दसानन जग दःखदाई।‘‘ अतः यह परव राम के अयोधया आगमन जोड़ना यकत नहीं है। राम के पहले भी यह परव मनाया जाता था, कयोंकि पराचीन वैदिक परव है। वालमीकि रामायण में भी इस दिन राम का अयोधया आगमन नहीं लिखा।
इसी महापरव के दिन आधनिक वेदोदधारक समाज सधारक महरषि दयाननद सरसवती का निरवाण हआ था। आरय समाज इस परव को निरवाण दिवस के रूप में भी मनाता है। 30 अकटूबर सन 1883 ई. में मंगलवार के दिन उनहोंने इस नशवर शरीर का परितयाग किया था। ‘‘ परभो तेरी इचछा पूरण हो‘‘ यही उनका अंतिम वाकय था। इस परव के दिन पटाखे और आतिशबाजी का परचलन बढ़ चला। जो परयावरण के लि घातक सिदध हो रहा है। न जाने कितनी दरघटनां हो जाती हैं, आग लग जाती है। सारी रात धवनि परदूषण होता है। वाय विषैली हो जाती है, कितने शवास-रोगियों का दम घटने लगता है। कितने बीमार और परेशान हो जाते हैं। इसलि हमें परयावरण संरकषण की दृषटि से पटाखों का परयोग नहीं करन चाहि। अपनी खशी वयकत करने के लि परसपर मिषठान वितरण का सहारा लेना अधिक उपयकत है। न जाने कितने अरबों-खरबों रूपयों को हम यांे ही निररथक बहा देते हैं। यदि उस धन का उचित उपयोग किया जा तो न जाने कितने लोगों को ससवासथय मिले और धरती सवरग बन जा। पराचीनकाल में इस परव के दिन पटाखे नहीं चला जाते थे। पता नहीं कहां से यह पटाखा पदधति चल पड़ी। हम सबको इस पर विचार व मंथन करना होगा। पूरा विशव परयावरण को लेकर चिंतित है। से में हम दीपावली महापरव को परयावरण-परदूषण से मकत रखें तो ये देश-समाज सबका भला होगा।
इस दिन ऋषियों की परंपरा का पालन करें। घी व सरसों के दिये जलां। घर-आंगन, राह, गली, मोहलला इनहीं दीपों से सजां। हवन माधयम से वाय की संशदधि करें। अपने पड़ोसियों को मिषठान वितरित करें। पटाखे-आतिशबाजियों से बचें। तभी हम ऋषि ऋण मकत होंगे।

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