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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

स्थानीय हिन्दू शासक भी लड़ते रहे अपना स्वतंत्रता संग्राम

सिकंदर लोदी बना सुल्तान

बहलोल लोदी की मृत्यु जुलाई 1489 ई. में हो गयी थी। तब उसके पश्चात दिल्ली का सुल्तान उसका पुत्र निजाम खां सिकंदर दिल्ली का सुल्तान बना। उस समय दिल्ली सल्तनत कोई विशेष बलशाली सल्तनत नही रह गयी थी। उसके विरूद्घ नित विद्रोह हो रहे थे और सुल्तानों की सारी शक्ति उन विद्रोहों के दमन में ही व्यय हो रही थी। मुस्लिम शासकों के अतिरिक्त हिंदू शासक अपनी परंपरागत विद्रोहात्मक शैली के कारण दिल्ली के लिए दु:खदायी सिद्घ हो रहे थे। दिल्ली की स्थिति इतनी दुर्बल थी कि यदि उस समय दिल्ली किसी हिंदू शासक के अधीन रही होती तो समकालीन पक्षपाती इतिहास लेखक इतिहास में संभवत: दिल्ली का नाम न लेना ही उचित समझते। परंतु चूंकि दिल्ली पर अधिकार मुस्लिमों का था तो इसलिए दिल्ली को मुख्य भूमिका में दिखाया जाता रहा। अन्यथा तो स्थिति ये थी कि मेवाड़ के राणा, ग्वालियर का राजा मानसिंह, गहोरा का बघेल शासक जौनपुर का सुल्तान, प्रतापगढ़ एवं उनके आगे के हिंदू जमींदार आदि सभी अपनी-अपनी स्वतंत्रता को या तो बनाये रहे, या स्वतंत्रता की घोषणा करने लगे। सुल्तान लगभग असहाय होकर रह गया था। प्रतापगढ़ की ओर से हिंदू सरदारों ने बचगोती (वत्सगोत्री) राजपूतों के नेतृत्व में सल्तनत के विरूद्घ विद्रोह कर दिया।

बचगोती राजपूत सरदार जोगा

इन शासकों ने धीरे-धीरे अपनी शक्ति का विस्तार करना आरंभ कर दिया। बचगोती राजपूतों के सरदार जोगा के पास इस समय एक लाख की सेना थी। सरदार जोगा अपनी शक्ति का निरंतर विस्तार करता जा रहा था, पर दिल्ली सल्तनत उसका कुछ नही बिगाड़ सकी। इस एक उदाहरण से ही पता चल जाता है कि उस समय दिल्ली सल्तनत की स्थिति हीन से हीनतर होती चली जा रही थी।

मुबारक खान को भगा दिया परास्त करके

‘तारीखे दाऊदी’ के अनुसार इस जोगा नाम के बचगोती सरदार ने सिकंदर लोदी के विरूद्घ विद्रोह किया था। यह घटना 1491-92 ई. की है। जोगा ने अपने विद्रोह के समय कड़ा के राज्यपाल मुबारक खान के भाई की हत्या कर दी थी। युद्घ में मुबारक खान पराजित होकर भाग गया।

हिंदू वीर भेदेचंद की वीरता

जब मुबारक खान युद्घ क्षेत्र से भागा जा रहा था तो मार्ग में झूसी के निकट गंगा नदी पार करते समय बघेल शासक भेदे चंद द्वारा बंदी बना लिया गया था। बघेल शासक की इस वीरता का परिणाम ये हुआ कि  जौनपुर का राज्यपाल बारबक शाह भेदेचंद की वीरता से भयभीत होकर दरियाबाद में कालापहाड़ के पास गया। इस संघर्ष में बचगोतियों की निर्णायक विजय हुई। यद्यपि यह विजय स्थायी नही रह पायी। परंतु भारत के शौर्य और स्वतंत्रता प्रेम की भावना ने एक बार तो विदेशी शासकों को हिला ही दिया था।

सुल्तान से शत्रुता त्याग दी

जब बचगोतियों के इस उद्देश्य की सूचना सुल्तान को मिली तो वह एक सेना लेकर इस विद्रोह को शांत करने के लिए दिल्ली से उधर की ओर चल दिया। कान्तित नामक सभा बघेल शासक ने शत्रुता का मार्ग त्याग कर आशा के विपरीत सुल्तान का भव्य स्वागत किया। सुल्तान उस बघेल शासक को कान्तित सौंपकर आगे चला गया। कान्तित से सुल्तान अरैल पहुंचा। परंतु यहां वह थक गया और हिंदुओं की संपत्ति की लूटमार करने के पश्चात यहां से आगे नही बढ़ सका।

(संदर्भ : डे खण्ड 1, पृष्ठ 361)

बहार राय ने किया जमकर संघर्ष

भेदचंद के उपरांत उसके लडक़े बहार राय 1494-95 ई. में सुल्तान सिकंदर लोदी का रास्ता रोका और शाही सेना से जमकर संघर्ष किया। यह घटना उस समय की है जब सुल्तान सिकंदर लोदी बघेल को पुन: दंडित करने केे लिए उधर गया था और वह हिंदू विद्रोहियों की हत्या करने लगा था। इस विद्रोह में बहार राय को सफलता नही मिली और वह युद्घ में परास्त होकर भाग निकला। अपने पुत्र की यह स्थिति देखकर भेदचंद का भी साहस टूट गया और जब सुल्तान की सेना गहोरा की ओर बढ़ी तो भेदचंद भी वहां से सरगुजा की ओर चला गया, पर मार्ग में ही उसकी मृत्यु हो गयी।

सुल्तान ने उठाया भारी कष्ट

सुल्तान यद्यपि यहां से दिल्ली के लिए लौट गया परंतु उसकी भोजन सामग्री समाप्त हो जाने के कारण उसे दिल्ली लौटना बड़ा महंगा पड़ा। कहा जाता है कि उसके 90 प्रतिशत घोड़े रास्ते में ही समाप्त हो गये।

हारकर भी हार नही मानी

बघेल शासक भेदचंद और उसके पुत्र बहार राय ने यद्यपि सुल्तान को निर्णायक पराजय नही दी और सुल्तान ने स्वयं को विजयी  घोषित भी किया, परंतु सत्य यही है कि भारत के अन्य क्षेत्रों की भांति बघेलों की शक्ति को सिकंदर समाप्त नही कर सका।

सालिवाहन ने भी अपनाया विद्रोह का मार्ग

भेदचंद के पुत्र सालिवाहन को उसकी मृत्यु के पश्चात बघेल शासक होने का अवसर मिला। वह भी सिकंदर के विरूद्घ हुसैन शाह शर्की के साथ मिलकर विद्रोहात्मक कार्यवाहियों में लगा रहा। इसके काल में 1498-99 ई. में सिकंदर ने पुन: बघेल राज्य पर आक्रमण किया। सुल्तान ने पटना (गहोरा) पहुंचकर भयंकर विनाश किया मुस्लिम इतिहासकारों ने कहा है कि वहां  सुल्तान ने हिंदू आबादी का कोई चिन्ह भी नही छोड़ा था।

‘तारीखे दाऊदी’ से हमें ज्ञात होता है कि गहोरा के पश्चात सुल्तान सिकंदर ने बघेलों के दुर्ग बान्धोगढ़ पर हमला बोल दिया। यहां पर हिंदू वीरों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। बघेलों ने अपनी वीरता से सुल्तान को दिल्ली लौटने के लिए बाध्य कर दिया। निजामुद्दीन अहमद जैसे लेखक को सुल्तान के लौटने का कारण हिंदुओं की वीरता कहने में लज्जा आती है तो उसने लिख दिया है कि सुल्तान बान्धोगढ़ के दुर्ग की सुदृढ़ता के कारण दिल्ली लौट गया था।

तोमरों ने भी किया सिकंदर से संघर्ष

ग्वालियर के तोमरों ने सिकंदर लोदी के साथ प्रारंभ में तो अपने मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित रखे। परुंत कालांतर में कुछ परिस्थितियां ऐसी बनीं कि ग्वालियर के तोमर दिल्ली के सुल्तान के विरूद्घ होते चले गये। 1491-92 ई. में सिकंदर ने बयाना पर विजय प्राप्त की थी। तब वहां का शासक सुल्तान शर्फ वहां से भागकर ग्वालियर आ गया। इससे दिल्ली सुल्तान ने ग्वालियर को संदेह से देखना आरंभ किया। पर सुल्तान यह भलीभांति जानता था कि बचगोती राजपूत , बघेल तथा हुसैन शाह शर्की का अघोषित गठबंधन उसके लिए कष्टकारी हो सकता है, इसलिए तोमरों को न छेडऩा ही उसने उचित समझा। परंतु 1499-1503 ई. में जब सिकंदर निरंतर चार वर्ष संभल में रहा तो वहां के कुछ विद्रोही भी जिनमें पटियाली का मुकद्म राय गणेश सईद खां व बाबूखां सम्मिलित थे, ग्वालियर के शासक मानसिंह के यहां आ गये और मानसिंह ने उन्हें शरण दे दी। इन परिस्थितियों में सुल्तान को यह निश्चय हो गया कि तोमरों से उसका राज्य सुरक्षित नही रह सकता। उनसे संघर्ष अनिवार्य है। तोमर शासक ने यद्यपि अपने दूत के माध्यम से कटु होते जा रहे परिवेश को कुछ सीमा तक नियंत्रित कर मित्रतापूर्ण बनाने का प्रयास किया परंतु कोई हल नही निकला। सिकंदर ने दूत के साथ भी शोभनीय व्यवहार नही किया। यद्यपि मुस्लिम इतिहासकारों का मानना है कि मानसिंह के दूत ने ही सिकंदर के प्रति कठोर वाक्यों का प्रयोग किया था।

तोमरों के दुर्गों पर किये हमले

इन परिस्थितियों में सिकंदर ने तोमर राज्य के आधीन कुछ दुर्गों पर आक्रमण करना आरंभ किया। इन दुर्गों में सर्वप्रथम दुर्ग था धोलपुर का जिसे सिकंदर ने अपने आधिपत्य में लेने का निर्णय लिया था। सिकंदर के इस आक्रमण की जानकारी ‘तारीखे दाऊदी’ से हमें मिलती है। जिसमें उसने मेवात के राज्यपाल आलम खां, रायरी के राज्यपाल खानेखान लोधाबी तथा बयाना के नये राज्यपाल ख्वास खां को धौलपुर पर आक्रमण के लिए भेजा।

धौलपुर के राय ने दी कड़ी टक्कर

धौलपुर के राय विनायक देव ने इस आक्रमणकारी सेना को कड़ी टक्कर दी। 25-26 मार्च 1501 को सुल्तान भी यहां सेना के साथ आ गया। क्योंकि उसे ज्ञात हो गया था कि धौलपुर का राय उसकी सेना को कड़ी टक्कर दे रहा है। सुल्तान की शाही सेना के आने के पश्चात राय विनायक देव ग्वालियर की ओर चला गया। फलस्वरूप उसकी अनुपस्थिति में मुस्लिम सेना ने हिंदुओं का व्यापक नरंसहार किया। अंत में किले पर शाही सेना का आधिपत्य हो गया। ‘तारीखे दाऊदी’ के अनुसार कितने ही मंदिरों को नष्ट कर सुल्तान ने मस्जिदों का निर्माण करा दिया था।

इसके पश्चात सुल्तान ने ग्वालियर पर आक्रमण किया। उसकी सेना ने आसी अथवा मंदाकिनी नदी के पास जाकर अपना डेरा डाल दिया। पर वहां नदी जल के प्रदूषित हो जाने से महामारी फैल गयी जिससे वह अभियान असफल रहा। यहां धौलपुर का किला सुल्तान ने राय विनायक को सौंप दिया और स्वयं आगरा की ओर आ गया। इस किले को राय विनायक को ही सौंपने की साक्षी से कई इतिहासकार धौलपुर आक्रमण के समय शाही सेना की विजय को ही संदिग्ध मानते हैं। कुछ भी  हो सुल्तान पर हिंदू शक्ति के सामने इस प्रकार झुकने का कोई न कोई कारण तो अवश्य था।

सुल्तान को मिली सफलता

ग्वालियर के आक्रमण के पश्चात सुल्तान ने 1505-6 ई. में आगरा शहर की स्थापना की थी। लगभग इसी समय उसने मंदरेल पर आक्रमण किया, यहां भी तोमरों का आधिपत्य था और मंदरेल के लोग विद्रोही स्वभाव के थे। इस किले को जीतकर सुल्तान ने किला मियां मकन को दे दिया। मंदरायल के पश्चात पुन: धौलपुर पर आक्रमण किया गया और सुल्तान ने वहां का किला विनायक देव से लेकर अपने विश्वसनीय मालिक मुईजुद्दीन को दे दिया।

किया जेहाद का घोष

इतनी सफलताओं से सुल्तान का मनोबल बढ़ा तो उसने ग्वालियर पर पुन: आक्रमण कर दिया। यह घटना 1506 ई. की है। सुल्तान ने हिंदुत्व के विनाश के लिए इस बार जेहाद का घोष किया। वह चाहता था कि हिंदू शक्ति का सुदृढ़ दुर्ग यदि ग्वालियर उसके आधीन आ गया तो यह उसके राज्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। अत: उसने हर स्थिति में दुर्ग को लेने की योजना बनाई। इसलिए अपनी मुस्लिम सेना में उत्साहवद्र्घन करने के लिए सुल्तान ने जेहाद की घोषणा की।

तोमरों ने किया छापामार युद्घ

तोमर हिंदू वीरों ने इस समय छापामार युद्घ का आश्रय लिया। उन्होंने अपनी वीरता से कई माह तक सुल्तान की सेना को छापामार युद्घ के माध्यम से अत्यंत दु:खी किया और सुल्तान को पर्याप्त सैनिक हानि उठानी पड़ी। छापामार युद्घ की शैली से सुल्तान की सेना के लिए भोजन पानी की समस्या उत्पन्न हो गयी। सुल्तान ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में अपमानजनक ढंग से पीछे हटने का निर्णय लिया। जब उसकी सेना पीछे हट रही थी उस समय भी तोमरों ने उस पर आक्रमण कर दिया। भयंकर संघर्ष हुआ। मुसलमानों को हिंदू वीरों ने भारी क्षति पहुंचाई। सुल्तान जैसे-तैसे अपना सम्मान बचाकर निकल आया। इस आक्रमण के पश्चात ग्वालियर की ओर सिकंदर पुन: कभी नही गया।

अवन्तगढ़ के हिंदू वीरों की वीरता

1506 ई. के दिसंबर माह में सुल्तान सिकंदर ने अपने विश्वसनीय लोगों के नेतृत्व में अवंतगढ़ के लिए सेना भेजी। ‘तबकाते अकबरी’ के अनुसार ‘‘सुल्तान ने जब किले पर आक्रमण किया तो घोर संघर्ष हुआ। सैनिक चीटियों तथा टिड्डियों की भांति चिपक कर वीरता प्रदर्शित करने लगे।’’ इस संघर्ष के समय एक स्थान पर किले में दरार पड़ गयी जहां से मुस्लिम सेना किले में प्रविष्ट हो गयी। प्रारंभ में तो हिंदू वीरों ने युद्घ रोकने की क्षमायाचना की, परंतु जब उस क्षमायाचना का कोई प्रभाव नही पड़ा तो सुल्तान की शाही सेना से आरपार का युद्घ लडऩे का निर्णय हिंदू वीरों ने ले लिया। किले के भीतर हर स्थान पर मुस्लिम सेना के साथ वीरता के साथ युद्घ होने लगा। हिंदू वीरों ने अपने परिजनों को विशेषत: महिलाओं को उनके अत्याचारों से बचाने के लिए अपनी तलवार से ही समाप्त करना आरंभ कर दिया। दिये गये अनुपम बलिदान

जौहर की व्यवस्था कर ली गयी बहुत से हिंदुओं ने मां भारती के लिए अपना अंतिम बलिदान दिया और लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की। अवंतगढ़ का किला मुस्लिम आधिपत्य में चला गया, पर ऐसा कोई हिंदू किले में जीवित नही था जो गुलामी की जंजीरों में बांधा जा सके। हिन्दुओं की यह वीरता ही तो इतिहास के पृष्ठों को स्वर्णिम बनाती है।

सिकंदर को सता रहा था मानसिंह का भय

वूल्जले हेग जैसे इतिहासकारों का मत है कि सिकंदर अवंतगढ़ से आगरा के लिए मानसिंह के भय के कारण ऐसे रास्ते से लौटा कि जिसमें पानी का सर्वथा अभाव था। सिकंदर को डर था कि हिंदू गढ़ के परास्त होने के कारण कहीं मानसिंह उसे रास्ते में न आ घेरे। इसलिए उसने जिस रास्ते का अनुकरण किया उसमें उसके सैकड़ों सैनिक बिना पानी मर गये। यह भी एक तथ्य है जिसे इतिहास निर्माण के लिये आवश्यक सामग्री के रूप में प्रयुक्त करना चाहिए। पर दुर्भाग्य से यह घटना हमारे इतिहास में उल्लेखित नही की गयी है।

हसन खां को दे दिया था अवन्तगढ़

‘तबकाते अकबरी’ के वर्णन से स्पष्ट होता है अवन्तगढ़ का दुर्ग जीतकर सुल्तान सिकंदर लोदी ने हसन खां नामक मुस्लिम अधिकारी को दे दिया था। यह हसन खां पूर्व में हिंदू रहा था, अत: धर्मांतरित मुस्लिम था। इसका पुराना नाम राय डूंगर था। मुस्लिम वर्णनों के द्वारा ज्ञात होता है कि इस अधिकारी को यहां के हिंदुओं ने बहुत से कष्ट दिये थे। ये कष्ट स्पष्टत: उन लोगों के द्वारा यहां से विदेशी लोगों का शासन समाप्त कर पुन: अपनी हिंदू ध्वजा फहराने के लिए किये जाने वाले संघर्ष ही थे। इस प्रकार की साक्षियों से स्पष्ट होता है कि क्षेत्र चाहे जो हो समय चाहे जो हो और परिस्थितियां चाहे जो हों पर स्वतंत्रता का संघर्ष निरंतर जारी रहा। वह उसी चमड़े की भांति था जिसका उल्लेख हमने पूर्व के अध्याय में सिकंदर के प्रसंग में किया था, जो स्थान-स्थान पर मुड़ा हुआ था और जिसे वह एक स्थान पर यदि सीधा करता था तो वह दूसरे स्थान पर उठ जाता था। इसके उपरांत भी सिकंदर धोलपुर, मंडरैल, अवंतगढ़ और पवाया में उलझा रहा और 1509 तक उसकी स्थिति यद्यपि सुदृढ़ हो गयी, पर छोटे-छोटे दुर्ग को लेने या उन पर हमला करने में ही उसकी अधिकांश ऊर्जा का अपव्यय हो गया।

हिन्दुओं ने नही दिखाई एकता

यदि इस समय का हिंदू शासक वर्ग सुल्तान के  विरूद्घ हिंदू नरेशों का वैसा ही एक संगठन बना लेता, जैसा कभी पृथ्वीराज चौहान के समय बनाया गया था, तो अच्छा रहता। परंतु उन  इस समय हिन्दू  राजाओं ने ऐसा कोई राष्ट्रीय संगठन नही बनाया, जिसका परिणाम यह निकला कि अत्यंत दुर्बल सुल्तान भी कुल मिलाकर टिका रहा, और हिंदू चुनौतियों से जूझता रहा।

‘सल्तनत काल में हिंदू प्रतिरोध’ के लेखक का कथन है कि-‘‘यद्यपि सुल्तान 1571 ई. तक जीवित रहा, तथापि अपने उस आठ वर्ष के शेष जीवन में वह ग्वालियर के विरूद्घ कोई कार्यवाही नही कर सका। तोमरों के विरूद्घ उसकी असफलता उसके शानदार जीवन चरित्र तथा उपलब्धियों के मध्य एक ऐसा कलंक बन गयी जो उसकी अन्य उपलब्धियों तथा योग्यताओं को धूमिल कर देती है। उसके पुत्र इब्राहीम लोदी के शासन काल के आरंभ तक तोमर लोग अपनी स्वतंत्रता का स्वच्छन्दता पूर्वक पान करते रहे।’’

शिखा और शिखाबंधन का आर्य परंपरा में अर्थ

हिंदू समाज में चोटी (शिर में शिखा) रखना अच्छा माना जाता है। इसका अर्थ है कि हम ज्ञान विज्ञान में चोटी (उच्चतम शिखर) वाले हैं। हमारे ज्ञान विज्ञान की पराकाष्ठा को कोई माप नही सकता है। दूसरे यह चोटी हमारे सिर के उस भाग पर रखी जाती है जो धूप के प्रभाव को अधिक समय तक नही झेल सकता। उस संवेदनशील स्थल पर चोटी रखने से उसकी रक्षा धूप के तीव्र प्रभाव से हो जाती है, इसलिए हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने चोटी रखने का प्राविधान किया था। यह ‘आर्य परंपरा’ है और आर्य परंपराएं शुद्घ विज्ञानवाद पर आधारित होती हैं।

शिखा में बंधन भी होता है। यह बंधन किसी व्रत या प्रतिज्ञा का प्रतीक हुआ करता है। जब कोई व्यक्ति कोई व्रत लेकर  व्रतधारी बनता तो वह शिखा बंधन कर लेता कि अब यह बंधन तभी खुलेगा जब मैं अमुक कार्य कर लूंगा। इस प्रकार चोटी हमारी सांस्कृतिक (चोटी वाले कहलवाकर) धार्मिक  (शुद्घ विज्ञान संगत होने से) तथा सामाजिक (शिखाबंधन के अर्थ से) पहचान थी। ये तीनों बातें धर्म की पहचान हैं। इसलिए चोटी हमारे लिए धर्म से जुड़ी हुई एक आस्था बन गयी। इसकी रक्षा के लिए ही लाखों लोगों ने अब तक अपने सर कटा दिये थे।

लोधन बन गया हकीकत राय

सिकंदर के समय कटेहर निवासी लोधन नाम के एक ब्राह्मण ने मुसलमानों के समक्ष कह दिया था कि ‘‘इस्लाम सत्य है और मेरा धर्म भी सत्य है।’’ इतनी सी बात का ही आलिमों (मुस्लिम विद्वानों ने) ने विरोध करना आरंभ कर दिया। वहां के हाकिम ने यह प्रकरण सिकंदर के पास भेज दिया।

सिकंदर ने प्रकरण को देखते हुए अमीरों तथा आलिमों की बैठक बुलाई। अन्य आलिमों ने कह दिया कि इस ब्राह्मण को बंदी गृह में डाल दिया जाए और इस्लाम की शिक्षा दी जाए। यदि वह मुस्लिम हो जाता है तो उसे छोड़ दिया जाए अन्यथा उसकी हत्या कर दी जाए। ब्राह्मण लोधन एक तपा तपाया धर्मवीर था। वह जानता था कि तेरे साथ क्या होने जा रहा है, और यह भी कि यदि जीवन प्यारा है तो ‘इस्लाम या मौत’ के विकल्प में से इस्लाम को चुनकर जीवित रह लिया जाए। परंतु उस धर्मवीर ने ‘मौत’ के विकल्प को चुन लिया। जिस कारण उस बहादुर योद्घा धर्मवीर की हत्या कर दी गयी।

(संदर्भ : तारीखे दाऊदी)

इस घटना से ज्ञात होता है कि सिकंदर लोदी कितना क्रूर और धर्मांध शासक था। हिन्दुओं के प्रति वह पूर्वाग्रह ग्रस्त रहता था।

मुस्लिम प्रांत पतियों के विरूद्घ भी हुए विद्रोह

हम पूर्व में भी स्पष्ट कर चुके हैं कि हिंदू मुस्लिम प्रांत पतियों के विरूद्घ भी विद्रोही हो चुके थे। बिहार में उस समय एक सबैसिंह नामक हिंदू राजा का शासन था। ‘अफगान के शाहान’ से हमें पता चलता है कि बिहार के मुस्लिम प्रांतपति से इस सबैसिंह का युद्घ हुआ था।

अवध के 24 हिंदू रायों और सामंतों ने बनाया संगठन

इसी प्रकार अवध में 24 हिंदू रायों, सामंतों ने वहां के प्रांतपति मियां मुहम्मद फर्मूली के विरूद्घ विद्रोह किया। फर्मूली को हुसैन शाह शर्की ने अपना राज्यपाल बनाया था। 24 हिंदू रायों सामंतों का इस प्रकार एक साथ आना एक उल्लेखनीय घटना है जो हिंदू के भीतर की वेदना और स्वतंत्रता के प्रति तड़प को स्पष्ट करती है। परंतु इन 24 हिंदू सामंतों को भी (वाकयाते मुश्ताकी के अनुसार) सफलता नही मिल सकी। उक्त पुस्तक के अनुसार हिंदू लोग नक्कारे की आवाज तथा मियां मुहम्मद का नाम सुनकर न ठहर सके और भाग निकले। उन्होंने इतना घोर युद्घ किया कि उनके हाथ तलवार की मूठ में चिपक कर रह गये। हाथी के शरीर में जितने लोहे चुभे थे, उन्हें निकालकर तोला गया तो 8 मन लोहा हुआ।’’

कुछ भी हो, ऐसे युद्घों का परिणाम चाहे विपरीत ही गया परंतु इसने हिंदू की वेदना को तो प्रकट किया ही, और यह वेदना ही भारत की वह अन्तश्चेतना थी जो उसे स्वतंत्रता के लिए मर मिटने को प्रेरित कर रही थी। इस काल में हमें चंपारन के राजा तथा चंपारन के मुक्ता मियां हुसैन फर्मूली के मध्य संघर्ष की सूचना ‘वाकये मुश्ताकी’ से मिलती है। उस युद्घ में बहुत से हिंदू मारे गये थे और भयंकर लूटमार भी की गयी थी।

सिकंदर लोदी की मृत्यु

सुल्तान सिकंदर लोदी की मृत्यु 21 नवंबर 1517 को हुई थी तब उसका ज्येष्ठ पुत्र इब्राहीम लोदी 29 नवंबर 1517 ई. को दिल्ली के राज्य सिंहासन पर बैठा। उसका उल्लेख हम अगले अध्यायों में  यथास्थान करेंगे।

क्रमश:

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