कितना उचित है गुर्जर व राजपूतों का राजाओं की जातियां निर्धारित करने का विवाद ?

आजकल राजपूत और गुर्जरों में एक अनावश्यक विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई है कि कौन राजा किस जाति का है? अमुक राजा गुर्जर जाति का है अथवा राजपूत जाति का है?
जैसे पृथ्वीराज चौहान, अनंग पाल तँवर, सम्राट मिहिर भोज आदि राजाओं को लेकर यह विवाद अधिक गहराता जा रहा है।
इसको लेकर दोनों जातियों में विरोधाभास उत्पन्न हो गया है।
पिछले काफी समय से चले आ रहे इस विवाद के विषय में विचार करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस पर कुछ प्रमाणिक जानकारी लेने हेतु कुछ अभिलेखों तथा कुछ पुस्तकों का अध्ययन किया।जिसके आधार पर निम्नांकित लेख प्रस्तुत किया जाता है।
सर्वप्रथम हम राजपूतों का अधिवासन प्रस्तुत करते हैं।

राजपूतों का अधिवासन

भारत में गुप्त साम्राज्य (जो सन 510 तक राजा भानु गुप्त के राज्य तक रहा) के पराभव के पश्चात भारतवर्ष में छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ जो आपस में लड़ते रहते थे। उसके बाद कुछ समय के लिए सम्राट हर्षवर्धन ने इन्हें एक शासन के अधीन लाकर देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए प्रशंसनीय कार्य किया। परंतु उसकी मृत्यु के उपरांत वही अराजकता की स्थिति फिर उत्पन्न होने लगी। इस काल में चीन जैसे ‘दब्बू देश’ ने भी भारत पर आक्रमण किया और बहुत बड़े क्षेत्र को भारत से छीनने में उसे सफलता प्राप्त हुई।
     विभिन्न राजपूत राज्यों के उदय एवं शासन के कारण हर्षवर्धन के काल छठवीं सातवीं सदी से लेकर 12वीं सदी तक, मुस्लिम सल्तनत की स्थापना तक के काल को भारतीय इतिहास में राजपूत काल कहा जाता है। लगभग छठी शताब्दी से राजपूत वंश द्वारा सत्ता संस्थापन के उल्लेख प्राप्त होते हैं ।यह भी प्रमाण प्राप्त होते हैं कि गुजरात, पंजाब तथा गंगा जमुना के मैदानी भागों से उस काल में कई राजपूत समुदाय राजस्थानी प्रदेश में आए। तथा उन्होंने यहाँ के निवासियों के सहयोग से अपनी सत्ता स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।  राजपूत समुदायों ने सर्वप्रथम राजस्थान के दक्षिण, दक्षिण पश्चिमी, दक्षिण पूर्वी, उत्तर पश्चिमी एवं उत्तर पूर्वी भाग में अपने अधिवासों की स्थापना की। तथा इनमें से कुछ इस प्रदेश के भीतरी भागों में जाकर अपना शासन स्थापित करने में कामयाब रहे ।इस प्रकार इन राजपूत वंशों ने राजस्थान के पृथक -पृथक भागों में अपना शासन स्थापित कर लिया। इस संपूर्ण प्रक्रिया में इन्हें कई सौ वर्ष लग गए। 13वीं सदी के आरंभ तक संपूर्ण राजस्थानी भाग पर इन राजपूती सत्ताओं का आधिपत्य हो गया था। इस कार्य में इन्हें इस क्षेत्र में पहले से विद्यमान स्थानीय जाति समूहों यथा भील, मीणा, मेव,मेवाती ,ब्राह्मण आदि से भारी प्रतिरोधों का सामना करना पड़ा।  अंततः यह अपना राज्य कायम करने में सफल रहे। राजस्थान में स्थापित हुए प्रारंभिक राजपूत समुदाय वंशों  में मारवाड़ के प्रतिहार, राठौड़, सांभर के चौहान, मेवाड़ के गुहिल, भीनमाल एवं आबू के चावड़ा, आमेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी एवं बागड़ वा आबू के परमार आदि प्रमुख हैं।
अब थोड़ा संक्षिप्त वर्णन राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न विद्वानों द्वारा समय-समय पर इतिहास में दिया गया है उसको प्रस्तुत करते हैं।
राजपूत वंश की उत्पत्ति के संबंध में इतिहासकारों में विभिन्न मत हैं। राजस्थान के इतिहास के पितामह के रूप में माने जाने वाले कर्नल जेम्स टॉड इन राजपूत जातियों को विदेशों से आए आक्रमणकारी जातियों का वंशज मानते हैं।
मैं कर्नल जेम्स टॉड के इस विचार से व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं हूं। क्योंकि कर्नल जेम्स टॉड ने अधिकतर जातियों को बाहरी बताकर यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि भारतवर्ष पर हमेशा से ही बाहरी लोगों ने आकर कब्जा और राज्य किया है । इससे कर्नल टॉड की भारतवासियों के बारे में  दुर्भावना सिद्ध करती है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कर्नल जेम्स टॉड एक अंग्रेज थे और जिस समय राजस्थान का इतिहास लिख रहे थे उस समय भारत में अंग्रेजों का ही राज था। उन्हें भारतवासियों की अपने बारे में प्रचलित मान्यताओं के उलट लिखने के लिए ही अंग्रेजों ने यहां पर भाड़े के टट्टू के रुप में बुलाया था। इसलिए उनकी हर बात पर विश्वास नहीं क्या सकता ।
     कर्नल टॉड ने जानबूझकर ऐसी मान्यताएं स्थापित करने का प्रयास किया कि यहां पर तो प्राचीन काल से ही विदेशी जातियां आती रही हैं और वे अपने अपने ढंग से शासन करती रही हैं। ऐसा लिख कर वह ये एहसास कराना चाहता था कि भारत भारतीयों का नहीं है बल्कि विभिन्न कालों में आई विदेशी जातियों का निवास स्थल मात्र है। अपनी ऐसी धारणा को अवस्थापित कर कर्नल टॉड ने तुर्कों, मुगलों और अंग्रेजों के साथ साथ फ्रांसीसियों सहित सभी विदेशी जातियों के यहां आगमन को उचित ठहराने का प्रयास किया।
  कर्नल टॉड द्वारा भारत के बारे में बनाई गई इसी मूर्खतापूर्ण धारणा को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी पुस्तक ‘भारत की खोज’ में यह कहकर स्थापित करने का प्रयास किया है कि ‘कारवां आते गए और हिंदुस्तान बनता गया।’
इस विषय में मैं यह उल्लेख करना भी उचित समझता हूं कि  कर्नल टॉड ने राजस्थान के इतिहास पर कोई शोध अनुसंधान नहीं किया था बल्कि पहले से ही विभिन्न राजा रजवाड़ों के इतिहास को उठाकर उसने उन इतिहासों में अपनी मर्जी से उलटफेर करके हम भारतवासियों को भ्रमित करने का प्रयास किया। इसलिए हमारे बारे में कर्नल टॉड ने जो कुछ भी लिखा है उसे आंखें मूंद कर स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ डीआर भंडारकर भी कर्नल टॉड के मत का समर्थन करते हुए राजपूतों को विदेशी जाति मानते थे। लेकिन कुछ इतिहासकार इन्हें भारतीय मानते हैं । इस प्रकार राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में सभी इतिहासकार निम्न 2 मतों में विभाजित हो गए हैं।
1 राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत।
2  राजपूतों की देसीय अथवा स्थानीय उत्पत्ति का सिद्धांत।
राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति के पक्षधर कर्नल जेम्स टॉड, डॉक्टर विसेंट स्मिथ, कर्नल टॉड की पुस्तक के संपादक डॉ विलियम क्रुक , डॉक्टर डीआर भंडारकर, डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद, ए कनिंघम ब्रोच गुर्जर ताम्रपत्र 978 ईसवी के आधार पर,इन्हें विदेशियों के संतान मानते हैं। शक , युचि और हूण का वंशज होना स्वीकार करते हैं।
कर्नल जेम्स टॉड, विलियम क्रुक , शक एवं सीथियनों की संतान बताते हैं। डॉ वी0 ए0 स्मिथ शक,यूची, हूंणों की संतान बताते हैं। डॉक्टर डी0आर0 भंडारकर, डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद गुर्जर वंशीय श्वेत हूंणों के वंशज बताते हैं। ए0 कनिंघम युची, कुषाण जाति के वंशज बताते हैं।

डॉक्टर डी0आर0 भंडारकर के कथन का आधार क्या है कि राजपूत और गुर्जर एक हैं?
डॉक्टर डी0आर0अर्थात देवराज रामकृष्ण भंडारकर ने राजपूतों को गुर्जर वंशज माना है तथा बताया है कि भारत के उत्तर पश्चिम भाग में विस्तृत गुर्जर जाति का श्वेत हूणों से निकट का संबंध था। डॉक्टर भंडारकर इन दोनों गुर्जर व श्वेत हूणों को विदेशी मानते हैं। इसकी पुष्टि में भी पुराणों के अंश उद्धृत कर कहते हैं कि पुराणों में हूण गुर्जरों को विदेशी बताया गया है। उनका मत है कि प्रतिहार ,परमार, चालुक्य,  चौहान गुर्जर वंश से उत्पन्न हुए क्योंकि राजौर गढ़ अभिलेख में प्रतिहार  को गुर्जर कहा गया। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद भी डॉक्टर भंडारकर के समर्थक  गुर्जरों को श्वेत हूण विदेशी मानते हैं।

राजपूतों की देसी उत्पत्ति का सिद्धांत

यीशु मत के समर्थक सभी इतिहासकार मानते हैं कि राजपूत  भारत के ही निवासी हैं, विदेशी नहीं । इसमें राजपूतों की उत्पत्ति के भिन्न-भिन्न मत निम्न प्रकार हैं :–

1 – अग्निकुंड से उत्पत्ति
पृथ्वीराज रासो में कवि चंद्रवरदाई ने राजपूतों के चार वंश गुर्जर प्रतिहार, चालुक्य, (सोलंकी )परमार एवं चौहानों( चाहमान)की उत्पत्ति ऋषि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर किए गए यज्ञ के अग्निकुंड से हुई बताई। इसके समर्थन में साहित्यकार मुंहनोत नेन्नसी, एवं कवि सूर्यमल मिश्रण हैं। जबकि कर्नल टॉड एवं क्रुक ने इस अग्निकुंड कथानक को विदेशियों को शुद्ध करने का आयोजन बताया है।

२ – प्राचीन क्षत्रियों की संतान होना

यह सर्वाधिक स्वीकार्य मत है – सूर्यवंशी एवं चंद्रवंशी।
पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं डॉ दशरथ शर्मा राजपूतों को प्राचीन सूर्यवंशी एवं चंद्रवंशी क्षत्रियों की संतान मानते हैं। उनके अनुसार प्रतिहार, चौहान ,गोहिल, राठौड़ आदि सूर्यवंशी तथा चालुक्य, यादव, भाटी, चंद्रावती के चौहान आदि चंद्रवंशी कुल से उत्पन्न हुए। इसके पक्ष में उन्होंने प्रमाण स्वरूप कई शिलालेखों एवं साहित्य ग्रंथों को उद्धृत किया है। उदाहरणार्थ नाथ अभिलेख 971 ईसवी, आटपुर लेख 971 ईसवी, आबू का शिलालेख 1285 ईस्वी एवं श्रृंगी ऋषि के शिलालेख 1428 ईस्वी में गुहिलों को रघुवंशी बताया गया है।
तीसरा मत है कि राजपूत वैदिक आर्यों की संतान हैं। इस विषय में सी वी वैद्य का मत अधिक प्रचलित है।चौथे मत के अनुसार राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से है। इसलिए ये ब्राह्मण वंशीय भी कहे जाते हैं।
डॉक्टर डी0 आर0 भंडारकर को हमने ऊपर पढ़ा तो देखा कि वह गुर्जर वंशीय  श्वेत हूण के वंशज राजपूतों को बताते हैं ।लेकिन दूसरे मत में राजपूतों को ब्राह्मणों से उत्पन्न हुआ मानते हैं।
इस मत के समर्थन में वह बिजोलिया शिलालेख को प्रमाण स्वरूप बताते हैं। जिसमें कि वासुदेव  चाहमान  वत्स गोत्र विप्र बताया गया है। इसके अलावा वे राजशेखर ब्राह्मण का अवंती सुंदरी से विवाह होना भी चौहानों का ब्राह्मण वंशीय होने का अकाट्य प्रमाण मानते हैं। पृथ्वीराज रासो में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स गोत्र से होनी उल्लिखित है। इतिहासकार डॉ गोपीनाथ शर्मा भी राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मण वंश से होने के पक्षधर हैं ।इसके पक्ष में वे कुंभलगढ़ प्रशस्ति की द्वितीय पट्टीका का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि बप्पा रावल गोहिल वंश आनंदपुर के ब्राह्मण वंश से थे। जिन्होंने नागदा में आकर हरित ऋषि की कृपा से अपने शासन की स्थापना की। इसके अलावा श्री शर्मा चाटसु अभिलेख में गुहिल वंशीय भृत्तभट्ट को ब्रह्म क्षत्री की संज्ञा दी जाने के कारण उसका ब्राह्मण से छत्रिय होना सिद्ध करते हैं। इसके साथ-साथ श्री गोपीनाथ शर्मा के अनुसार कई प्राचीन शिलालेख , अभिलेखों में क्षत्रियों के लिए विप्र शब्द का प्रयोग भी इनका ब्राह्मण वंशी होना प्रमाण है। उपयुक्त मान्यताओं के अलावा श्री बृजलाल चट्टोपाध्याय ने राजपूतों को मध्यकाल में सामाजिक आर्थिक प्रक्रिया की उपज कहा है। जबकि श्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय इनकी उत्पत्ति हेतु मिश्रित अवधारणा का उल्लेख करते हैं। जिसमें कुछ राजपूतों की उत्पत्ति भारत में आई विदेशी जातियों के यहां के क्षत्रियों से मेल मिलाप से हुई है ,और कुछ यहीं के प्राचीन क्षत्रियों की संतानें हैं । वी0 ए0 स्मिथ ने अपने एक अन्य मत में राजपूतों को यहां की प्राचीन आदिम जातियों यथा गोंड, खोखर, भर आदि से उत्पन्न हुआ माना है।
अब थोड़ा सा गुहिलों की उत्पत्ति पर भी विद्वानों के विचार देखें।
गुहिल वंश की उत्पत्ति के संबंध में इतिहासकार एकमत नहीं है ।डॉक्टर डी0आर0 भंडारकर इन्हें  विप्र वंशीय नागर ब्राह्मण वंश से उत्पन्न मानते हैं। क्योंकि अभिलेखों में बापा के लिए विप्र शब्द का प्रयोग किया गया है। डॉ गौरी शंकर ओझा इनको सूर्यवंशी क्षत्रियों की संतान मानते हैं। ओझा अपने मत की पुष्टि में कहते हैं कि बप्पा के सिक्कों पर सूर्य का चिन्ह इस बात का प्रमाण है। अबुल फजल ने इन्हें ईरान के बादशाह नौशेखा आदिल का वंशज संतान बताया है। जबकि मुंहनोत नैंसी इन्हें आदि रूप में ब्राह्मण एवं जानकारी से छत्रिय बताते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने गुहिल को विदेशियों की संतान कहा है। इसकी पुष्टि में वे फारसी तवारीखों के वर्णन का उल्लेख करते हैं। डॉक्टर स्मिथ ने भी इनके विदेशी होने की बात कही है। जैन ग्रंथों में गोहिल को वल्लभी के शासक शिलादित्य जो विदेशियों के आक्रमण के दौरान वीरगति को प्राप्त हो गया था ,की रानी पुष्पावती से उत्पन्न संतान बताया गया है। जो गुफा में पैदा होने के कारण  गुहा ,गोहिल या गुहा दत्त कहलाए ।कविराज श्यामल दास जी गुहिलों को वल्लभी से आना स्वीकार करते हैं ।इन्होंने इनको क्षत्रियों की 36 शाखाओं में से एक बताया ।इतिहासकार डॉ गोपीनाथ शर्मा  ब्राह्मण वंशीय मानते हैं। जिन्होंने अपने मत के पक्ष में कहा है कि महाराणा कुंभा द्वारा जो अपनी प्रशस्ति में बप्पा को ब्राह्मण वंशी होना अंकित करवाना इसका एक प्रमाण है। डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा का मत है कि 12 वीं सदी से पहले किसी भी लेख या शिलालेख में गुहिलों को स्पष्ट सूर्यवंशी नहीं कहा गया है । सूर्यवंशी लिखने की परिपाटी 1278 ईस्वी के चित्तौड़ अभिलेख से मानी जा सकती है ।इसके बावजूद भी 17वी सदी तक गुहिल वंश स्वयं को ब्राह्मण वंशीय मानते रहे। इसी कारण इनके अधिकांश प्रशस्ति कारों ने विप्र शब्दों का प्रयोग किया है ।अतः गोपीनाथ शर्मा के अनुसार ब्राह्मण वंश से उत्पन्न संतानें हैं।
    उक्त सारे आंकड़े राजस्थान की कला संस्कृति और इतिहास पुस्तक से राजपूतों का उदय अधिवासन एवं उत्पत्ति के विषय में लेखक डॉ महावीर जैन आदि द्वारा जो लिखा गया है, से प्रस्तुत किए गए हैं। इस पर मेरी स्वयं की कोई टिप्पणी नहीं है।
अत: विद्वान साथियों को पढ़ने के लिए इतने विद्वानों के इतिहासकारों के उदाहरण देते हुए मैंने लिखा है। कुछ गुर्जर साथियों को तो कुछ राजपूत साथियों को आपत्ति हो सकती है।
उपरोक्त सभी लेखकों या इनसे अलग के जो भी लेखक इस संबंध में लिखते रहे हैं उनके अपने अपने तर्कों को लेकर दोनों समुदाय आपस में भिड़ने का काम कर रहे हैं। यह नूरा कुश्ती बंद होनी चाहिए। इनमें से कोई भी लेखक भारत के लाखों करोड़ों वर्ष की इतिहास परंपरा को ना तो समझ पाया और ना ही स्पष्ट कर पाया । भारत की एक अरब 97 करोड वर्ष पुरानी इतिहास गंगा में कितना प्रदूषण आ गया ? कहां-कहां पर कैसे-कैसे गंदे नालों ने इसे प्रदूषित किया ? इस पर ठोस अनुसंधान होने की बजाय किसी जाति को विदेशी ठहराना और किसी को यहां के क्षत्रियों की संतान बताने के बेतुके प्रयासों पर लोग लग गए। जबकि केवल एक ही बात स्पष्ट होनी चाहिए थी कि देश के जितने भी क्षत्रिय वर्ण के लोग हैं उन्होंने समय-समय पर देश सेवा करते हुए अपने क्षत्रिय धर्म का पालन किया। इन्हें देश- काल- परिस्थिति के अनुसार कभी क्षत्रिय कहा गया, कभी गुर्जर कहा गया तो कभी राजपूत कहा गया। मूल रूप में इन सबका एक ही आधार है।
मेरा उद्देश्य लिखने का मात्र इतना है कि बहुत से साथी पुस्तक नहीं पढ़ पाते हैं या नहीं खरीद पाते हैं या किसी भी प्रकार से पुस्तक से दूर रह जाते हैं तो उनको मैं सोशल मीडिया पर आपके समक्ष प्रस्तुत कर दूं। मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं। लेकिन इतिहासकारों ने किस विषय में क्या कहा है ? -इसको आपके समक्ष रखने का मेरा प्रयास मात्र है।
  मैं स्वयं इस मत कहूं कि हम दोनों ही जातियों के लोग क्षत्रिय वर्ण से संबंध रखते हैं। यह प्राचीन भारतवासी आर्यों का एक वर्ण है । जिसका कार्य देश सेवा है। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार हम आज जातियों में बंटकर एक दूसरे को देख रहे हैं। हमें क्षत्रिय वर्ण के नीचे आना चाहिए और देश सेवा के अपने महान कार्य में जुटना चाहिए।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत

Comment: