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संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा

वैद्यराज श्री भट्ट के प्रयासों से कश्मीर फिर से बन गया था स्वर्ग

kashmir1सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता ‘जलियांवाले बाग में बसंत’ में लिखा है :-

‘‘यहां कोकिला नही, काक हंै शोर मचाते।
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।।
कलियां भी अधखिली मिली हैं कंटक कुल से।
वे पौधे, वे पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।।
परिमल हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।।
आओ प्रिय ऋतुराज किंतु धीसे से आना।
यह है शोक स्थान यहां मत शोर मचाना।।’’

सुभद्रा जी की कविता की इसी भावांजलि को यदि हम सिकंदर कालीन कश्मीर पर लागू करके देखें तो सारे शब्द नितांत सटीक बैठेंगे। उस समय कश्मीर वास्तव में ही हिंदू समाज के लिए ‘शोकस्थान’ ही बन गया था। दूर -दूर तक हिंदू के लिए संकट के बादल गरजते दिखाई देते थे।

रत्नगर्भा मां भारती

मां भारती को रत्नगर्भा कहा जाता है, वीर प्रस्विनी कहा जाता है। इसने हर विपरीत परिस्थिति का सामना करने के लिए और हर समस्या का समाधान खोजने के लिए सदा सही समय पर सही लोगों को जन्म दिया है। संभवत: भारत में अवतारवाद की वेद विरूद्घ धारणा का जन्म भी इसी कारण हुआ कि जब लोगों को अपनी समस्याओं के समाधान ढूंढऩे से भी नही मिल रहे थे तब कोई ऐसी महान विभूति इस पावन धरा पर जन्मी कि जिसके कारण लोगों को भीषण और अति विषम परिस्थितियों से छुटकारा मिला। इस दुर्लभ दैवयोग को महिमामंडित करते-करते अवतार वाद तक खींच लिया गया।

मिला कश्मीर को श्रीभट्ट

यही स्थिति कश्मीर की भी बनी। यहां की उन विषम परिस्थितियों में एक महामानव उत्पन्न हुआ जिसका नाम श्रीभट्ट था। वर्तमान प्रचलित इतिहास की दृष्टि से यह नरश्रेष्ठ पूर्णत: ओझल है। पर इसने जो कार्य अपने काल में किया उससे कश्मीर में वसंत लौट गया था। वहां पुन: सदभाव सम्मैत्री, सहृदयता, मानवता, सहिष्णुता, समभाव और सेवा के पुष्प खिले और यह पवित्र वाटिका कश्मीर उस नरश्रेष्ठ के कारण धन्य भाग हो उठी थी।

सुल्तान जैनुल और श्रीभट्ट की बन गयी निराली जोड़ी

इस देश में चंद्रगुप्त के साथ चाणक्य का होना तो एक प्राचीन परंपरा की अटूट श्रंखला है पर एक मुस्लिम सुल्तान जैनुल के साथ श्रीभट्ट का खड़ा होना सचमुच किसी चमत्कार से कम नही है और यही चमत्कार कश्मीर की इस पावन धरा पर हमें देखने को मिला। देश में छद्म धर्मनिरपेक्षता के गीत गाने वाले लोग भी इस जोड़ी की उपेक्षा कर गये यह भी किसी आश्चर्य से कम नही है। संभवत: उन्होंने यह कृत्य इसलिए किया है कि यदि जैनुल-श्रीभट्ट का गुणगान किया गया तो उससे पहले सिकंदर को अपशब्द भी कहने पड़ सकते हैं, जो उन्हें स्वीकार नही है।

वैसे हमारे आज के न्यायशास्त्री यह भी मानते हैं कि न्याय प्रदान करते समय चाहे सौ अपराधी छूट जाएं, परंतु कोई एक निरपराध नही फंसना चाहिए। पर इतिहास में हम इस न्याय-धारणा के विपरीत होता देखते हैं। इसमें फांसी निरपराध ही पाते हैं, और अपराधी न केवल छूटते हैं, अपितु उनका महिमामंडन भी होता है।

सुल्तान हो गया असाध्य रोगी

1420 ई. में कश्मीर का शासक सिकंदर बुतशिकन का एक अन्य लडक़ा बना। जिसका नाम जैन-उल-आबेदीन था। इसे संक्षेप में जैनुल के नाम से पुकारा जाता है। एक बार यह शासक गंभीर रूप से रूग्ण हो गया। यह घटना उसके राजसिंहासन पर विराजमान होने के काल से 1-2 वर्ष पश्चात की ही है। तब उसने अच्छे-अच्छे हकीमों को बुलवाया और उनसे अपना उपचार कराया, परंतु उसका  रोग सेवा था कि ठीक होने का नाम नही ले रहा था।

श्रीभट्ट को बुलाया गया

अंत में सुल्तान ने हिंदू वैद्यों की खोज करायी। परंतु हिंदू तो कश्मीर में ढूंढ़े को भी नही मिल रहा था। इसलिए सुल्तान के लोगों को हिंदू वैद्य ढूंढने में बड़ी समस्या आ रही थी। अंत में एक महान प्रतिभाशाली वैद्य मिल ही गया। उसका नाम श्रीभट्ट था, वह अपने कार्य का कुशल और अनुभवी खिलाड़ी था। वह चुपचाप रोगियों की सेवा किया करता था और उनके उपचार से मिलने वाली सूक्ष्म सी धनराशि से अपनी और अपने परिवार की आजीविका चलाया करता था। श्री भट्ट जितना अपने व्यवसाय में कुशल था, उतना ही कश्मीर में हिंदुओं के साथ हुए अन्याय और अत्याचारों से दुखित भी था।

मां भारती का सच्चा सूपत था श्रीभट्ट

मां भारती के इस सच्चे सपूत को अपने उजड़े चमन कश्मीर को देखकर गहरी वेदना होती थी। परंतु कुछ भी करने की स्थिति में नही था। क्योंकि हिंदू शक्ति का सिकंदर और उसके बेटे अलीशाह ने लगभग सर्वनाश ही कर दिया था।

श्रीभट्ट ने किया सफल उपचार

श्री भट्ट ने सुल्तान का उपचार आरंभ किया। यद्यपि उसे आरंभ में कुछ संकोच भी हुआ, परंतु इसके उपरांत भी उसने पूर्ण मनोयोग से सुल्तान का उपचार आरंभ किया। शीघ्र ही भारत के इस सच्चे सपूत की साधना रंग लाने लगी और सुल्तान का असाध्य रोग दूर होने लगा। अंत में एक दिन वह भीआया कि जब सुल्तान पूर्णत: स्वस्थ हो गया।

इस घटना में वेदना भी है-मां के प्रति। संवेदना भी है-रोगी के प्रति। साधना भी है-व्यवसाय के प्रति और निष्ठा भी है मानवीय मूल्यों के प्रति। यदि श्रीभट्ट चाहता तो या तो उपचार ही नही करता या कोई गलत दवा देकर सुल्तान को मार देता। पर उसने ऐसा नही किया। इससे उसकी साधना की उच्चावस्था का अनुमान लगाया जा सकता है कि वह कितनी उच्च श्रेणी का साधक महात्मा था?

महात्मापन का दिया प्रमाण

श्रीभट्ट ने अपने महात्मापन और देशभक्ति का एक साथ प्रमाण दे दिया। उसे सुल्तान ने हीरे जवाहरात प्रदान कर धनी करना चाहा। पर उस महामानव मनीषी ने उस प्रस्ताव को सविनय अस्वीकार कर दिया। उसका हृदय तो कवि के शब्दों में इन भावों से भरा हुआ था-

‘‘पुण्यभूमि यह हमें सर्वदा है सुखकारी
माता के सम मातृभूमि है यही हमारी।
हमको ही क्या, सभी जगत को है यह प्यारी,
इतनी गुरूता और कहीं क्या गयी निहारी।।
यह वसुधा सर्वोत्कृष्ट है
क्यों न कहें फिर हम यही
जयजय भारतवासी कृती
जय जय जय भारत मही।।’’

कह दी कश्मीर की व्यथा कथा

मां भारती के उस आराधक साधक तपस्वी पूत ने सुल्तान के समक्ष कश्मीर के पीड़ादायक विनाशक की दारूण कथा कह सुनाई। उसने अपने लिए मिलने वाली धनराशि के स्थान पर कश्मीर का पुराना वैभव राजा से मांग लिया। उसने देखा कि सुल्तान का हृदय इस समय द्रवित है। अत: गरम लोहे पर ही चोट करना उचित मानकर श्रीभट्ट ने सुल्तान को भारत के मानवतावाद का ऐसा पाठ पढ़ाया कि सुल्तान पर उसका स्थायी प्रभाव पड़ा। यद्यपि सुल्तान में कुछ ऐसी भावनायें पूर्व से भी विद्यमान थीं जो उसे अपने पूर्ववत्र्ती सुल्तानों से अलग सिद्घ करती थीं, परंतु श्रीभट्ट के उपदेश ने तो उसके जीवन का प्रवाह ही परिवर्तित कर दिया। उसने सुल्तान के समक्ष अपनी ओर से कुछ ऐसी बातें रखीं, जिनसे कश्मीर का प्राचीन वैभव लौट सकता था।

श्रीधर के देशभक्ति पूर्ण सात प्रस्ताव

‘हमारी भूलों का स्मारक : धर्मांतरिक कश्मीर’ के  विद्वान लेखक ने जोनराज की राजतरंगिणी के आधार पर भी भट्ट के निम्नलिखित सात प्रस्ताव इस प्रकार वर्णित किये हैं :-

  1. बिना किसी कारण के मात्र धार्मिक विद्वेष के कारण हिंदुओं का नरसंहार तुरंत बंद किया जाए और बिना जांच पड़ताल के किसी भी दोषी को दण्ड न दिया जाए।
  2. सुल्तान सिकंदर के समय जिन हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया था, उनका पुन: जीर्णोद्घार किया जाए। इस्लाम में बलात् धर्मांतरित किये गये हिंदुओं को पुन: अपने पूर्वजों के धर्म में लौटने की आज्ञा दी जाए। जो कश्मीरी-बंधु भय के कारण कश्मीर छोडक़र अन्य प्रदेशों में जाकर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं, उन्हें पुन: अपने घरों में लाया जाए।

(राजतरंगिणी 1137-10086)

  1. कश्मीर में संस्कृत पाठशालाओं को फिर से प्रारंभ करके हिंदू छात्रों को विकास की ओर उन्नति की पूरी सुविधायें प्रदान की जाएं।
  2. हिंदुओं पर लगे जजिया कर समाप्त करके उन्हें समानता के सारे अधिकार प्रदान किये जायें।
  3. हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए गोवध निषेध किया जाए।
  4. हिंदुओं के यज्ञ इत्यादि धार्मिक रीति-रिवाजों पर लगा प्रतिबंध हटा लिया जाए।
  5. सुल्तानों द्वारा जलाये गये पुस्तकालयों का तुरंत जीर्णोद्घार करवाया जाये।

देशभक्ति की उच्च भावना थी यह

श्रीधर के उक्त सातों प्रस्ताव उसकी देशभक्ति मानवतावाद और उच्च मानवीय संवेदना को प्रकट करते हैं। यदि वह चाहता तो उस समय सुल्तान से स्वयं अपने लिए कुुछ मांग लेता। परंतु उसने अपने लिये न मांगकर सबके लिए मांगा। अपनी युक्ति का अभिलाषी न बनकर वह सबकी मुक्ति का अभिलाषी बना। यही भारत की संस्कृति है और यही ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया’’ की सर्वमंगलमयी और सर्वकल्याण कारी भावना का सार है। श्रीभट्ट का हृदय इस भावना से अभिभूत था और उसका व्यष्टिवाद या निहित स्वार्थमयी व्यक्ति का सहज चरित्र उसके विराट समविष्टवाद की छत्रछाया के नीचे दब गया था। वह मानो एक व्यक्ति के रूप में नही अपितु वह सुल्तान को राष्ट्र की आत्मा के रूप में चेतनित और प्रेरित कर रहा था कि ‘‘सुल्तान अपने राजधर्म को पहचानो, तुम्हारे पूर्वजों ने जो अपराध किये हैं, उनके लिए प्रायश्चित करो और संकीर्णताओं की सारी सीमाओं को तोडक़र नव सृजन का सूत्रपात करो। तुम्हारा कल्याण होगा, इतिहास तुम्हारा ऋणी होगा।’’

सुल्तान पर पड़ा गहरा प्रभाव

श्रीभट्ट के हृदयोदगारों का सुल्तान के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। मानो उसके भीतर आया रोग पूरे कश्मीर का रोग बन गया था। अब सुल्तान को जब अपने आपमें नवजीवन का संचार होता अनुभव हो रहा था तो वह श्रीभट्ट के उद्गारों से प्रेरित होकर अब संपूर्ण कश्मीर में नवजीवन का संचार कर देना चाहता था।

हिंदुओं के उद्घार के लिए सुल्तान ने लिये ठोस निर्णय

सुल्तान ने जनहित के कार्यों को प्राथमिकता के आधार पर लिया और हिंदुओं के प्रति उदारता व सहिष्णुता का व्यवहार करना आरंभ किया। कश्मीर के इतिहास में प्राचीन स्वर्णयुग की आहट होने लगी। पलायन कर दूर-दूर जाकर बस गये हिंदुओं को पुन: कश्मीर में बुलाया गया और उन्हें उनकी संपत्ति लौटायी गयी। जैनुल हिंदू धर्म से प्रभावित हुआ और वह हिंदू धर्मग्रंथों वेदादि का अध्ययन करने लगा। हिंदुओं पर अत्याचार करने वाले लोगों और संगठनों को उसने पूर्णत: प्रतिबंधित कर दिया। जनहित के कार्यों को शासन ने प्राथमिकता दी। बहुत सी बेकार पड़ी भूमि को उसने विशेष प्रयास कर कृषि योग्य बनाने के भागीरथ प्रयास किये और अपनी हिंदू प्रजा को पूर्णत: आश्वस्त किया कि इस समय कश्मीर में सचमुच एक सहिष्णु शासक का शासन है। हिंदुओं में अपने राजा के प्रति सम्मान भाव बढ़ा और वे अपने राजा के प्रति निष्ठावान बने। जिससे कश्मीर का सामाजिक परिवेश भी अच्छा बनने लगा।

श्रीभट्ट का बढ़ गया महत्व

‘शबाबे कश्मीर’ में मुस्लिम इतिहासकार मुहम्मद हीन फाक लिखता है-‘‘राजा को स्वस्थ करने के बाद पुरस्कार न लेने पर राज्य स्तर पर श्रीभट्ट की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी। उसे राजवैद्य और अफसर उल अताब (स्वास्थ्य विभागाध्यक्ष) नियुक्त कर दिया गया। राजा और अपने लोगों पर उसका बड़ा प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव उसने अपने लोगों के पुनर्वास में प्रयोग किया। वह शक्ति और कश्मीर की समृद्घि का इच्छुक था।’’

हिंदुओं का आत्मोत्सर्ग पूछता था प्रश्न

वीर सावरकर ने भारत के कश्मीर सहित अन्य प्रांतों में भी हिंदुओं के आत्मोत्सर्ग के विषय में ‘भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ’: पृष्ठ 26, पर लिखा है-

‘‘सामान्य रूप से यही समझा जाता है कि जौहर की प्रथा केवल राजपूतों में ही विद्यमान थी। परंतु ग्रीक सैनिकों ने भारतीय वीरों के इस आत्मोत्सर्ग से अभिभूत होकर उसका जो वर्णन किया है, उससे स्पष्ट है कि राजपूतों से पूर्व भी अपने देश में भारतीय वीरों में जौहर की तेजस्वी परंपरा कायम थी। जौहर शब्द की उत्पत्ति भी संभवत: जयहर शब्द से हुई हो। समरांगण में जीवन और मृत्यु का सौदा करने वाले भारतीय वीरों के अधिदेव थे-हर अर्थात महादेव। इसीलिए जयहर का घोष करती हुई भारतीय वीरों की वाहिनियां समरांगण में शत्रु सैन्य पर टूट पड़ती थीं। आगे चलकर मराठों का भी रणघोष ‘हर-हर महादेव’ ही प्रचलित हुआ।

युद्घ में पराक्रम प्रदर्शित करते हुए भी जब कभी विदेशी अथवा विधर्मी आक्रमणकारी के सम्मुख पराजय स्वीकार करने का दुर्भाग्यपूर्ण क्षण उपस्थित होता था, उस समय विदेशी विधर्मी आक्रमणकारी की शरणागति स्वीकार करने की अपेक्षा स्वधर्म और स्वाभिमान की रक्षा के लिए आत्माहुति दे देना श्रेयस्कर समझा जाता था। पुरूष जन समरांगण में शत्रु का संहार करते हुए वीरगति को प्राप्त होते थे, तब उनकी वीरांगनायें अपने बच्चों को हृदय से लगाकर ‘जयहर-जयहर’ का घोष करती हुई, स्वयं के द्वारा प्रज्ज्वलित की गयी अग्नि शिखाओं में प्रवेश कर भस्मसात हो जाती थीं। इसी को जौहर कहा जाने लगा। वास्तव में यह वीरता, पराक्रम की स्वाभिमान रक्षक क्षात्र धर्म की तेजस्विता की पराकाष्ठा ही तो थी।

जिन्होंने जौहर व्रत स्वीकार कर अग्नि की लपटों का कवच धारण कर लिया,……। उन तेजस्वी अग्नि शिखाओं के निकट पहुंचते ही उनकी प्रखरता से शत्रु हतप्रभ होकर निराश हो जाता था।’’

श्रीभट्ट ने अग्निशिखाओं के प्रश्नों का दिया उत्तर

ये तेजस्वी अग्नि शिखायें श्रीभट्ट से प्रश्न पूछती थीं। उन प्रश्नों को बड़ी गहराई से श्रीभट्ट ने अध्ययन किया और समय आने पर उनका उत्तर दिया सुल्तान का हृदय परिवर्तन करके।

सुल्तान जैनुल भी एक पुण्यात्मा शासक था। जिस पर इस प्रकार के श्रीभट्ट के उदगारों का प्रभाव पड़ा और उसने केवल श्रीभट्ट  को प्रसन्न करने के लिए ही नही, अपितु वास्तव में मानवतावाद के लिए समर्पित होकर ‘कश्मीर परिवर्तन’ का व्रत धारण कर लिया। उसके सदभाव और विवेक से कश्मीर में शांति और समृद्घि की बयार बह चली थी।

जोनराज अपनी ‘राजतरंगिणी’ में लिखता है :- ‘‘संतों के आश्रय में जिस प्रकार शेर अन्य पशुओं पर आक्रमण नही करता उसी प्रकार सतर्क तुर्कों ने अब पहले की भांति ब्राह्मणों का दमन करना बंद कर दिया।  सूर्य की तरह प्रखर राजा ने उन प्रतिभा संपन्न पुरूषों (अर्थात हिंदुओं) पर अपनी कृपा दृष्टि डाल दी, पहले जिनका अस्तित्व तक संकट में डाल दिया गया था।’’

साम्प्रदायिक दृष्टिकोण और राष्ट्रधर्म

इस प्रकार जोनराज की स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि श्रीभट्ट के उपदेश के पश्चात जैनुल कितना उदार और सहिष्णु होकर शासन सत्ता चलाने लगा था। एक हिंदू ने अपने राजा के प्रति अपने लेखन में उदार शब्दों का प्रयोग किया है। उसके उदार शब्द तब और भी अधिक स्वीकार्य हो जाते हैं जब वही लेखक पूर्व के सुल्तानों के लिए ऐसे उदार शब्दों का प्रयोग नही करता है। जैनुल के प्रति राजतरंगिणी के लेखक की उदारता से एक और बात स्पष्ट हो जाती है कि भारत के किसी लेखक का उद्देश्य किसी अन्य धर्मी शासक को नीचा दिखाना नही होता है। यदि शासक राजधर्म और राष्ट्रधर्म का पालन करता है, तो उस लेखक की लेखनी उस राज्य के लिए प्रशंसा करने वाली भी हो सकती है। इसका अभिप्राय है कि मानवतावाद के महिमामण्डन में संप्रदाय कहीं आड़े नही आता।

वास्तविक राष्ट्रधर्म

राजा का अपना मत, पंथ, संप्रदाय या मजहब चाहे जो हो उसका राजधर्म या राष्ट्रधर्म तो सदा और हर स्थिति-परिस्थिति में एक ही रहता है-प्रजा पालन। यदि राजा अपने इस राजधर्म और राष्ट्रधर्म पर खरा उतरता है तो भारत के किसी भी विद्वान को उसकी व्यक्तिगत पूजा पद्घति से ना तो कुछ लेना देना होता है और ना ही उससे कोई द्वेष या घृणा होती है। लेखक का धर्म यही है, वास्तविक पंथ निरपेक्षता भी यही है, राष्ट्रधर्म भी यही है और वास्तविक मानवतावाद भी यही है।

इतिहासकार अबुल फजल का कथन है…..

इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी पुस्तक ‘आईने अकबरी’ में श्रीभट्ट के विषय में लिखा है :-

‘‘कश्मीर के स्वर्णिम इतिहास में विशेषकर मध्यकालीन इतिहास के संदर्भ में जिस गौरव के साथ सुल्तान जैनुल आबेदीन का यश चिरस्मरणीय बना, यदि श्रीभट्ट का समागम उसे नही मिलता तो संभवत: वह भी इतिहास की उसी धारा में बह जाता जिस कलंकित धारा में उसके बाप-दादा बह गये थे। यही कारण है कि इतिहासकार जोनराज यह लिखने के लिए बाध्य होते हैं कि सुल्तान जैनुल आबेदीन श्रीभट्ट की प्रत्येक बात को उदारवादी ऐतिहासिक प्रथा में कार्यान्वित करने के लिए सदा ही मुखापेक्षी होकर रहे हैं।’’

जैनुल का होना चाहिए महिमामंडन

जो शासक बिना किसी रागद्वेष के न्याय करते हैं और अपनी प्रजा में यश प्राप्त करते हैं, वास्तव में सच्चे अर्थों में शासक कहे जाने के अधिकारी वही होते हैं। भारत के इतिहासकारों को भारत के ऐसे नररत्नों की खोज करनी चाहिए जिन्होंने अपने समय में अपनी प्रजा के साथ उच्चादर्शों से युक्त मानवीय व्यवहार किया। ऐसे प्रयासों से ही सर्वपंथ (संप्रदाय) समभाव की आदर्श स्थिति की स्थापना की जानी संभव है।

जोनराज का कहना है……

तस्यकीर्ति सुख राज्ञ: प्रजानां हर्ष संतति:।
प्रारोहस्त्रीणि विस्फोटे तत्रैकस्मिन पाटिते।।

(राज. 815)

अर्थात उस भयंकर विषैले फोड़े के उपचार (राजा जैनुल का असाध्य रोग छाती में निकला फोड़ा था) के उपरांत एक साथ तीन सुखदायक बातों का समाधान हो पाया। श्रीभट्ट के इस रामबाण उपचार के कारण सर्वत्र उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी अर्थात सब लोग उसके प्रशंसक हो गये। सुल्तान जैनुल को इस प्राणघातक रोग से मुक्ति मिली और इन दोनों के फलस्वरूप हिंदू प्रजा का भविष्य बहुत ही उज्ज्वल दिखाई देने के कारण उन्हें अपार हर्ष भी हुआ। जोनराज का यह भी कथन है कि सुल्तान जैनुल की धर्मनिरपेक्ष तपस्या श्रीभट्ट की सफलनीति और प्रजाजनों के भाग्य के फलस्वरूप इस युग के प्रशासन, में कहीं भी कोई विघ्न नही हुआ।’’

हिंदू होता है स्वभावत: सहिष्णु

जब शासन की नीतियों में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: और सर्वे सन्तु निरामया:’ का भाव प्रति ध्वनित होने लगता है तब कहीं से भी किसी अप्रिय घटना के घटित होने या विघ्न उत्पन्न होने का प्रश्न ही उत्पन्न नही होता। वैसे भी लगभग हर मुस्लिम इतिहासकार ने इस बात को स्वीकार किया है कि हिंदू स्वभावत: असहिष्णु नही होता। वह केवल किसी को भगाने के लिए या मारने-काटने और अपना  मत उस पर बलात थोपने के लिए कभी संघर्ष नही करता है। अत: जब कश्मीर के हिंदुओं का वहां पुनर्वास होने लगा और सर्वत्र शांति का वास हो गया तो हिंदू की ओर से कोई ऐसी घटना नही हुई जिससे साम्प्रदायिक हिंसा फेेलती। यह इस बात का प्रमाण है कि हिंदू स्वभावत: सहिष्णु होता है।

श्रीभट्ट का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य

श्रीभट्ट एक अच्छा राजनैतिक और सामाजिक चिंतक भी था। उसने राज्य प्रशासन में लोगों को योग्यतानुसार नियुक्ति दिलाने का भी प्रशंसनीय कार्य किया। हिंदुओं को उसने नियुक्तियां ही, नही दीं, अपितु उन्हें तत्कालीन शासन व्यवस्था के साथ मिलकर चलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

उसके प्रभाव से भारतीयता और राष्ट्रवाद के कट्टर शत्रुओं को भी अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा और अब प्रशासन में भी उसने राजा को अपनी नीतियों को लागू कराने के लिए मना लिया। जिससे प्रशासन में धर्म, जाति, लिंग, वर्ण, वर्ग आदि के भेद के बिना नियुक्तियां होने लगीं। इस प्रकार एक वास्तविक लोकतांत्रिक व्यवस्था श्रीभट्ट के प्रयासों से कश्मीर में स्थापित हो गयी।

क्रांतिकारी सुधारक था श्रीभट्ट

डा. टी.एन गंजू अपनी पुस्तक महाश्री शिर्यभट्ट में लिखते हैं :-‘‘संभवत: इन उपेक्षित कश्मीरी हिंदुओं के समाजशास्त्रीय विकास  के संदर्भ को विश्लेषित करना महत्वपूर्ण नही रहा हो, परंतु महाश्री शिर्यभट्ट के इस क्रांतिकारी सुधार ने भावी कश्मीर के इतिहास के ही नही अपितु भारत के समस्त हिंदू समाज को एक वैज्ञानिक समाजशास्त्री की भांति अपने युग से एक हजार वर्ष आगे की ओर देखकर वर्णविहीन समाज का गठन किया। आश्चर्य तो यह है कि जिस सुधार के शंखनाथ को शतकों के उपरांत भक्ति आंदोलन, ब्रह्मसमाज, आर्य समाज और विश्व हिंदू परिषद आदि ने कार्यान्वित करना चाहा उसको युग दृष्टा श्रीभट्ट ने 1420 ई. में त्रिकालदृष्टा की तरह देखकर कदम उठाया था।’’

डा. गंजू का यह भी कथन है-‘‘जैनुल ने एक ऐसा मंत्री (श्रीभट्ट के रूप में) बनाया था जो हर विभाग का निरीक्षण कर सके और जिसकी नजर और पहुंच हर विभाग तक थी।

….शिर्यभट्ट ने अपनी विलक्षण और अप्रतिम प्रतिभा से सुल्तान को प्रभावित ही नही मोहित भी कर लिया था। अपनी असाधारण प्रतिभा के फलस्वरूप मुसलमान वजीरों और मध्य एशिया से आये हुए सैय्यदों के ईष्र्यालु प्रभाव को उसने धूमिल कर दिया था।’’

ऐसे युग पुरूष श्रीभट्ट का पूरा कश्मीर ऋणी है और एक पुण्यस्मारक भी। पता नही हमारा इतिहास इस सच को कब अपनी स्वीकृति प्रदान करेगा? क्रमश:

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