भारतीय इतिहास का एक रहस्य, पानीपत का युद्ध – १७६१

लेखक – स्वामी ओमानंद सरस्वती,हरयाणा निर्माता
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा

१४ जनवरी १९६१ को पानीपत के प्रसिद्ध युद्ध को, जो मराठों और अहमदशाह अब्दाली के मध्य हुआ, पूरे २०० वर्ष हो गये। पंजाब सरकार के माननीय राज्यपाल श्री नरहरि विष्णु गाडगिल ने घोषणा की है कि “पानीपत के युद्ध की द्वितीय शताब्दी इस वर्ष मनाई जायेगी तथा इस विषय में एक पुस्तक भी प्रकाशित की जायेगी”। ऐसी अवस्था में इसी पानीपत के युद्ध के विषय में एक रहस्य का उद्घाटन करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। वैसे तो मैं पानीपत के सभी युद्धों पर विस्तार पर लिखना चाहता हूँ, परन्तु वह ईश कृपा से फिर कभी होगा। अब तो सभी इतिहास लेखकों की सेवा में इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि पानीपत की युद्धभूमि से मराठा सेनापति श्री सदाशिवराव भाऊ किस प्रकार लुप्त हो गया और उसने बहुत वर्षों तक हरयाणा प्रान्त में साधु बनकर गुप्त रूप से रहस्यपूर्ण जीवन व्यतीत किया। जिसके विषय में आज तक सभी इतिहास लेखक अंधकार में हैं। आज सर्वप्रथम मैं इतिहासप्रमियों तथा इतिहासज्ञों की सेवा में अनेक वर्षों की खोज के पश्चात् संक्षेप में लिख रहा हूँ कि मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ पानीपत के युद्ध में मारा नहीं गया अपितु वह लड़ता लड़ता सांघी ग्राम (जि० रोहतक) में पहुंच गया और वहां साधु बनकर अनेक वर्षों तक जीवित रहा तथा अनेक ग्रामों में भ्रमण करता रहा।

जितने भी इतिहास लेखक हैं, प्रायः यही लिखते हैं कि भाऊ लड़ते लड़ते मारा गया, कुछ यह लिखते हैं – न मालूम कहां चला गया। उदाहरणार्थ कुछ के मत उद्धृत करता हूँ –

त्र्यम्बक शंकर शेजलाल्कर बी० ए० जिन्होंने पानीपत १७६१ नाम की पुस्तक बड़े पुरुषार्थ और खोज करके लिखी, वे लिखते हैं कि – नाना फडनवीस अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि

“भाऊ अन्त तक लड़ता रहा जबकि केवल ५० घुड़सवार सैनिक उसके पक्ष में लड़ रहे थे। तत्पश्चात् नाना फडनवीस उसे छोड़कर पानीपत की ओर चल दिया। युद्ध का अन्तिम समय था, उस समय दोपहर पश्चात् ४ बजे थे। भाऊ का क्या बना, यथार्थ में कोई व्यक्ति नहीं जानता।”
आधुनिक इतिहास के लेखक प्रो० आशीर्वादीलाल, अध्यक्ष इतिहास विभाग, आगरा कालिज, मुगलकालीन भारत में लिखते हैं –
“यह पानीपत का युद्ध पूर्णरूप से निर्णायक सिद्ध हुआ, मराठा सेना तथा उसके नायकों का सर्वनाश हो गया था। मराठा शक्ति का इतना अधिक विनाश हो गया था कि ३ महीने तक तो पेशवा को हताहतों का वास्तविक ब्यौरा तथा भाऊ एवं दूसरे नेताओं की मृत्यु का समाचार मिल ही न सका।”
श्री देवतास्वरूप भाई परमानन्द जी एम० ए० तारीख महाराष्ट्र में लिखते हैं –

राजकुमार विश्वासराव को एक गोली लगी, जिससे वह बुरी प्रकार से जख्मी हो गया। विश्वासराव महाराष्ट्र में सबसे सुन्दर माना जाता था। सदाशिवराव उससे बहुत स्नेह करता था। उसी ने इसे युद्धकौशल सिखाया था। विश्वासराव को गिरता देख भाऊ पर विद्युत् सी गिर गई। उसका साहस टूट गया। उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी और अपनी स्त्री पार्वती देवी को उसने कहा अब वह किस मुंह से पेशवाओं के सम्मुख जायेगा। रोते हुये और सिसकियाँ लेते हुए उसने एक बार विश्वास! विश्वास! करके पुकारा। मरते हुये राजकुमार ने अपनी आँखें खोलीं और वीरों के समान उत्तर दिया – “प्रिय चाचा! अब मेरी अवस्था पर दुःखी होने की क्या आवश्यकता है? मुझे भय है जब आप यहाँ बैठकर ऐसे करेंगे तो युद्ध का परिणाम हमारे पक्ष में अच्छा न होगा। सदाशिवराव अपने सैनिकों को ‘काटो, मारो’ के शब्दों द्वारा उत्साहित करते करते आगे बढ़ रहा था। बोलते बोलते उसकी आवाज बैठ गई थी। वह विवश हो अपने संकेतों से ही सैनिकों को उत्साहित करता हुआ मृत्यु के मुख में आगे बढ़ा। मुकुन्दशिन्दे ने इसके घोड़े की बाग पकड़ ली और कहा – “इस समय पीछे हट जाने में ही बुद्धिमत्ता है”। किन्तु भाऊ नहीं माना। वह खड्ग हाथ में लिये शत्रुओं के मध्य में घुस गया, अपने कथन के अनुसार लड़ता हुआ न मालूम किधर चला गया (गुम हो गया)।
युद्ध के पश्चात् क्या हुआ, इस विषय में भाई परमानन्द जी आगे लिखते हैं –

“विश्वासराव का शव अब्दाली के पास लाया गया, कई पठान इसमें भूसा भरकर काबुल भेजना चाहते थे। किन्तु शुजादोल्ला के एक हिन्दू साथी ने ३ लाख रुपये देकर विश्वासराव, तुकाजीशिन्दे, सन्ताजी बाघ, और जशवन्त पुवाड़ के शव ले लिये और वैदिक रीति से जला दिये।”
युद्ध के पश्चात् पेशवा ने हिन्दू राजाओं को पुनः संगठित होने के लिये पत्र लिखा। इस विषय में भाई परमानन्द जी लिखते हैं –

“पानीपत के पराजय होने पर सभी हिन्दू राजाओं को उत्साहवर्धक पत्र लिखे। जिसमें यह लिखा कि – ऐसे समय में जबकि हिन्दू धर्म और हिन्दुओं को, हिन्दू जाति के शत्रु इन्हें नष्ट करने के लिये अपनी शक्ति को संगठित कर रहे हैं, हिन्दुओं को भी उचित नहीं है कि वे एक दूसरे से पृथक् रहकर अपने सर्वनाश की रीति को धारण करें। उन सबको स्वतन्त्रता युद्ध में सम्मिलित होने के लिये आमन्त्रित किया, और उनको विश्वास दिलाया कि यद्यपि पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय हुई है, जिसमें मेरा युवा पुत्र मारा गया और मेरे भाई (सदाशिवराव भाऊ) और जनकोजी जैसे सेनापतियों का कुछ पता नहीं लगता। किन्तु इतने पर भी मैं अब्दाली की इच्छाओं को पूर्ण न होने दूंगा। वह मुगलिया राज्य के खण्डहरों पर अफगानी राज्य की आधारशिला रखने में सफल न हो सकेगा।”
पानीपत १७६१ नामक पुस्तक का लेखक १९३५ में इसी खोज में पानीपत तथा वहाँ के निकट के ग्रामों में घूमा। भाऊ की लड़ाई के गीत गाने वाले हिन्दू और मुस्लिम जोगियों से भी मिला। उनसे भाऊ की लड़ाई की गाथा लिखकर १९४३ में पूना दक्कन कालिज से प्रकाशित बुलेटिन में इसे प्रकाशित भी कराया। किन्तु अपनी थोड़ी खोज के कारण वह इस सत्य पर विश्वास न कर सका कि सदाशिवराव भाऊ पानीपत युद्ध में मारा नहीं गया, अपितु वह अनेक वर्षों तक जीवित रहा। ऐसा भी प्रतीत होता है कि उसे, उसकी अपनी खोज में सहायतार्थ कोई योग्य सहायक भी नहीं मिला। द्वितीय, हमारे जोगी जो गाते हैं, वे कथा को पौराणिक रूप देकर उपन्यास का ढंग बना देत हैं। अतः उन जोगियों द्वारा अतिशयोक्तिपूर्ण कथा को सुन आधुनिक इतिहास लेखक उन कथाओं पर विश्वास नहीं करता। फिर १७५ वर्ष पश्चात् कोई किसी ऐतिहासिक सत्य की खोज के लिये किसी अपरिचित प्रान्त में आये तो उसको कितनी कठिनाइयाँ इस कार्य में आयेंगी, यह कोई इस प्रकार की खोज करने वाला व्यक्ति ही अनुमान कर सकता है। कुछ व्यर्थ बातें बनाने वाले गप्पी लोग भी भ्रम में डाल देते हैं। और दो शती पश्चात् किसी बीती हुई घटना को बताने वाले व्यक्ति भी दुर्लभ होते हैं। थोड़ी ही दिनों में ऐसी घटनाओं की खोज भी नहीं हो सकती।

मैं इसी प्रान्त का निवासी, और रात दिन यहीं विचरने वाला, बाल्यकाल से ही पैतृक संस्कारों से मुझे इतिहास में रुचि और प्रेम है, और कुछ ऐतिहासिक खोज में स्वयं यत्नशील हूँ। अतः मुझे आज अनेक वर्षों की खोज के पश्चात् यह निश्चय हुआ है कि सदाशिवराव भाऊ युद्ध में मारा नहीं गया, अपितु जीवित रहा तथा उसने हरयाणा प्रान्त में साधु बनकर भ्रमण तथा निवास किया। जोगियों की कथा के आधार पर श्री त्र्यम्बक शंकर शेजवाल्कर पानीपत १७६१ में इस प्रकार लिखते हैं –

“पानीपत के आसपास ग्रामों में घुमक्कड़ हिन्दू और मुस्लिम जोगी आज भी भाऊ के युद्ध के विषय में गाथाएँ गाते हैं। यह इसका जीता जागता प्रमाण है कि इस युद्ध का प्रभाव विचित्ररूप से पड़ा। और जो था भी स्वाभाविक। इसी के परिणामस्वरूप अनेक कथाएँ इस युद्ध के विषय में बनीं, और जो पूना दक्कन कालिज अनुसंधान संस्था की ओर से बुलटिन में प्रकाशित हुईं। उनमें यह नहीं लिखा कि भाऊ की मृत्यु हुई, किन्तु यह लिखा है कि वह भाऊपुर ग्राम में चला गया, जो पानीपत से दक्षिण-पश्चिम में १२ मील की दूरी पर स्थित है। वहां वह बहुत समय तक एक फकीर (साधु) के पास रहा। उसने अपने आप को प्रकट नहीं किया, पूर्णतया अपने आपको छिपाकर रखा। अपने नाम, स्थान आदि का परिचय नहीं दिया। तत्पश्चात् वह यमुनापार कैराना (जि० मुजफ्फरनगर) में गया। कुछ वर्ष के पश्चात् वह कहां गया, कहां रहा। पानीपत के निकट निवासियों से इस विषय में कोई पता नहीं चलता। उसके आगे जीवन के विषय में वहां के लोग कोई परिचय नहीं देते।”
भाऊ पानीपत के युद्ध में नहीं मारा गया, और पीछे बहुत काल तक जीवित रहा यह विश्वास प्रायः सारे ही भारतवर्ष की जनता में फैल गया था। और परम्परा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहा। हमारा विचार है कि भाऊ की कथा करने वालों ने यह प्रचार कर दिया कि भाऊपुर ग्राम जिसमें भाऊ बहुत दिन तक रहा, भाऊ के कारण ही इसका नाम भाऊपुर पड़ गया, किन्तु यह ग्राम भाऊसिंह नामक किसी व्यक्ति के नाम पर बसा है, और इसका सम्बन्ध मराठा सेनापति भाऊ के नाम गाने वालों ने प्रसिद्ध कर दिया।

इस लेखक को यह जोगियों द्वारा गाई जाने वाली कथा काल्पनिक, पौराणिक कथा के समान दिखाई दी। क्योंकि उसे इसके सत्य मानने के लिये पूर्ण सामग्री नहीं मिली। वह कथा मेरे सम्मुख नहीं जो दक्कन कालिज पूना की संस्था ने प्रकाशित की है। अतः इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता। मुझे तो केवल यह दिखाना था कि सारे भारतवर्ष में यह समाचार फैल गया था कि सदाशिवराय युद्ध में मारा नहीं गया, किन्तु वह जीवित था। स्वयं पेशवा भी कई मास पश्चात् राजाओं को अपने पत्र में लिखते हैं कि – मेरे भाई सदाशिवराव भाऊ का पता नहीं, वह कहाँ गया।

पाठकों ने मेरे लेख में यह भी पढ़ लिया कि ‘विश्वासराव’ आदि का शव तो पानीपत के युद्ध में मिल गया, तथा कई अन्य मराठा सरदारों के शव भी मिले। किन्तु भाऊ का शव नहीं मिला। यद्यपि बात यह है कि जब ‘विश्वासराव’ मारा गया और ‘सदाशिवराव भाऊ’ अपने हाथी से उतरकर घोड़े पर चढकर पागलों के समान लड़ने लगा। उसी समय इसी की सेना में से २ सहस्र वा ५ सहस्र मुस्लिम सैनिकों ने धोखा देकर उल्टा इसी के शिविर में स्त्री, बालकों और भृत्यों पर, जो डेढ़ लाख से भी अधिक थे, आक्रमण कर दिया। इससे युद्ध का पाशा पलट गया, मराठा सेना में भगदड़ पड़ गई। अपने सभी बालकों के बचाने की भी चिन्ता शिर पर सवार हुई। स्वयं भाऊ और विश्वासराव की धर्मपत्नी भी वहीं थी। उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध जो भी हो सकता था, उसे करके भाऊ अन्तिम निर्णय के लिये आगे बढ़ा। उस समय जब यह अन्धा होकर मुसलमानों की सेना में मारकाट करता हुआ अन्दर घुस रहा था, उसी समय मुकुन्द शिंदे ने इसके घोड़े की लगाम पकड़कर रोकना चाहा और कहा – “इस समय पीछे हट जाने में ही बुद्दिमत्ता है” किन्तु वह नहीं माना। किन्तु जब इसके सभी सरदार मारे गये और केवल इसके ५० सैनिक ही रह गये, तब नाना फड़नवीस, माधव सिन्धिया आदि प्राण बचाने के लिये भाग गये। इब्राहीम गार्दी का तोपखाना भी ठंडा हो गया और गार्दी स्वयं घायल होकर बन्दी बना। भाऊ का शिविर लुट गया तब इसका विचार बदला और इसने बच निकलने में ही कल्याण समझा। यह लड़ता लड़ता १५ कोश दक्षिण-पश्चिम की ओर चला गया। इसके पीछे इतिहासकारों को कुछ पता नहीं। वे बिना खोज किये मनमानी लिखते रहे। किसी ने लिख दिया वह मारा गया, किसी ने यह लिखा कि वह लुप्त हो गया।

भाऊ जब लड़ता लड़ता १५ कोश से भी आगे निकल गया, और लड़ने वाले शत्रु भी पीछे रह गये तब वह अपने घोड़े पर शस्त्रादि से सुसज्जित सांघी (रोहतक) ग्राम में पहुंच गया। वहां एक बुढ़िया जो उस ग्राम की सीमा पर मिली, उस ग्राम के विषय में तथा अपने ठहरने के लिये ग्राम के श्रेष्ठ चौधरियों के नाम पूछकर वह अपने घोड़े को जंगल में ही छोड़कर सुखदेव साध जो उस समय अपने ग्राम सांघी में ही नहीं, किन्तु आसपास के ग्रामों में प्रतिष्ठित था, और पञ्चायती चौधरी था, उसके पास चला गया, तथा उससे एकान्त में ही बातचीत कर अपना सब रहस्य सुखदेव जी को ही बता दिया।

सुखदेव जी बड़े चतुर व्यक्ति थे। उन्होंने बहुत समय तक किसी को इसका पता नहीं चलने दिया कि वह कौन व्यक्ति है। चौधरी सुखदेव जी की सम्मति से भाऊ ने अपने गेरवें (काषाय) कपड़े रंगकर साधु वेष धारण कर लिया। लोग उसका अच्छा आदर करने लगे। भोजन छादन की सब सुविधाएँ साधु वेष होने से मिल गईं। सुखदेव जी की प्रेरणा से भोजन के लिये विशेष निमन्त्रण भी मिलने लगे। जनता में अच्छा आदर सम्मान हो गया। आसपास के ग्रामों में भी भ्रमणार्थ जाने लगे, किन्तु मुख्य निवास स्थान ग्राम सांघी में ही रखा। सुखदेव साध को वह अपने गुरु के समान मानकर आदर करते थे। उनके रहने का स्थान भी ग्राम वालों ने ग्राम से बाहर बना दिया।

कुछ काल पश्चात् मल्हाराव होल्कर हरयाणे से चौथ लेने के लिये सेना सहित आया। किन्तु पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के कारण मराठों का प्रभाव इस प्रान्त में समाप्त हो गया था अतः किसी भी ग्राम ने सहर्ष (बिना लड़े) चौथ का धन नहीं दिया। बड़ी कठिनाई सामने आई। होल्कर ने लोगों से पूछा कि चौथ का धन कैसे इकट्ठा किया जाये? सभी स्थानों से यही उत्तर मिला कि यदि ग्राम सांघी चौथ दे देवे तो सारा प्रान्त चौथ दे देगा। होल्कर अपनी सेना सहित सांघी ग्राम में पहुंच गया। वहाँ के १० नम्बरदारों को कर देने के लिये बुलाया। किन्तु सबने स्पष्ट निषेध कर दिया। चौथ की प्राप्ति नहीं हुई। अन्त में सारे प्रान्त के योद्धा वहीं सांघी में एकत्रित हो गये। ६ मास तक होल्कर के साथ युद्ध हुआ। गुप्तचरों ने होल्कर को यह सूचना दे दी कि भाऊ जीवित है और इसी ग्राम में रहता है। और वही चौथ नहीं देने देता। होल्कर, सदाशिवराव भाऊ (जो साधु वेश में था) से मिलने गया। दोनों ने एक दूसरे को पहचान भी लिया था। किन्तु परस्पर इस भेद को छिपाये रहे।

सदाशिवराव भाऊ ने (जो साधु वेश में था) हरयाणे की पञ्चायती सेना का नेतृत्व किया, और अनुशासन में रखते हुये ६ मास तक युद्ध को चालू रखा। जब भाऊ ने हरयाणे की सेना को अनुशासन में रखकर लड़ाया, तब लोग समझ गये कि यह तो साधुवेश में कोई राजा वा सेनापति है। फिर भेद खुला कि यह तो साधु वेष में प्रसिद्ध मराठा वीर सदाशिवराव भाऊ पानीपत युद्ध का सेनापति है। होल्कर ने अन्त में संधि करके बिना कुछ लिये मुस्लिम ग्राम कलानौर और इस्मायला (समाल) जो उस समय रांघड़ों और बलोचों की बस्ती थीं, इन दोनों ग्रामों को आक्रमण कर तोड़ डाला। अच्छी लूट खसोट कर इस प्रान्त से लौट गया।

इन मुस्लिम ग्रामों को तोड़ने में हरयाणे के लोगों ने भी होल्कर की सहायता की थी। होल्कर तो चला गया लेकिन भाऊ साधुवेश में यहीं रहा। आगे चलकर वह नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गया। बाबा मस्तनाथ, जो बोहर के नाथों के मठ के संस्थापक थे, उन दिनों घूमते हुये कथूरा ग्राम से अपनी मण्डली सहित सांघी पहुंचे। भाऊ उनसे प्रभावित हुआ और उनका शिष्य बन गया। वे उसे साथ ले गये और उसे दर्शन – अर्थात् कान फाड़कर मुद्रायें पहना दी और उसे अपना शिष्य बनाकर नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित कर लिया और भौमनाथ नाम रख दिया। इसी नाम से वे इस प्रान्त में प्रसिद्ध हो गये और उन्होंने अच्छा यश प्राप्त किया।

वे अधिक तो सांघी ग्राम में ही रहे किन्तु समय-समय पर बाहर ग्रामों में भी घूमने जाते थे। वे धामड़ आदि ग्रामों में भी आये। इस प्रकार अनेक वर्षों तक जीवित रहे, अन्त में सांघी ग्राम में ही उनकी मृत्यु हुई। उनकी समाधि नाथों के मठ में सांघी ग्राम में बनी हुई है। प्रायः सभी पुराने वृद्ध सज्जन जानते हैं और श्रद्धा से बताते हैं कि यह भौमनाथ वा भावना जोगी की समाधि है।

मैंने जानबूझकर ही बहुत संक्षेप में लिखा है। इस विषय में मैंने पर्याप्त खोज की है, किन्तु विस्तार से पुस्तक रूप में फिर कभी लिखूँगा।

(पंजाब के राज्यपाल श्री नरहरि विष्णु गाडगिल (जो महाराष्ट्र से थे) ने सांघी में जाकर अपने बच्चों का मुण्डन कराया था। वे भी यही मानते थे कि सदाशिवराव भाऊ की समाधि सांघी ग्राम में ही है। सदाशिवराव भाऊ द्वारा लिखित तीन पत्र और उनके जूतों की प्रतिकृति गुरुकुल झज्जर के संग्रहालय में है – सम्पादक, सुधारक (मासिक पत्रिका)
[18/08, 09:21] +91 93106 79090: मराठाशासकवीरपेशवाबाजीराव_प्रथम का जन्म सन् 1700 में आज के दिन ही हुआ था ॥

बाजीराव प्रथम मराठा साम्राज्य का महान् सेनानायक था। वह बालाजी विश्वनाथ और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा पेशवा (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को ‘बाजीराव बल्लाल’ तथा ‘थोरले बाजीराव’ के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया।

योग्य सेनापति और राजनायक

बाजीराव प्रथम एक महान् राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-

“आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।”

इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-

“निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।”

राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

दूरदृष्टा

बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ‘हिन्दू पद पादशाही’ स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।

साहसी एवं कल्पनाशील

बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है।

साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया।

अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- “हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।” बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया।

उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।

‘हिन्दू सत्ता का प्रचार”

हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा।

गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।

सफलताएँ

बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-

शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।

शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।

जीते गये प्रदेशों को वापस करना।

युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।

छत्रपति शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई।

इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय ‘पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।’ 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।

दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है।

मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।

निज़ामुलमुल्क पर विजय

बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा।

निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-

बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।

बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।

पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।

वीरगति

इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया।

अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, 28 अप्रैल, 1740 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।

मराठा मण्डल की स्थापना

बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था।

इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़, इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था।

लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।

मराठा शक्ति का विभाजन

बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए।

इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था।

उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।

विलक्षण व्यक्तित्व

बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था।

उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह ‘लड़ाकू पेशवा’ के नाम से भी जाना जाता है।

 

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