डा. भरत झुनझुनवाला
कृषि उत्पादों के मूल्य पिछडऩे के कारण खेती घाटे का सौदा होती जा रही है। फलस्वरूप किसान ऋण लेने को मजबूर होता जा रहा है। ऋण लेने के बाद वे ब्याज और बीमा के प्रीमियम भी अदा करते हैं। उनकी आय पहले ही कम थी। अब उसमें एक हिस्सा सरकारी बैंकों तथा बीमा कंपनियों के हिस्से चला जाता है। किसान गरीब होता जा रहा है। किसान को राहत पहुंचानी है, तो केंद्र सरकार से कृषि मूल्यों में महंगाई से अधिक वृद्धि करनी चाहिए। तब किसान को मोबाइल खरीदने को पैसा होगा और ऋण लेने और बीमा की जरूरत नहीं रह जाएगीज्केंद्र सरकार ने फसल बीमा पर दी जाने वाली सबसिडी को बढ़ा दिया है। अब किसानों द्वारा दिए गए प्रीमियम पर 40 से 75 प्रतिशत तथा ज्यादा जोखिम वाली फसलों पर 75 प्रतिशत सबसिडी मिलेगी। पूर्व में सबसिडी की मात्रा कम थी। केंद्र सरकार की मंशा अच्छी है। प्राकृतिक कारणों से फसल बर्बाद होने पर किसान को बीमा से मुआवजा मिल जाएगा और वह अपनी जीविका चला सकेगा। परंतु इसी प्रकार की बीमा योजनाएं पूर्व में फेल हुई हैं, चूंकि मूल समस्या प्रीमियम की नहीं है, परंतु बीमा कंपनियों की कार्य प्रणाली की है। वर्तमान योजना में सबसिडी बढ़ाने से बीमा कंपनियों की कार्य प्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं होगा। इसलिए मूल समस्या बनी रहती है और यह योजना न केवल फेल होगी, बल्कि बीमा कंपनियों को फर्जीबाड़ा करने के अधिक प्रलोभन मिल जाएंगे। बीमा की मुख्य समस्या कंपनी की नौकरशाही की है। मेरी आल्टो कार का मैंने कंप्रिहेंसिव इंश्योरेंस कराया था। एक छोटी दुर्घटना हो गई। मैंने वर्कशाप से एस्टीमेट बनवाया और क्लेम दाखिल किया। सर्वेयर साहब के आने के समय गाड़ी को लेकर वर्कशाप पहुंचा। निर्धारित समय के दो घंटे के बाद सर्वेयर साहब पहुंचे। जांच करने के बाद गाड़ी की मरम्मत कराई। दोबारा सर्वेयर साहब द्वारा जांच की गई। उन्होंने मुझसे लिखवा लिया कि जो क्लेम दिया जाएगा मुझे स्वीकार होगा। इस पूरी प्रक्रिया में मुझे 10 दिन लग गए। इस अवधि में मुझे टैक्सी का खर्च वहन करना पड़ा।
मान लीजिए पूर्व में किसान की आय 50,000 रुपए तथा यूरिया और सिंचाई में खर्च 20,000 रुपए था। आय तीस हजार रुपए थी। अब 25 हजार का ऋण लिया। इस पर 2,500 रुपए का ब्याज दिया। ऋण लेने के कारण बीमा कराना पड़ा। 1,250 रुपए प्रीमियम भी दिया। किसान पर 3,750 का अतिरिक्त खर्च पड़ा। उसकी आय 3,750 कम हो गई। अत: ऋण और बीमा किसान को चूसने के रास्ते हैं, न कि उसे राहत देने के। किसान के ऋण लेने की सार्थकता तभी है जब वह उस रकम से कुछ नया उत्पादन करे, लेकिन ऐसी संभावनाएं कम ही हैं। जिस प्रकार गुट[द्मद्मा खाने से तत्काल कुछ राहत मिलती है, परंतु आगे नुकसान होता है, वैसा ही असर ऋण का किसान पर होता है। किसान की समस्या ऋण या बीमा की नहीं, बल्कि कृषि उत्पादों के गिरते मूल्यों की है। महंगाई के अनुपात में देखें तो सरकार के द्वारा घोषित समर्थन मूल्य गिर रहे हैं। वर्ष 2011 से 2015 के बीच धान के समर्थन मूल्य में 36 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। इसी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अर्थात कृषि उत्पादों के मूल्य महंगाई की तुलना में कम बढ़ रहे हैं। जैसे दो ट्रेन बगल चल रही हों, तो धीमे चलने वाली ट्रेन पिछड़ती दिखती है, यद्यपि वह भी आगे चल रही होती है। इसी प्रकार मोबाइल, कपड़ा, बिजली आदि के मूल्य के सामने धान के मूल्य पिछड़ रहे हैं। कृषि उत्पादों के मूल्य पिछडऩे के कारण खेती घाटे का सौदा होती जा रही है। फलस्वरूप किसान ऋण लेने को मजबूर होता जा रहा है।