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इतिहास के पन्नों से

पंजाब का हिंदी रक्षा आंदोलन : गुरुकुल झज्जर का महातप

 

लेखक :- डॉ रघुवीर वेदालंकार
श्री विरजानंद देैवकरणि जी
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा

आचार्य भगवान्देव जी आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब के उपप्रधान एवं कार्यकर्ता प्रधान भी थे। ऐसी परिस्थिति में हिन्दी आन्दोलन को हरयाणा से चलाने का उत्तरदायित्व भी इन्हीं पर आ गया। इसी कार्य में तीव्रता लाने के लिए २८ जुलाई १८५७ को रोहतक में हिन्दी आन्दोलन के विषय में बृहत् सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन के पश्चात् आर्यसमाज के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की सम्भावना थी अतः श्री जगदेवसिंह जी सिद्धान्ती तो दिल्ली चले गये। आचार्य भगवान्देव जी वैद्य बलवन्तसिंह जी की मोटर साईकल पर बैठकर सायंकाल बोहर से पूर्व बांई ओर पीपल के पेड़ के नीचे एक कोटड़ा बना हुआ है उसकी छत पर दोनों ने रात व्यतीत की।

प्रात: काल आचार्य जी रोहणा गांव में श्री दरियावसिंह जी के पास गये। वहां आचार्य जी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस पहुंच गई। आचार्य जी पीछे के दरवाजे से मोटर साईकल पर बैठकर निकल गये। वहां से चौ० हीरासिंह जी के पास मुखमेलपुर ( दिल्ली ) गये। कुछ दिन पश्चात् जमना के खादर के खेतों में बनी झोंपड़ियों में रहे। वहां पतला ग्राम निवासी फूलसिंह जी उनके पास भोजन , समाचारपत्र आदि पहुंचाते थे। वहां भी गिरफ्तारी की शंका हुई तो आचार्य जी मेरठ जिले की टटीरी मंडी आदि होते हुए साईकल पर ही मुजफ्फरनगर के निकट रसूलपुर जट्ट गांव में चौ० आशाराम के घर पर गये और वहां से सत्याग्रह का संचालन किया। वहां ब्र० वेदपाल शास्त्री ने आचार्य जी की सेवा और सुरक्षा की थी। अकेले हरयाणा से ही ५० हजार सत्याग्रही इस आन्दोलन में भेजे थे। यद्यपि सत्याग्रह का केन्द्र चण्डीगढ़ था किन्तु हरयाणावासियों के प्रबल उत्साह को देखते हुए दयानन्द मठ रोहतक में भी इसका एक केन्द्र खोल दिया गया था।३० जुलाई १९५७ को रोहतक के जिलाधीश सरदार लालसिंह की कोठी पर सात जत्थों द्वारा सत्याग्रह का दूसरा मोर्चा खुल गया।

इन जत्थों का नेतृत्व विधान सभा के सदस्य डॉ० मंगल आचार्य शिवकरण , चौधरी रामकला , श्री रामनारायण बी० ए० , ची भरतसिंह , मास्टर बीरबल , चौधरी ज्ञानसिंह ने किया। सत्याग्रहियों के साथ २० हजार के लगभग अन्य जनता भी थी। पुलिस थोड़ी थी , अत : भीड़ पर नियन्त्रण न कर सकी। पुलिस के लाठी प्रहार से सात सत्याग्रही सख्त घायल हो गये। इस द्वितीय मोर्चे के उद्घाटन से पूर्व एक विराट सभा २८ जुलाई १९५७ को अनाज मण्डी रोहतक में हुई , जिसमें हरयाणा के सभी प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उसी दिन स्वामी रामेश्वरानन्द जी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। स्वामी जी की गिरफ्तारी से जनता में बड़े जोश और रोष की लहर विजली की तरह दौड़ गई।

अत: चण्डीगढ़ और रोहतक के मोचें को तन मन धन से सर्वप्रकारेण सफल बनाने की तैयारियां प्रारम्भ कर दी गई। अब प्रतिदिन हजारों की संख्या में सत्याग्रही रोहतक जाकर सत्याग्रह करते थे। ” हिन्दी भाषा अमर रहे ” ” देश का बच्चा बच्चा होगा , हिन्दी भाषा पर बलिदान ” ” कैरोंशाही नहीं चलेगी ” इत्यादि भांति भांति के नारे जिस जोश के साथ लगाए जाते थे वह दृश्य तो वास्तव में स्वयं दर्शनीय होता था। उसको देखकर सभी व्यक्ति यह कहते थे कि हरयाणा वाले पंजाबी को बलपूर्वक कभी नहीं पढ़ेंगे। ६ अगस्त १९५७ को झज्जर में मध्याह्न १२ बजे पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री चौ० सूरजमल जी आर रणवीरसिंह जी हुड्डा एम.पी. पधारे। तहसील में उन्होंने ग्रामों के पंच और सरपंचों को बुलाया। जनता को प्रोग्राम का ठीक – ठीक पता भी न दिया गया । फिर भी पर्याप्त जनता वहां पहुंच गई। जब चौधरी रणवीरसिंह जी हिन्दी के विरुद्ध में बोलने लगे तब उनको काले झंडे दिखाये गये और भाषण भी ठीक नहीं होने दिया। इसी प्रकार चौधरी सूरजमल ने भी हिन्दी भाषा के विपरीत बोलना प्रारम्भ किया।

तब उनको भी काले झण्डे दिखाये गये तथा ” हिन्दी भाषा अमर रहे ‘ ” ” देश का बच्चा – बच्चा होगा हिन्दी भाषा पर बलिदान ” ” सूरजमल गद्दी के लिए डूब गया ” इत्यादि नारे उच्च स्वर से लगाये गये और तालियाँ पीटकर लोग चल पड़े। जब चलते समय चौधरी सूरजमल अपनी कार में जाकर बैठे तब कार के अन्दर उनके सिर के ऊपर भी एक काला झण्डा लहरा कर ” हिन्दी भाषा अमर रहे ‘ ‘ का नारा लगाया। इस विरोध प्रदर्शन में गुरुकुल का सक्रिय योगदान था। फतेहसिंह भण्डारी तथा वेदव्रत आदि अनेक गुरुकुलीय लोग वहां सक्रिय थे। उन्होंने माइक का तार भी काट दिया था। इस सत्याग्रह के कारण चौ० सूरजमल ने अपनी मानसिक व्यथा एक बार इस प्रकार व्यक्त की मुझे बुढ़ापे में वजारत मिली थी , इस पर यह ‘ हिन्दगी ‘ आगे अड़ गई। इसके पश्चात् चौधरी सूरजमल बोहर ( रोहतक ) आयुर्वेद विद्यालय में गये। वहाँ भी इसी भांति काले झण्डों से स्वागत किया गया। एक और विशेष घटना घटी – चौधरी रणवीरसिंह हुड्डा एम० पी० जनता के भय के कारण अपना आसन छोड़कर खिड़की से भाग निकले , इस पर भी जनता ने उनका पीछा किया। २६ अगस्त १९५७ को पंजाब के निर्माण मंत्री राव वीरेन्द्रसिंह सिलानी ग्राम में पधारे । जब उन्होंने हिन्दी रक्षा आन्दोलन के विरुद्ध विष वमन प्रारम्भ किया और जाति के आधार पर फूट डालने का प्रयत्न किया , तब ग्रामीण जनता ने उनको काले झण्डे दिखलाये और हिन्दी भाषा अमर रहे आदि नारे लगाये। गुरुकुल झज्जर इस आन्दोलन से अछूता कैसे रह सकता था।

गुरुकुल झज्जर तथा कन्या गुरुकुल नरेला दोनों ने इस आन्दोलन में अपने जत्थे भेजे। अन्याय की यह पराकाष्ठा थी कि इस आन्दोलन में भाग लेने के कारण कन्या गुरुकुल नरेला की भूमि भी सरकार ने जब्त कर ली थी। आचार्य जी की पैत्रिक सम्पत्ति पर भी १२ अगस्त १९५७ को जब्त करने का नोटिस लगा दिया गया तथा इनकी गिरफ्तारी के वारंट जारी कर दिये गये। आचार्य भगवान्देव जी हरयाणा में हिन्दी आन्दोलन के प्राण ही थे। उन्होंने इन धमकियों की कुछ परवाह नहीं की। आन्दोलन में कूदने के कारण आपने गुरुकुल झज्जर के आचार्य पद से लिखित त्याग पत्र देकर रात दिन अपने आपको आन्दोलन के अर्पित कर दिया। इनके स्थान पर वेदव्रत जी को कुछ समय के लिए आचार्य बना दिया गया तथा गुरुकुल की विद्यार्यसभा के प्रधान कप्तान रामकला जी बने। आचार्य जी को इस आन्दोलन में रातदिन अथक परिश्रम करना पड़ा। अनेक दिनों तक भूमिगत भी रहना पड़ा तथा लम्बी लम्बी यात्राएं भी करनी पड़ी जिस कारण आपका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया।

आचार्य जी का व्रत गोघृत तथा गोदुग्ध सेवन करने का एवं नमक , मिर्च , मीठे के बिना भोजन करने का था। आन्दोलन के दिनों में भागते दौड़ते रहने के कारण खान – पान की समुचित व्यवस्था न हो सकने के कारण स्वास्थ्य खराब होना स्वाभाविक ही था। भूमिगत अवस्था में आचार्य जी उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रसूलपुर जाटान नामक ग्राम में छिप कर रहे। वहां उड़द की दाल खाने के कारण आपका पेट खराब हो गया। उड़द की दाल पश्चिमी उत्तरप्रदेश को प्रिय दालों में से है। यह पौष्टिक भी है। अतिथि के लिए उड़द की दाल तथा चावल बनाना उसके स्वागत के लिए विशेष भोजन माना जाता है। रसूलपुर में भी गृह स्वामिनी माता जी आदर सत्कार के कारण ही आचार्य जी को लगातार उड़द की दाल खिलाती रही।

आचार्य जी हरी सब्जी तथा मूंग की दाल के अभ्यासी थे , अत : पेट खराब होना स्वाभाविक ही था । यहां आचार्य जी गुप्त रूप में रह कर सत्याग्रह का संचालन रहे थे। पंजाब सरकार उनको गिरफ्तार करना चाहती थी । समाचार पत्रों में घोषणा कर दी गयी थी कि आचार्य भगवान्देव को पकड़ कर लाने वाले को पचास हजार रुपये ईनाम में दिये जायेंगे। इतने पर भी पंजाब सरकार आचार्य जी को पकड़ नहीं सकी। आचार्य जी की अनुपस्थिति में भी गुरुकुल से हिन्दी रक्षा सत्याग्रह के लिए जत्थे जाते रहे। ११ अक्तूबर १९५७ को ११ व्यक्तियों का जत्था गुरुकुल से गया। इसके बाद भी लगातार जत्थे जाते रहे। इस सत्याग्रह में गुरुकुल के सभी ब्रह्मचारियों तथा कर्मचारियों ने भाग लिया।

बीस अक्तूबर १९५७ को झज्जर नगर का थानेदार बलायाराम गुरुकुल में आचार्य जी को निगृहीत करने आया। आचार्य जी इन दिनों रसूलपुर जाटान गये थे। अत : थानेदार को खाली हाथ वापस आना पड़ा। वह इक्कीस तारीख को पुनः आया। उसे आशंका थी कि आचार्य जी कहीं पास में ही छिपे हुए होंगे तो पकड़ में आ जायेंगे। उसे दोबारा भी असफलता मिली तथा ‘ लौटकर बुद्धू घर को आए ‘ के अनुसार उसे पुनः खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। आचार्य जी के रसूलपुर जाटान प्रवास के दिनों में वेदव्रत जी उनसे मिलने रसूलपुर गये तथा वहां जाकर आचार्य जी से जत्थे भेजने के विषय में परामर्श किया। किसी न किसी भांति वेदव्रत जी रसूलपुर पहुंच तो गये किन्तु वापस गुरुकुल आने में पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा। इसके लिए वे मुजफ्फरनगर से दिल्ली तक रेलगाड़ी द्वारा पहुंचे। दिल्ली स्टेशन से सराय रोहिल्ला साईकिल द्वारा गये। इस प्रकार चलने से विलम्ब हो गया था।

फलत: ट्रेन या बस आदि कोई भी साधन आगे जाने के लिए न मिल सकने के कारण सराय रोकि से ट्रक में बैठकर बहादुरगढ़ पहुंचे। यहां पहुंचने तक तो पर्याप्त विलम्ब हो चुका था अत: यहां से आगे गुरु जाने के लिए कोई भी साधन उपलब्ध न था। ‘ त्याज्यं न धैर्य विधुरेऽपि काले ‘ के अनुसार वेद्रवत जी हार न मानी तथा रात्री में ही गुरुकुल के लिए पैदल चल दिये। २० मील की यात्रा करने के पश्चात् ११ को गुरुकुल में पहुंचे। ग्यारह अक्तूबर १ ९ ५७ को गुरुकुल का जत्था सत्याग्रह के लिए प्रस्थान कर ही चुका था। जत्थे की झज्जर कस्बे में प्रवेश करते ही पकड़ लिया गया जिसे पहले झज्जर हवालात में रखकर बाद में रोहतक जेल भेज दिया गया। पूर्वचर्चित थानेदार महाशय गुरुकुल में २३ अक्तूबर को पुनः आए। जत्थे के विषय में वेदव्रत जो से सामान्य पूछताछ की किन्तु इस बार भी आचार्य जी को यहां न पाकर निराश होकर वापस लौट गया। वेदव्रत जो रोहतक जेल में बन्द जत्थे से निरन्तर सम्पर्क बनाए हुए थे तथा २८ अक्तूबर १९५७ को वे जेल में जत्थे के लिए आवश्यक वस्तुएं दे आए। थानेदार ने अपना उद्यम नहीं छोड़ा , उसने सात नवम्बर १९५७ को गुरुकुल में हैड कांस्टेबल तथा कुछ सिपाही पुनः भेजे। इस बार थानेदार स्वयं नहीं आया। इन सब का प्रयोजन तो आचार्य जी के विषय में पूछताछ करना था। पूछने पर कोई भी उत्तर अपने पक्ष में न पाकर ये भी खाल्ली हाथ , निराश वापस लौट गये।

१९ अक्तूबर १९५७ को वेदव्रत जी आचार्य जी मिलने के लिए रसूलपुर जट्ट ( उत्तरप्रदेश ) गये थे तब आचार्य जी का स्वास्थ्य ठीक था। १० नवम्बर को विद्यार्य सभा की बैठक गुरुकुल झज्जर में हुई। उसमें ज्ञात हुआ कि आचार्य जी बीमार होगये हैं। ११ नवम्बर को प्रातःकाल ६ बजे गुरुकुल झज्जर से चलकर वेदव्रत जी बस द्वारा सायंकाल आचार्य जी के पास पहुंचे। आचार्य जी ने बताया कि हलका ज्वर और दमे की शिकायत होगई है। सर्दी का मौसम है। तर इलाका है , ऊपर से उड़द की दाल में घी डालकर भोजन में दे देते हैं। किसी शुष्क स्थान पर जाने से स्वास्थ्य सुधर सकता है। वेदव्रत जी ने कहा कि मेरी जन्मभूमि घासीकाबास झुंझनूं ( राजस्थान ) सब से बढ़िया शुष्क और सुरक्षित स्थान है। वहां चलो। आचार्य जी सहमत होगये। किन्तु राजस्थान जाने के लिए देहली और रेवाड़ी में पकड़े जाने की सम्भावना। पंजाब सरकार आचार्य जी को जीवित या मृत किसी भी रूप में पकड़ना चाहती थी। गिरफ्तारी से बचने के लिए लम्बा रास्ता चुना। १२ नवम्बर को रसूलपुर से शाहपुर , मुजफ्फरनगर , मेरठ , हाथरस , मथुरा , भरतपुर , बांदीकुई होते हुए १३ को रात्रि में जयपुर पहुंचे। १४ तारीख को प्रातःकाल जयपुर से वापस सीकर , झुंझनू होते हुए नारी खेतड़ी रेलवे स्टेशन पर उतरकर पैदल ही घासीकाबास ( अजीतपुरा ) पहुंच गये। वहां सत्याग्रह की समाप्ति ( २८ दिसम्बर १ ९ ५७ ) तक पुराने साथी बृजलाल आर्य के खेत के कुएं पर रहे। उसी ने सेवा और सुरक्षा की। सत्याग्रह समाप्ति पर उसी दिन गुरुकुल के ब्रह्मचारियों का जत्था रोहतक जेल से वापिस गुरुकुल पहुंचा। उसी दिन वेदव्रत जी आचार्य जी को अपने घर से वापिस लेने के लिए गये। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों ने भड़काऊ भाषण के आरोप लगवाकर १९५८ में सत्याग्रह समाप्ति के पश्चात् आचार्य जी को गिरफ्तार करवाकर जेल में डलवाया था। प्रतापसिंह कैरों और आचार्य भगवान्देव सैंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में एक साथ पढ़े थे। दोनों का एक दूसरे के घर पर आना जाना भी था। सत्याग्रह का कार्य पूरे जोर के साथ चल रहा था। गुरुकुल वासी , हरयाणा निवासी तथा अन्य सभी हिन्दी प्रेमी सत्याग्रह को सफल बनाने में जुटे हुए थे।

कुछ हिन्दी भक्त सत्याग्रह करके गिरफ्तारियां दे रहे थे तो अन्य व्यक्ति जनता में प्रचार करके जन सामान्य में उत्साह का संचार कर रहे थे। सत्याग्रहियों का सत्याग्रह भी विभिन्न प्रकार का होता था। अधिकांश सत्याग्रही आर्यसमाजी होते थे अत: सत्याग्रह के दिनों में भी वे यज्ञ करना न भूलते थे। चण्डीगढ़ में चौधरी नौनन्दसिंह ( कलोई सुहरा ) ने सड़क के किनारे ही तम्बू लगाकर यज्ञ करना प्रारम्भ किया किन्तु सरदार प्रतापसिंह ‘ कैरो’ने तम्बू को उखड़वा दिया। पुनरपि चौधरी साहब ने अपना यज्ञ करके ही छोड़ा।

आन्दोलन अबाधगति से चलता रहा। हिन्दी प्रेमियों का उत्साह बढ़ता ही जा रहा था। गुरुकुलवासी भी हर प्रकार से इसमें अपनी आहुति देने में लगे हुए थे। एतदर्थ कुछ तो जत्थे बनाकर सत्याग्रह करते थे तथा शेष व्यक्ति जनता में घूमकर आन्दोलन के पक्ष में प्रचार कर रहे थे। सरकार प्रयास था कि सत्याग्रह असफल हो जाए। इसी उद्देश्य से सरकारी मन्त्री तथा अन्य व्यक्ति भी जगह – जगह आन्दोलन के विपक्ष में प्रचार कर रहे थे। इस सत्याग्रह में गुरुकुल के योगदान की चर्चा करते हुए डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार ने आर्यसमाज के इतिहास में लिखा है ‘ रोहतक जिले में गुरुकुल झज्जर आर्यसमाज की प्रमुख शिक्षण संस्था है। वहां के कितने ही ब्रह्मचारियों ने सत्याग्रह में भाग लिया। केवल ब्रह्मचारी ही नहीं अपितु वहां के कितने ही कर्मचारी भी हिन्दी की रक्षा के लिए जेल गये।

आन्दोलन अपना उग्ररूप धारण करता जा रहा था , इसके साथ ही सरकार का दमनचक्र भी तेज हो रहा था। फिरोजपुर जेल में सत्याग्रहियों पर योजनाबद्ध रूप से आक्रमण कराकर अनेक सत्याग्रहियों को इंडियां तोड़ दी गयी तथा अनेक वीरों को प्राणाहुति देनी पड़ी। रोहतक जिले के नयाबास ग्रामवासी युवक सत्याग्रही सुमेरसिंह का प्राणान्त भी इसी लाठीचार्ज में हुआ था। ८ नवम्बर १९५७ को जवाहरलाल नेहरू चण्डीगढ गये। वहां पहुंचकर उन्होंने विधानसभा में घोषणा की कि हिन्दीरक्षा समिति की ९० प्रतिशत मांगें मान ली गयी हैं और शेष १० प्रतिशत मांगों का आपसी बातचीत द्वारा निर्णय किया जा सकता है। गृहमंत्री पंडित गोविन्दवल्लभ पंत ने बातचीत के लिए भाषा स्वातन्त्र्य समिति के अध्यक्ष श्री घनश्यामसिंह गुप्त को बातचीत के लिए आमन्त्रित किया इसके परिणाम स्वरूप गुप्त जी ने गृहमंत्री के अनुरोध पर सत्याग्रह समाप्ति की घोषणा कर दी। इस प्रकार ६ मास तथा ८ दिन बाद सत्याग्रह समाप्त हुआ।

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