मांस मनुष्य का भोजन नहीं

-विष्णु शर्मा

वास्तव में शाकाहार हर प्राणी से प्रेम करना सिखाता है क्योंकि शाकाहारी व्यक्ति हिंसा नहीं करता और जो हिंसा नहीं करता उससे अन्य जीव जंतु भी प्रेम करते हैं ..

इंसान जबसे इस दुनिया में आया है तब से उसके साथ एक चीज़ और आई है और वो है भूख। भूख ऐसी बात है जो इंसान को कुछ भी करने के लिए मजबूर कर देती है। कई बार तो भूख के लिए इंसान वो सब कर जाता है जो उसे किसी भी हाल में नहीं करने चाहिए।

उन्हीं न करने योग्य कामों से एक है मांस भक्षण। अक्सर देखा जाता है कि हम अपनी भूख मिटाने के लिए किसी भी मासूम और बेज़ुबान जानवर को मारकर खा जाते हैं लेकिन यह नैतिकता की दृष्टि से , मानवता की दृष्टि से और विज्ञान की दृष्टि से बिल्कुल भी ठीक नहीं है। चलिए आइये देखते हैं कैसे –

अगर इस संसार के सभी जीवों को देखा जाए तो उसमें मनुष्य ही सबसे ज्यादा श्रेष्ठ और क्रियाशील है। ईश्वर ने जो नेमतें और ताक़तें इंसानों को दी हैं वो और किसी जीव , और किसी प्राणी को नहीं बक्शी इसलिए हम इंसानों की ज़िम्मेदारी भी सबसे अधिक है। इंसान अपने हुनर और दिमाग का इस्तेमाल करके भी अन्य जीवों से अपना भोजन प्राप्त कर सकता है जैसे गाय , भैंस का दू0ध बेचकर , भेड़ से ऊन बेचकर , हाथी से महावत बनकर घोड़े तांगा आदि चलाकर। इस तरह से वन्य जीवों को मारे बिना भी इनके जरिए भूख का इलाज हो सकता है तो फिर क्यों बेवजह इनकी हत्या का पाप अपने सर लें।

हालांकि इस पर ये सवाल उठाया जा सकता है कि जो पेड़ पौधे खाए जाते हैं उनमें भी तो जीवन होता है , अगर उनको खाना पाप नहीं है तो मांस खाना कैसे पाप हुआ तो इस सवाल का जवाब ये है कि पेड़ पौधे आदि वनस्पति सुषुप्ति अवस्था में यानी एक तरह की गहरी नींद में होते हैं। उन्हें काटने या तोड़ने पर हमारी तरह पीड़ा का अनुभव नही होता। वानस्पतिक खाद्य पदार्थ जाग्रत प्राणियों द्वारा स्वेच्छा से दिये गए दूध आदि की तरह होते हैं। इस तरह वनस्पतियों से प्राप्त भोजन खाना गलत नहीं है। वह मांस नहीं होता। वह उनका स्वाभाविक फल है। वे इससे आगे बढ़ने में सक्षम नहीं है। अगर यदि हम आम-अमरूद जैसे फल हिंसा समझ कर न खावें तो वे सड़ कर खाने के लायक ही नहीं रहेंगे और फिर उनका कोई फायदा भी नहीं रहेगा। इसी तरह अगर हरी भरी सब्जियों को भी यूं ही छोड़ दिया जाए तो वे भी सूखकर बेकार हो जाएंगी और किसी काम की नहीं रहेंगी। आप सब अक्सर खबरों में सुनते होंगे कि आज इतना टन गेंहू गोदाम में पड़े पड़े खराब हो गया।

लेकिन वन्य जीवों के साथ ऐसा नही होता। पेड़ पौधों की अपेक्षा वन्य जीव अधिक मात्रा में सुख दुख का अनुभव करते हैं। उनमें प्रजनन क्षमता भी क्षमता भी होती है जिससे वे अपना वंश बढाते हैं । उन्हें काटने मारने पर रक्त की धार सीधी दिखाई देती है। अपने परिजन की मृत्यु पर पशु भी आंसू बहाते हैं तो फिर उन पर इस तरह का अत्याचार क्यों। दूसरी बात यदि आप प्रोटीन विटामिन्स आदि के लिए मांस को सही मानते हो तो यह तर्क भी पूरी तरह से ठीक नही क्योंकि जो प्रोटीन मिनिरल्स पशुओं में होते हैं वो उनमें प्राकृतिक रूप से नहीं होते। वो सभी तत्व वन्य जीव पेड़ पौधों से ही प्राप्त करते हैं। अंग्रेजी भाषा में इसे फ़ूड चेन कहा जाता है। इस तरह जब पशु पक्षी भी शाकाहार से ज़रूरी तत्व पा सकते हैं तो हम क्यों नहीं। हम तो उनसे बहुत अधिक श्रेष्ठ हैं तो फिर हम क्यों मांस का ही रास्ता चुने। इस पर तर्क करने वाले ये तर्क देते हैं कि शेर आदि हिंसक जीव भी तो मांस खाते हैं तो हम क्यों न खाए तो इस पर मैं यही कहूंगा कि सर्वप्रथम तो ये कि मांसाहार उनका प्राकृतिक भोजन है, उनके पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं है और न ही उनका बौद्धिक स्तर इतना ऊँचा है कि वे इंसानो की तरह वृक्ष आदि उगा सकें। दूसरा ये कि वे मांस खाने के लिए मेहनत करते हैं । अपने शिकार से लड़कर उसे प्राप्त करते हैं और वे उसे उसी हालत में खाते हैं जिस हालत में वे उसे प्राप्त करते हैं। वे मांस के साथ साथ हड्डी भी पचा लेने में सक्षम हैं लेकिन इंसानों के साथ यहां भी उल्टा है पहले क्रूरता से उसे मारते हैं और फिर उसे पकाकर भिन्न भिन्न मसालों का प्रयोग कर उसे बनाते हैं जिससे मांस का भयानक रूप ढक जाता है और खाने के लायक बनता है। हम उसे जैसे का तैसा ग्रहण नहीं कर सकते वहीं अगर पेड़ पौधों की बात की जाए तो पेड़ पौधे हमें जिस अवस्था में मिलते हैं हम उसी अवस्था में उनका सेवन कर सकते हैं। उन्हें भोजन की तरह पकाकर खाने की भी ज़रूरत नहीं और वे मांस की अपेक्षा सुपाच्य भी होते हैं। फिर भी लोग यह कहकर मांस भक्षण करते हैं कि यदि हम इन्हें नहीं खाएंगे तो इनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी तो इस मामले में मैं पूछना चाहूंगा कि हजारों प्रजातियां ऐसी हैं जो विलुप्ति की कगार पर हैं वो भी तब जब उन्हें खाया नहीं जाता। बाघ कोई नहीं खाता फिर भी वे मिट रहे हैं। नीलगाय भी कभी कभार ही दिखाई देती है। धीरे धीरे हाथी भी कम हो रहे हैं तो बिना खाय इनकी जनसंख्या नही बढ़ी तो अन्यों की कैसे बढ़ेगी। अगर इनकी जनसंख्या बढ़ भी गयी तो कुदरत उसका रास्ता खुद ब खुद ढूंढ लेगी। मनुष्य को तो लगभग कोई नहीं खाता मगर फिर भी प्रकृति मनुष्य की जनसंख्या को काबू में रखने का उपाय खोज ही लेती है और जो प्रकृति मनुष्य की जनसंख्या वश में कर सकती है वह पशुओं की जनसंख्या वश में क्यों नहीं कर सकती।

मांसाहार मनुष्य का भोजन नही है उसका एक कारण और है और वो ये है कि मांसाहार हर काल एवं हर परिस्थिति में नहीं किया जा सकता लेकिन शाकाहार जब चाहे तब किया जा सकता है। जब एक शिशु जन्म लेता है तब वह दूध ही पीता है , बहुत से त्योहारों में मांसाहार छोड़ना ही पड़ता है और मांसाहार हमारे लिए हर जगह उपलब्ध हो जाए ऐसा भी नहीं है किंतु शाकाहार व्यंजन हर जगह मिल ही जाता है। इतिहास इस विषय में प्रमाण हैं। भगवान राम को जंगलो में भी कंद मूल फल मिल जाते हैं। मांसाहार का विकल्प होने पर भी वे शबरी के बेर ही खाते हैं। पांडव बारह वर्ष जंगलों में बिताते हैं लेकिन एक भी जीव हत्या नहीं करते। महाराणा प्रताप जंगलों में भटकते भटकते घास की रोटी खाते हैं लेकिन पेट के लिए किसी की जान नहीं लेते। इस आधुनिक युग में भी ऐसी ऐसी महान विभूतियां हुईं हैं जिन्होंने शाकाहारी रहते हुए भी मांसाहारियों को बदल दिया। उन्हें में से एक थे महर्षि रमण। उन्होंने एक बार किसी सिंह के पंजे से कांटे को निकालकर साफ किया जिससे वह शेर भी उनका भक्त हो गया। इसके बाद वह हर रोज उनके आश्रम आता और उनके पैर चाटकर चला जाता।

इसी तरह सन् 1937 की घटना है जब किसी साधु ने एक शेर के बच्चे को पकड़कर केवल दूध साग आदि से उसका लालन पालन किया जिससे वह शेर पूरी तरह अहिंसक हो गया। जहाँ जहाँ वह साधु जाता वहां वहां वह भी जाता मगर इस दौरान उस शेर ने किसी को भी हानि नहीं पहुंचाई। इसी तरह का एक वाकया अमेरिका में भी हुआ। सन् 1946 से 1955 की घटना है। अमेरिका के एक चिड़ियाघर में एक शेरनी ने एक मादा शेर को जन्म दिया जिसकी एक टांग खराब थी इसलिए उस शेरनी के बच्चे को जॉर्ज नाम के व्यक्ति को सौंप दिया जोकि स्वभाव से ही जानवर प्रेमी था। उसने उस मादा शेरनी के बच्चे को ठीक करने के लिए नौ साल तक गाय का दूध पिलाया जिससे उसकी टांग अच्छी हो गई। तब जॉर्ज ने सोचा इसे मांस वगैरह भी देना चाहिए लेकिन उस शेरनी ने मांस की तरफ उठाकर देखा भी नहीं। मांस देखते ही वह बेचैन हो जाती थी और बड़े होने पर भी उसका यह स्वभाव नहीं बदला। वह हिंसक प्राणी होकर भी सबसे प्यार करती थी। यहां तक छोटे छोटे बच्चे भी उसकी पीठ पर डर के घूमते थे। अपने इस स्वभाव से वह इतनी प्रसिद्ध हो गई थी कि उसकी खबरें अमेरिका के पहले ही पेज पर छपने लगी। चिड़ियाघर में भी वह हमेशा खुली ही रहती थी। ये उसके सात्विक आहार का प्रभाव था जिसने उसे भी सात्विक बना दिया था क्योंकि कहावत है कि जैसा खाय अन्न वैसा होए मन।

इस शेरनी के बारे में जानकर मांसाहार को सही ठहराने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि अगर शाकाहार उसके जीवन में इतना बदलाव ला सकता है तो आपके जीवन शाकाहार से कितना बदल जायेगा और जब शेर जैसे खूंखार जानवर बिना मांस के रह सकते हैं जोकि उनका प्राकृतिक भोजन है तो मनुष्य क्यों नहीं रह सकता।

वास्तव में शाकाहार हर प्राणी से प्रेम करना सिखाता है क्योंकि शाकाहारी व्यक्ति हिंसा नहीं करता और जो हिंसा नही करता उससे अन्य जीव जंतु भी प्रेम करते हैं। महर्षि पतंजलि योगदान में लिखते हैं – अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।।

अर्थात अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके समीप रहने वाले अन्य प्राणी भी वैर त्याग देते हैं। यही कारण है कि हमारे पूर्वज ऋषि मुनि जंगलों में भी आवास बनाकर वन्य जीवों के साथ शांति से रहते थे और महर्षि रमण तो इसके साक्षात प्रमाण हैं। उनके संग ने एक हिंसक पशु को भी अहिंसक बना दिया इसलिए मांसाहार छोड़िए , पशु पक्षियों से प्रेम कीजिए , बदले में आपको उनसे प्रेम ही मिलेगा।
अगर मेर इस लेख को पढ़ कर किसी एक व्यक्ति ने भी मांसाहार त्याग दिया तो मैं समझूंगा कि मेरी मेहनत सफल हुई।

साभार
शांतिधर्मी पत्रिका
जून अंक 2020

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