हर साल पर्यावरण की रक्षा का संकल्प महज एक जुमला तो नहीं ?

दीपक कुमार सिंह

विश्व पर्यावरण दिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्बहाली दशक की शुरुआत की है। इस वर्ष का थीम भी यही रखा गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने विश्व पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर इसकी घोषणा करते हुए एक वीडियो संदेश जारी किया। अपने संबोधन में श्री गुटेरेस ने जैव विविधता को हो रहे नुकसान, जलवायु परिवर्तन और तेजी से बढ़ते प्रदूषण – इन तीन प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं पर विशेष जोर दिया। उन्होंने कहा कि अब तक के वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है कि आने वाले 10 साल हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह अवधि जलवायु से जुड़ी आपदाओं को टालने का अंतिम अवसर होगा। श्री गुटेरस ने कहा की इस आपदा को टालने के लिए सभी सरकारों, उद्यमों और व्यवसाय जगत से जुड़े लोगों, सिविल सोसायटी और हम सब को मिलकर योगदान करना होगा। उन्होंने आगे कहा कि सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यह सामूहिक जिम्मेदारी बनती है। संयुक्त राष्ट्र संघ प्रमुख की इतनी स्पष्ट चेतावनी को ध्यान में रखकर क्या हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि हम अपनी नीतियों, रणनीतियों और कार्यप्रणाली में कोई बड़ा और मूलभूत बदलाव लाएंगे? यदि हम अपने अतीत के आचरण और पहले ली गई प्रतिज्ञाओं का हस्र देखें तो इसकीबहुत सम्भावना नहीं दिखती।

बात करें सतत विकास की अवधारणा की तो इसका नारा हम 30 से भी ज्यादा वर्षों से देते आ रहे हैं। इस शब्द की, प्रासंगिक सन्दर्भ में उत्पत्ति ‘हमारा साझा भविष्य’ नामक एक दस्तावेज से हुई थी, जो ब्रंटलैंड आयोग द्वारा दिया गया था। इस आयोग ने 1987 में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र संघ में पेश अपनी रिपोर्ट में सतत विकास की अवधारणा पेश की थी। सतत विकास, यानी वह विकास जो भविष्य की पीढ़ियों की अपनी जरूरतों को पूरा करने की क्षमता से समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करता है। निश्चित तौर पर सैद्धांतिक दृष्टिकोण से विकास की इससे बेहतर कोई अवधारणा नहीं हो सकती। इसके बाद के घटनाक्रम को अगर हम देखें तो इसे लागू करने की इच्छा शक्ति का अभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है और इसीलिए यह केवल महत्वपूर्ण दिवसों पर और सम्मेलनों में दुहराया जाने वाला जुमला बनकर रह गया है जिसे हर बार नये नये पहनावे में ( सुन्दर गढ़े शब्दों मे) दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाता है, केवल यह जताने के लिए कि हम समस्या के प्रति सजग हैं और कुछ ठोस काम कर रहे हैं।

पर्यावरण और विकास पर 1992 में रियो डी जेनेरो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन के माध्यम से भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने सतत विकास की अवधारणा के लिए प्रतिबद्धता दोहराई। इसके पश्चात सन 2002 में दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग में पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में सभी देशों का पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान आकर्षित किया गया। रियो डे जेनेरियो में 2012 में संयुक्त राष्ट्र सतत विकास सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में एक ऐसे भविष्य की कल्पना की गई जिसमें सभी की पारिस्थितिकी एवं आर्थिक अवसर उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता थी। सम्मेलन के निष्कर्षों पर 180 देशों ने अपनी सहमति दी।

इसके बाद वर्ष 2015 में सतत विकास शिखर सम्मेलन में 193 देशों के बीच सतत विकास के लिए एजेंडा 2030 पर सहमति बनी। इसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक अधिक संपन्न, अधिक समतावादी और अधिक संरक्षित विश्व की रचना करना है । और अब संयुक्त राष्ट्र संघ प्रमुख ने एक बार फिर 10 वर्षों की समय सीमा तय की है।

पिछले लगभग 35 वर्षों में हम जब ये सम्मेलन आयोजित कर नए दस्तावेज और नारों का सृजन कर रहे थे तो हमारी धरती माँ और प्रकृति किस वेदना से गुजर रही थी, आइए इन्हीं संस्थाओं के आंकड़े और प्रतिवेदनों की नजरों से देखते हैं। आईपीसीसी की एक विशेष रिपोर्ट के अनुसार 1970 के बाद से वैश्विक औसत तापमान 1.7 डिग्री सेल्सियस प्रति शताब्दी की दर से बढ़ा है। रिपोर्ट के मुताबिक उत्सर्जन की वर्तमान दर यदि बरकरार रही तो ग्लोबल वार्मिंग 2030 से 2052 के बीच 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगा। मानवीय क्रियाकलापों से परिवर्तन की ये वैश्विक दरें भू – भौतिकीय या जीवमंडल बलों द्वारा संचालित परिवर्तन की उन दरों से कहीं अधिक है जिसने अतीत में पृथ्वी प्रणाली प्रक्षेपवक्र को बदल दिया है। यहां तक ​​कि अचानक हुई भूभौतिकीय घटनाओं से उत्पन्न उत्सर्जन भी मानव-जनित परिवर्तन की वर्तमान दरों से कम हैं। नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन, यूएसए की 2020 की वार्षिक जलवायु रिपोर्ट के अनुसार 1880 के बाद से भूमि और समुद्र के संयुक्त तापमान में 0.13 डिग्री फ़ारेनहाइट (0.08 डिग्री सेल्सियस) प्रति दशक की औसत दर से वृद्धि हुई है। हालांकि 1981 के बाद से वृद्धि की औसत दर (0.18 डिग्री सेल्सियस / 0.32 डिग्री फारेनहाइट) इससे भी दोगुने से अधिक रही है।

जैव विविधता के संबंध में 2019 की संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्तुत प्रतिवेदन अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी देता है। इसका सारांश वर्ष 2019 में पेरिस में आई पी बी ई एस की बैठक के सातवें सत्र में 29 अप्रैल से 7 मई के बीच अनुमोदित की गई थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर लगभग दस लाख जानवरों और पौधों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा है और कुछ तो आनेवाले कुछ दशकों में ही विलुप्त हो सकते हैं। ऐसा पहले मानव इतिहास में कभी नहीं हुआ।

एफ ए ओ तथा यू एन ई पी की 2020 में पेश विश्व की वनों की स्थिति पर रिपोर्ट में कहा गया है कि 1990 के बाद से 420 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर वन क्षेत्र को काटा जा चुका है और अब इस भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए हो रहा है। ऐसा तब जबकि पिछले तीन दशकों में वनों की कटाई दर में कमी आई है। एक अनुमान के अनुसार 2015 और 2020 के बीच वनों की कटाई की दर प्रति वर्ष 10 मिलियन हेक्टेयर के आसपास थी जो 1990 के दशक में प्रति वर्ष 16 मिलियन हेक्टेयर की तुलना में कम हुई है।

ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारी प्रतिबद्धताएं खोखली साबित हो रही हैं । हमारी कोशिशें हवा में तलवार चलाने के सदृश परिलक्षित हो रही हैं। क्या हम गंभीर नहीं हैं या हमारी रणनीति गलत है। वस्तुतः हमारी रणनीति जिस समझ पर आधारित है वही त्रुटिपूर्ण है। हमारी कोशिश इस अवधारणा पर टिकी है कि प्रकृति को पुनर्जीवित किया जा सकता है, पारिस्थितिकी तंत्र को पुराने रूप में लौटाया जा सकता है। यह समझ ही गलत है और इसी गलत अवधारणा के वशीभूत मानव जाति अपनी लालची प्रवृत्ति के कारण अभी भी पुनर्जनन की दरों से कई गुना ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता रहा है। शमन शब्द के सहारे हम यह सोचते हैं कि हम हर नुकसान की भरपाई कर सकते हैं। सच्चाई यह है कि प्रकृति को कभी भी पुनर्निर्मित या पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता है। पौधारोपण कभी भी लुप्त हो रहे जंगलों का विकल्प नहीं हो सकता। विलुप्त हो गई जैव प्रजातियों को वापस नहीं लाया जा सकता है। नदियों में बने हुए बांधों और तटबंधों को तोड़कर नदी के मूल स्वरूप को लौटाने के लिए बहुत बड़ी इच्छा शक्ति एवं इनके फ़ायदे एवम नुकसान को लोगों के सामने सही परिप्रेक्ष्य में रखने की जरूरत है। क्या हम ऑस्ट्रेलिया के जंगल की आग में जल गए 5 करोड़ जीवों और लाखों पेड़ों को उसी प्रकार पलक झपकते लौटा सकते हैं जैसे वे इस धरा से गायब हो गए। सूख गई डार्लिंग नदी को कौन वापस लाएगा । गंगा के पानी में काई का ज़मना क्या हमारी विकास की नासमझ अवधारणा का प्रतीक नहीं है। प्रकृति के पुनर्निर्माण की क्षमता के मानवीय दंभ के कारण ही हम डेडलाइन बढ़ाते जाते हैं क्योंकि अगर आज पुनर्निर्माण सम्भव है तो बीस साल बाद भी सम्भव है और 50 साल बाद भी सम्भव है।

हर साल पर्यावरण की रक्षा का संकल्प महज एक जुमला नहीं होना चाहिए बल्कि लोगों के दैनिक जीवन और राष्ट्रों की विकास रणनीतियों में भी परिलक्षित होना चाहिए। अगर हम अपने शपथ पर सच्चे हैं तो हमें आज और अभी से वैसे सभी परियोजनाओं को तत्काल रोकना होगा जो प्रकृति को थोड़ा भी नुकसान पहुंचाते हैं या प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। इस फुलस्टाप के बाद अबतक हुए नुकसान का लेखा जोखा तैयार कर उसे जिस हद तक भी कृत्रिम रूप से पूरा किया जा सकता है वह प्रयास करना चाहिए। जिस दिन हम पेड़ों की कटाई और लुप्त हो रहे जंगलों से प्रभावित पक्षियों, कीड़ों और जानवरों की मौन चीख को महसूस करेंगे और विकास के आत्म-विनाशकारी पथ का पीछा छोड़ देंगे, वही दिन विश्व पर्यावरण दिवस का सच्चा उत्सव होगा।

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