बिहार की राजनीति : आओ खेलें ‘चिराग- चिराग’

 

अधिकतर भारतीय राजनेताओं की परिवार पोषक नीतियों के चलते उनकी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों अर्थात पॉलीटिकल पार्टीज की स्थिति या तो उनके सामने या उनके बाद लड़खड़ा कर भूमिसात हो जाती है या उनकी विरासत पर ऐसी तकरार होती है जिससे उस राजनीतिज्ञ और राजनीतिक पार्टी की परिवार पोषक नीतियों का तो खुलासा हो ही जाता है साथ ही उसे अपमान भी झेलना पड़ता है। कांग्रेस से चलकर भारत की लगभग सभी सेकुलर पार्टियों में ‘एक परिवार और एक व्यक्ति’ का यह रोग बड़ी तेजी से फैला। सपा, बसपा, लोजपा ,राजद, टीएमसी जैसी अनेकों पार्टियां इस समय देश में हैं, जो कांग्रेस के इस रोग को कोसते – कोसते कांग्रेस के ही रोग से ग्रस्त हो गईं।


अब आते हैं चिराग पासवान की राजनीति और उनकी स्वर्गीय पिता रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा के अंतर्कलह पर। चिराग पासवान के पिता रामविलास पासवान शून्य से चलकर राजनीति के शिखर पर पहुंचे थे। जिस व्यक्ति के पास कभी अपनी फीस के भी पैसे नहीं थे, उसने 1977 से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर अपना राजनीतिक सफर आरंभ किया था । उसके पश्चात उन्होंने राजनीति में हवा को पहचानने और परखने का हुनर हासिल किया । वे अपने राजनीतिक कौशल का परिचय देते हुए हमेशा उस व्यक्ति के साथ रहे जो सत्ता और शक्ति का केंद्र होता था । स्वर्गीय रामविलास पासवान से गलती यह हुई कि उन्होंने अपनी पहली विवाहिता पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी की । वैसे इसे वर्तमान राजनीतिक लोगों के द्वारा इतनी बार अपनाया गया है कि अब राजनीति में पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी करना कोई अपराध नहीं रह गया है। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की रूढ़िवादी विचार कहकर आधुनिकता के नाम पर सबसे अधिक धज्जियां हमारे राजनीतिक लोगों नहीं उड़ाई हैं। निश्चित रूप से इस प्रकार की प्रवृत्ति को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ही लेडी माउंटबेटन के साथ अपने संबंधों को प्राथमिकता देकर आरंभ कर दिया था उनके राजनीतिक गुरु रहे गांधी के भी अनेक महिलाओं से संबंध रहे थे । इन दोनों तथाकथित चाचा और बापू से ही देश की राजनीति अध:पतन की ओर गई । राजनीतिक अध:पतन की इसी प्रक्रिया को नेहरूवाद और गांधीवाद का नाम दिया जा सकता है। इस प्रकार इसी नेहरूवाद और गांधीवाद को रामविलास पासवान ने अपनाया। अध:पतन की इसी मानसिक अवस्था से रामविलास पासवान को चिराग की प्राप्ति हुई । चिराग क्योंकि अपने पिता के विकार ग्रस्त मानस से उपजा हुआ पुत्र था, इसलिए वह उनके लिए ‘चिराग’ नहीं बन सका। उसने अपने पिता के जीवन में ही उन्हें कष्ट देने आरंभ कर दिये।
जानकार सूत्रों का कहना है कि चिराग पासवान ने रामविलास पासवान के रहते ही पार्टी और पार्टी की राजनीति पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए जोड़-तोड़ करनी आरंभ कर दी थी। जिसे लेकर रामविलास पासवान भी दुखी रहते थे। जब – जब कोई व्यक्ति मन के अधीन होकर सार्वजनिक जीवन में आदर्श की धज्जियां उड़ाता है और पहली पत्नी के रहते दूसरी पत्नी से संतान पैदा कर उसे अपनी राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकारी घोषित करता है तब – तब ऐसे ही मामले सामने आते हैं। इसी को नियति का विधान कहते हैं।
बताते हैं कि रामविलास पासवान ने अपने जीवन काल में ही अपने भाई पशुपति कुमार पारस को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित करने का मन बना लिया था। जिसके लिए पशुपति कुमार भी सक्रिय हो चुके थे। परंतु चिराग ने उस समय अपना जाल कुछ इस प्रकार बिछाया कि पशुपति कुमार पारस अपने भाई रामविलास पासवान की विरासत के उत्तराधिकारी नहीं बन पाए। अब समय आने पर उन्होंने अपना काम कर दिखाया है। जिससे लोजपा दो भागों में बंट गई है।
आज पंख विहीन हो चुके चिराग पासवान के बारे में यह भी सत्य है कि बिहार विधानसभा चुनावों के समय लोजपा के इस नेता के पंख कुछ अधिक ही निकल आए थे। वह हवा में बहुत ऊंची उड़ान भर रहे थे । उन्हें यह भ्रम हो गया था कि पार्टी और प्रदेश की जनता उनके साथ है और वह या तो सरकार बनाएंगे या फिर सरकार बनाने बिगाड़ने की भूमिका में जनता उन्हें लाकर खड़ा कर देगी, परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जिससे चिराग के पंख जल्दी ही टूट गए। उस समय उन्होंने बीजेपी के साथ अपने गठबंधन धर्म को भी निभाने में असमर्थता व्यक्त कर दी। जिससे बीजेपी की ओर से उन्हें उस समय भी स्पष्ट और कड़ा संदेश दे दिया गया था कि प्रदेश और केंद्र दोनों में साथ रहकर काम करने का नाम ही गठबंधन है। चिराग की नई और अनुभवहीन टीम उस समय बीजेपी के इस संकेत और संदेश को समझ नहीं पाई और जब हाथ पैर तुड़वा लिए तब ‘चिराग’ के भीतर कुछ प्रकाश होता हुआ दिखाई दिया। उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी तंग करना आरंभ किया।
इस प्रकार चिराग पासवान न केवल पार्टी के भीतर अपने विरोधियों के निशाने पर आए बल्कि केंद्र में काम कर रही भाजपा और साथ ही साथ बिहार में भी सत्तारूढ़ दल और उसके नेता नीतीश कुमार के सीधे निशाने पर भी आ गए। अब बिहार में लोजपा के साथ जो कुछ भी हुआ है उसमें चाहे थोड़ी – थोड़ी मिलावट ही हो पर भाजपा और नीतीश कुमार का भी उसमें योगदान रहा है। यद्यपि यह योगदान चिराग पासवान की अपनी उच्छृंखलता और लड़कपन के कारण ही हुआ कहा जा सकता है। जब युवा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं या अपनी शक्तियों को पहचानने में चूक कर जाते हैं तब ऐसे ही परिणाम आते हैं। अब चिराग पासवान की हास्यास्पद बनी स्थिति का लाभ उठाने के दृष्टिकोण से राजद के तेजस्वी यादव ने उन्हें अपने साथ मिलकर काम करने का न्यौता दिया है । जिसे पासवान ने बड़े राजनीतिक चातुर्य के साथ नकार दिया है। इसके पीछे एक ही कारण है कि वह अभी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वे शायद उनके परिवार के कलह को शांत करा दें और उन्हें अपने पिता की जगह केंद्रीय मंत्रिमंडल में ले लें। यद्यपि अब उनके लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान मिलना सर्वथा असंभव है। वैसे भी इस समय बीजेपी बिहार को केवल अपने बल पर जीतने की योजना बना रही है। जिसमें वह बड़ी सावधानी और चतुरता से नीतीश कुमार को भी इस बार के चुनाव में शक्तिहीन करने में सफल हो गई है । फिर भला वह क्यों नीतीश के बाद किसी ‘चिराग’ को अपने लिए सिर दर्द बनाएगी? फिर भी किसी बड़ी उम्मीद के सहारे चिराग पासवान ने अब बिहार में अकेले ही चलने का मन बना लिया है। वैसे भी राजनीति में हमेशा अनेकों विकल्प खुले होते हैं और कब क्या हो जाए इसको कोई नहीं जानता। अकेले चलकर वह कितना अपने आप को साबित कर पाएंगे यह तो समय ही बताएगा ,परंतु इस समय वह रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत के योग्य और सुलझे हुए उत्तराधिकारी नहीं कहे जा सकते।
इस समय बिहार में ‘चिराग चिराग’ खेलने की राजनीति हावी है। बिहार में ‘चिराग’ इस समय सत्ता का प्रतीक बन चुका है । नीतीश को भी ‘चिराग’ चाहिए। भाजपा भी ‘चिराग’ की तलाश में है और ‘चिराग’ स्वयं भी ‘चिराग’ की तलाश में है । इतना ही नहीं तेजस्वी भी ‘चिराग’ की तलाश में है। उनकी लालटेन ‘चिराग’ के बहुत नजदीक पहुंच गई थी’ परंतु फिर भी सत्ता का ‘चिराग’ उनसे दूर रह गया।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

 

 

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