बारिश के अनुमान कैसे कैसे ?

श्री कृष्ण जुगनू
बारिश, एक जरूरत, एक अहम आवश्‍यकता। जल ही जीवन है, हमारे शास्‍त्रों में जल के 100 पर्यायवाची मिल जाते हैंं, मगर इसका विकल्‍प एक भी नहीं, सच है न।
इस बारिश का पूर्वाभास करने के लिए हमारे पुरखों ने कई कयास लगाए हैं। उस दौर में जबकि न मौसम विज्ञान जैसे यंत्र होते थे न ही कोई आज जैसा अध्‍ययन था। मगर, जो अनुमान तय किए, वे आज भी लोक विज्ञान के अंग के रूप में सामने हैं और अनपढ़ जैसे देहाती भी बारिश के लिए पूर्वानुमान लगाते देखे जा सकते हैं।

इन अनुमानों के आधार पर हमारे यहां समय-पठन की परंपरा रही। देवस्‍थानों से लेकर सूर्य मन्दिरों तक भी वर्षफल, आषाढ़ी तौल, ध्‍वज परीक्षण परिणाम आदि का फलाफल सुनाया जाता था। हमारे कृषि पराशर, मयूरचित्रम्, गार्गीसंहिता, गुरुसंहिता, संवत्‍सर फलम्, कादम्बिनी जैसे कई ग्रंथों में इस पर विस्‍तार से विवरण मिल जाता है। वराहमिहिर कृत बृहत्‍संहिता में तो इस पर विस्‍तार से विमर्श हैं।

अब टीटोडी या टीडभांड नामक पक्षी को ही देख लीजिए, जो जितने अंडे देता है, उनको किसी ऊपरी स्‍थान पर दिया है अथवा नीचे इस आधार पर अतिवृष्टि और अत्‍यल्‍प वृष्टि के रूप में परिणाम बताने वाला समझा जाता है। बेचारी टींटोडी क्‍या जानती है कि अंडों के आधार पर लोग बारिश का परिणाम देखेंगे, मगर क्‍या वह यह जानती हैं कि यदि उसके अंडों वाली जगह पर जलभरण हुआ तो उसके अंडों से बाहर आने वाले चूजों का क्‍या होगा ?

परिन्‍दों की गतिविधियां आज भी वैज्ञानिकों के लिए कुतूहल का विषय बनी हुई हैं।
यही नहीं, उन अंडों के मुख ऊपर हैं या नींचे, इस आधार पर बारिश के महीनों को बताया जाता है। यदि चार अंडों में से दो के मुख ऊपर की ओर है तो दो माह बारिश होगी, तीन के मुख ऊपर है तो तीन माह और चारों के ही मुख ऊपर हैं तो चौमासा पूरा ही बरसेगा, मगर नीचे होने पर…. मालूम नहीं ये सच है या नहीं मगर लोकविज्ञान आज भी अपनी जगह है…।

वर्ष के चार स्तम्भ और वर्षा
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चार थंभ है बरस का, जाणै जाणणहार |
ए चारूं हो जाय तो, होवै जय जयकार ||
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~ वर्ष रूपी छत के चार स्तम्भ माने गए हैं। जिस वर्ष ये चारों ही पड़ते हैं, वह संवत्सर हर लिहाज से खुशहाली लाने वाला माना जाता है।
ये चार स्तम्भ योग हैं :
1. लोक मान्यताओं के अनुसार चैत्र शुक्ला 1 तिथि को रेवती नक्षत्र होना जल का स्तम्भ माना जाता है। जिस वर्ष ऐसा योग बने उस वर्ष भरपूर बारिस होती है।
2. बैशाख शुक्ला प्रतिपदा को भरणी नक्षत्र को त्रण स्तम्भ माना गया है, इसके फलस्वरूप भरपूर घास अर्थात चारा खूब होता है।
3. ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा को मृगशिरा नक्षत्र वायु स्तम्भ होता है जो अच्छे मौसम का द्योतक है।
4. आषाढ शुक्ला प्रतिपदा को पुनर्वसु नक्षत्र अन्न स्तम्भ होने के कारण भरपूर अन्न निपजाने वाला माना गया है।

कुजपृष्ठगतो भानुः समुद्रमपि शोषयेत् । (७६.१)कृषिपराशर

मंगल रथ आगे चलै, पीछे चले जो सूर।
मन्द वृष्टि तब जानिये, पड़सी सगलै झूर।

आगे मंगल पीछे भान , वर्षा होवे ओष समान॥

अथ मयूर चित्रके…
#यथा_वृष्टिविज्ञानम्
श्रवण नक्षत्र युक्त सावनी पूर्णिमा को यदि वर्षा होती है तो उस क्षेत्र में सुभिक्ष जानना चाहिए। पृथ्वी बहुत अन्न उपजाती है :
श्रावणेर्क्षे पूर्णिमायां यदि मेघ: प्रवर्षति।
तस्मिन्काले सुभिक्षं स्याद्धरित्री चान्न संकुला।। 7।।

जो सावन शुक्ला 7 को बारिश हो तो लोक में आनंद होता है, धरती पर धन धान्य की वृद्धि होती है :
श्रावणे शुक्ल‌सप्तम्यां यदि मेघ: प्रवर्षति।
तदा प्रजाभि‌ नन्दति धनधान्याकुला धरा:।। 1।।

श्रावण में कृतिका नक्षत्र के दिन वर्षा होती है तो भरपूर वर्षा होनी चाहिए और धरती सागर सी तथा अन्न धन से पूर्ण होती है :
श्रावणे कृतिकायाञ्च यदि मेघ: प्रवर्षति।
तदात्वेकार्णवा पृथ्वी धनधान्य कुला प्रजा:।। 2।।
( मयूरचित्रकम् : नारद मुनि कृत, संपादन : डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू, अनुभूति चौहान, परिमल पब्लिकेशन, दिल्ली, 2004, सप्तम अध्याय)
✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू

कृषिपराशर में चैत्र मास का विचार वर्षा के अनुमान के लिये –

अथ चैत्रवृष्टिज्ञानम् । (४४.१)

प्रतिपदि मधुमासे भानुवारः सितायां यदि भवति तदा स्याच्चित्तला वृष्टिरब्दे । (४४.२)
अविरलपृथुधारासान्द्रवृष्टिप्रवाहैर् धरणितलम् अशेषं प्लाव्यते सोमवारे ॥ (४४.३)

अवनितनयवारे वारिवृष्टिर्न सम्यग् बुधगुरुभृगुजानां शस्यसम्पत्प्रमोदः । (४५.१)
जलनिधिरपि शोषं याति वारे च #शौरेर्भवति खलु धरित्री धूलिजालैरदृश्या ॥ (४५.२)

चैत्राद्यभागे चित्रायां भवेच्च चित्तला क्षितिः । (४६.१)
शेषे नीचैर्न वात्यर्थं क्ष्मामध्ये बहुवर्षिणी ॥ (४६.२)

मूलस्यादौ यमस्यान्ते चैत्रे वायुरहर्निशम् । (४७.१)
आर्द्रादीनि च ऋक्षाणि वृष्टिहेतोर्विशोधयेत् ॥ (४७.२)

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अगर शनिवार की हुई, कृषिपराशर ४५.२ के अनुसार शौरिवार(शनिवार) को शुक्ल प्रतिपदा पड़े तो जलनिधि अर्थात् तडाग सरोवर वापी कूप आदि जलसंग्रहण के स्थल भी सूख जाते हैं और धरती पर धूल ही धूल उड़ती है।

आज की हुई वर्षा के सम्बन्ध में आप ऐसे विचार कर सकते हैं कि , “चैत्रे शुक्लत्रयोदश्यां यदा गर्जति वासवः ।
वर्षत्येव तदा देवस्तत्रावृष्टौ कुतो जलम् ॥

अगर किसी संवत्सर के राजा ‘शनि’ हैं –
संग्रामो वातवृष्टिश्च रोगोपद्रव एव च ।
मन्दा वृष्टिः सदा वातो नृपे संवत्सरे शनौ ॥

पराशर कहते हैं –
यथा वृष्टिफलं प्रोक्तं वत्सरग्रहभूपतौ ।
तद्वद् वृष्टिफलं ज्ञेयं विज्ञैर्वत्सरमन्त्रिणि ॥
जिस प्रकार का फल वत्सर के राजा का कहा है वैसा ही फल मन्त्री का भी जानना
अस्तु सूर्य के मन्त्री होने का फल – चक्षूरोगो ज्वरारिष्टं सर्वोपद्रव एव च ।
मन्दा वृष्टिः सदा वातो यत्राब्दे भास्करो नृपः ॥

दोनों का ही समेकित फल रोगवृद्धि , संग्राम, उपद्रव, अल्पवर्षा और आंधी ।
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

#टिटहरी के अंडों से मानसून का पूर्वानुमान
🌦️ ☔ वर्षा विचार 🤔

जल है तो कल है, इसलिए आने वाले कल में जल की उपलब्धता का पूर्वानुमान भी जरूरी है। राजकीय स्तर पर मौसम महकमा और निजी एजेंसियां नवीन वैज्ञानिक, तकनीकी माध्यम से सभी ऋतुओं का पूर्वानुमान जारी करती है। वहीं ग्रामीण भारत में आज भी शकुन विचारक, लोक मौसम वैज्ञानिक विद्यमान है। जो प्रकृति प्रदत्त माध्यमों से आगामी मौसम का मिजाज जान लेते है। इसीके आधार पर बोई जाने वाली फसलों का चयन, बुवाई का वक्त आदि का निर्धारण होता है।

वर्षा काल को लेकर गांवों में शकुन विचारक, किसान, व्यापारी सभी एक परिन्दे की गतिविधियों से मिलने वाले संकेत पर सदियों से भरोसा करते आये है। जिसका नाम है टिटहरी (Red Wattled lapwing) स्थानीय बोली में इस परिन्दे को टीटोड़ी कहा जाता है। जिसकी रुक-रुक कर तेज व तीखी चहचहाहट अक्सर नदी, तालाब के किनारों, दलदली इलाको के साथ ही खेतो में सुनाई देती है। इसके अंडे देने के स्थान, स्थिति व इनकी संख्या को देख कर आने वाले मानसून में मेघों की मेहर को माप लिया जाता है।

लोक मान्यता अनुसार टिटहरी किसी गड्ढे में अंडे देती है तो उसके आसपास के परिक्षेत्र में सूखा या अकाल पड़ता है। समतल भूमि पर अंडे हो तो सामान्य या औसत वर्षा मानी जाती है। वहीं ज्यादा ऊंचे स्थान पर टिटहरी के अंडो का होना अतिवृष्टि की आशंका पैदा करता है। सामान्यत: टिटहरी 4 अंडे देती है और वर्षाकाल भी इतने ही महीनों का होता है। अधिकांश ग्रामीण मौसम वैज्ञानिको का मत है कि जितने अंडों का नुकीला मुंह जमीन की तरफ होता है उतने माह माकूल, मूसलाधार बारिश होती है। वहीं नुकीला मुंह आसमान की तरफ होना अप शकुन का इशारा होता है यानी बारिश के अभाव की आशंका रहती है।

कल छोटे भाई श्री रामभरोसे पुरोहित ने यह फोटो/वीडियो अपने मोबाइल कैमरे में कैद किये। जो सलूंबर (उदयपुर) में भेई-लकापा मार्ग स्थित एक खेत के है। जहां मिट्टी के टीले पर कंकर का घोंसला बनाकर टिटहरी ने गत दिनों 4 अंडे दिए है। चितकबरे, स्लेटी रंग के चारो अंडों का नुकीला मुंह भूमि की ओर है। ऐसे में सलूंबर व आसपास के क्षेत्र में इस बार चारो महीने बेहतर बारिश के संकेत माने गए है।
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आने वाले दिनों में देखना दिलचस्प होगा कि यहां “टिटहरी के अंडे, कैसे गाड़ते है बारिश के झंडे” है ना!! 😀 आशा है यह लोकल कल वोकल बनेगा 🤔
✍️ बिहारीलाल पुरोहित

बेटी पूजे बीज : अच्छी पैदावार की आशा

बीजों की बुवाई से पूर्व पूजा अनुष्ठान के मूल में किसान के मन की कामना होती है : बोया गया बीज सार्थक हो, हर दाना हजार हजार दाने उगाए और जो श्रम किया जा रहा है, वह सफल हो! ऐसे अनुष्ठान अलग अलग रूप में सिंधु हड़प्पा और बनास बेसिन से लेकर मिस्र और यूनान तक प्रचलन में रहे हैं। ये कितना रोचक है कि इसे हलचल कहा जाता है और इसके साथ किसी न किसी रूप में स्त्री शक्ति का जुड़ाव रहा है।

गुजरात के कालमेधडा में मूंगफली की बुवाई से पहले जिस तरह से पूजन विधान देखने में आया, उसे देखकर लगा कि मूंगफली जैसी फसल बहुत बाद में भारत में आई लेकिन जल्दी ही उसकी खेती के साथ भी अनुष्ठान जुड़ गए। यह व्यापारिक महत्व की फसल है और बड़ी पटी के खेतों में उगाई जाती है। इसलिए शुरू से ही बहुत ध्यान रखा जाता है। मुहूर्त साधना से लेकर सुरक्षा के साधनों तक।

बुवाई से पूर्व खेत में जो पूजन होता है, वह पूर्णत: भारतीय मूल के धान्य आदि से होता है : मूंग और अक्षत के साथ ही इक्षुदंड से बने गुड़, कपास से बने कच्चे मौली सूत्र और कुमकुम सहित रुपया ( चांदी अथवा धातु का सिक्का)। सुपाड़ी दायित्व वहन का भेद बताती है। घर की कन्या के सुकोमल करयुग्म से यह सब पूजन करवाया जाता है। वही धरती के धात्री गुणों को विरुदाती है, आभार मानती है और सुपुष्ट बैलों को रक्षा सूत्र बांधती है, गुड़ खिलाती है तथा पीठ थपथपाती है।

और, इस तरह जो क्रिया होती है वह “हलचल” है।

बृहत्कृषि पराशर, बार्हस्पत्य कृषि पद्धति, कृषिगीता, काश्यपीय कृषि पद्धति और लगभग सभी मुहूर्त ग्रंथों सहित कारिका तथा गृह्यसूत्रों में इसके लिए हलप्रवाह या लांगल चलन संज्ञा का प्रयोग हुआ है। हल प्रवाह के दौरान होने वाले निमित्तों का अपना विचार और व्यवहार है। उनकी सूची भी बहुत लंबी है। मैंने उक्त शास्त्रों में उन पर सम्यक विचार भी किया है।

कृषि कार्य से जुड़े समस्त आचार, नेगचार और क्रियाओं के मूल में लोक मंगल की कामना होती है। कृषि तमाम निराशाओं के दौर में आशा की फसल को उगाने की जिद का भी एक नाम है। यह दैव अथवा भाग्य को खूंटी पर टांग कर हल उठाने का सबसे बड़ा आयोजन और उसका प्रस्थान बिंदू है। तभी तो प्रत्येक विपरीत काल में भी समुदाय के हर वर्ग को कृषि करने का निर्देश किया गया है। खेत की भूमि का दर्शन और “सुहागिन दूब” का स्पर्श तक हमें हर शोक से उबारने का सामर्थ्य रखता है…।

हमारे यहां ज्‍येष्‍ठ की पूर्णिमा के बीतने पर जिस भी नक्षत्र में बारिश होती, उस के आधार पर पूरे चौमासे में वर्षा की न्‍यू‍नाधिकता का अनुमान लगाया जाता था। यह वर्षा संबंधी नक्षत्रों में बारिश का समय 27 दिन की अवधि का ‘प्रवर्षण काल’ के नाम से जाना जाता था। गर्गसंहिता, जो अब विलुप्‍त हो चुकी है (श्रीकृष्‍ण चरित्र वाली 16वीं सदी की वर्तमान में उपलब्‍ध रचना से अलग, शुंगकाल में लिखित गर्गसंहिता) में यही कहा गया है कि ज्‍येष्‍ठ के बीत जाने पर प्रतिपदा तिथि से आगे की तिथियों पर, मूल नक्षत्र को छोड़कर परिवेश में होने वाले निमित्‍तों को देखकर वर्षा का अनुमान किया जाना चाहिए। गर्ग संहिता का यह श्‍लोक वराहमिहिर की बृहत्‍संहिता की भटोत्‍पलीय विवृत्ति में उपलब्‍ध है –

ज्‍येष्‍ठे मूलमतिक्रम्‍य मासि प्रतिपदग्रत:।
वर्षासु वृष्टिज्ञानार्थं निमित्‍तान्‍युपलक्षयेत्।।

बाद में, इसके साथ पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के अनुसार वर्षाफल देखने की परंपरा जुड़ी क्‍योंकि तब तक यह मान लिया गया था कि पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र वर्षा का अनुमान देने वाला नक्षत्र है। उस समय एक हाथ के बराबर व्‍यास वाले और एक हाथ गहरे गोलाकार कुण्‍ड से जल का मापन किया जाता था। इसमें करीब 50 पल प्रमाण जल जमा होता था। यह पचास पल एक आढ़क (करीब 4 किलो) कहा जाता था और चार आढक के बराबर एक द्रोण होता था।

वराहमिहिर सिद्ध करते हैं कि उनसे पहले जिन दैवज्ञों, मुनियों ने वर्षा के अनुमान के लिए अपनी धारणाएं दी थी, वे कश्‍यप, देवल और गर्ग थे। कश्‍यप मुनि का मानना था कि जिस प्रदेश में प्रवर्षण काल में बारिश होती, तो वह पूरे देश के लिए विचारणीय होती थी। देवल कहते थे कि इस काल में यदि दस योजन तक बारिश हो तो उत्‍तम बारिश होती है और गर्ग, वसिष्‍ठ व पराशर मानते थे कि बारह योजन तक किसी नक्षत्र में बारिश हो जाए तो बेहतर वृष्टि जाननी चाहिए। यह भी विचार था कि प्रवर्षण काल में पूर्वाषाढ़ा आदि जिस किसी नक्षत्र में बारिश होती है, प्रसव काल में उसी नक्षत्र में फिर बरसात होती है और यदि न हो तो प्रसव काल में भी सूखा ही रहता है।

प्रवर्षण काल में हस्‍त, पूर्वाषाढ़ा, मृगशिरा, चित्रा, रेवती या धनिष्‍ठा नक्षत्र में बरसात हो तो पूरे सोलह द्रोण बारिश होती है… ऐसे कई अनुमान हैं जो अनुभव आधारित रहे हैं। उस काल का अपना वर्षा विज्ञान था। मयूरचित्रकम्, संवत्‍सरफलम, घाघ भड़डरी, डाक वचनार, गुरु‍संहिता, काश्‍यपीय महा संहिता, कृषि पराशर, गार्गिसंहिता आदि में ढेर सारे प्रमाण दिए गए हैं।*

  • परिमल पब्लिकेशंस, 27-28 शक्तिनगर, दिल्‍ली से आई डाॅ. अनुभूति चौहान संपादित ‘वृष्टिविज्ञान’ में भी इस संबंध में विशेष विमर्श है। यह पंचांगकर्ताओं, रुचिशीलों के लिए उपयेागी पुस्‍तक है।
    ✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू

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