इस्राइल में फिर नेतन्याहू प्रधानमंत्री पद पर….

वेदप्रताप वैदिक

इस्राइल में जैसी सरकार अभी बनी है, पहले कभी नहीं बनी। 8 पार्टियों ने मिलकर यह सरकार बनाई है। ये आठों पार्टियां कम से कम तीन खेमों में बंटी हुई हैं। वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यममार्गी। सबसे बड़ा अजूबा यह कि इन यहूदी पार्टियों में चार सदस्यों वाली अरब पार्टी, ‘राम’ भी शामिल है। 120 सांसद के सदन में सत्तारूढ़ दल के 61 सदस्य हैं और सत्ता से हटे विपक्षी दलों के पास 59 सदस्य। जब नई सरकार के लिए विश्वास प्रस्ताव आया तो पक्ष में 60 वोट पड़े और विपक्ष में 59 वोट। एक वोट नहीं पड़ा। यानी कुल मिलाकर एक वोट के बहुमत की सरकार इस्राइल में बनी है। क्या आपने दुनिया में कहीं इतने कम बहुमत वाली सरकार बनते देखी है? इतने अल्प बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री हैं नफ्ताली बेनेट, जिनकी ‘यामीना पार्टी’ के सिर्फ 7 सदस्य हैं। 8 सदस्यों के गठबंधन का नेता बेनेट को कैसे बना दिया गया और वह आठों पार्टियों को साथ रख पाएंगे या नहीं, यह सबसे बड़ा सवाल है।

इस नए गठबंधन को बांधनेवाले असली नेता हैं, याएर लापिड, जिनकी यश आतिद पार्टी को 17 सीटें मिली हैं। उनके और बेनेट के बीच यह तय हुआ कि दोनों दो-दो साल के लिए प्रधानमंत्री रहेंगे। पहला मौका बेनेट को मिला है। बेनेट के पास इतने कम सदस्य होते हुए भी उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बैठने का मौका इसलिए मिला क्योंकि वह काफी अनुभवी और प्रखर नेता रहे हैं। 49 वर्षीय बेनेट युवावस्था में इस्राइली फौज में रहे और बाद में उन्होंने एक सॉफ्टवेयर के धंधे में करोड़ों रुपये कमाए। वह 2013 में सांसद बने। उन्होंने रक्षा और शिक्षा मंत्री के पद भी संभाले। उसके पहले वह प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के सलाहकार भी रहे। बेनेट फलस्तीन को अलग राज्य बनाने के पूरी तरह खिलाफ हैं। इस्राइल द्वारा कब्जाए गए फलस्तीनी इलाकों में वह यहूदियों को बसाने के पक्षधर हैं। वह ईरान-विरोधी हैं। ईरान के साथ हुए बहुराष्ट्रीय परमाणु समझौते को भी गलत मानते हैं। वह यहूदी उग्रवाद के प्रखर प्रवक्ता हैं। वह शायद ऐसे पहले इस्राइली प्रधानमंत्री हैं, जो अपने सिर पर यहूदी टोपी, किप्पा पहनेंगे।

इस नई गठबंधन सरकार के असली प्रणेता याएर लापिड पहले टीवी एंकर थे, लेकिन राजनीति में आने के बाद वह एक बार वित्तमंत्री भी बने और उनकी अपनी मध्यम मार्गी पार्टी के जरिए उन्हें काफी लोकप्रियता भी मिली। वह कट्टरपंथी यहूदीवाद के विरुद्ध रहे। वह मध्यम वर्ग की आर्थिक स्थिति सुधारने पर जोर देते रहे और कट्टरपंथी धर्म-ध्वजियों को विशेषाधिकार देने का विरोध करते रहे। अब वह दो साल तक इस नई सरकार में विदेश मंत्री रहेंगे और सरकार चलती रही तो अगले दो साल प्रधानमंत्री भी बनेंगे।

इस्राइल में 21 प्रतिशत आबादी फलस्तीनी अरबों की है। वे अरब मुस्लिम, लेकिन इस्राइली नागरिक हैं। इन लोगों की नुमाइंदगी का दावा करने वाली पार्टी का संक्षिप्त अरबी नाम, ‘राम’ पार्टी है। इस्राइल के फलस्तीनी लोगों का बड़ा हिस्सा फिलहाल इस पार्टी के नेता मंसूर अब्बास से नाखुश है कि उन्होंने उग्रवादियों की सरकार में हिस्सेदारी ले ली है। लेकिन अब्बास का कहना है कि उन्होंने इस सरकार के साथ साझेदारी इसीलिए की है कि फलस्तीनी इलाकों में उसने ज्यादा खर्च करने और बेहतर इंतजाम का आश्वासन दिया है। फलस्तीनी लोग आश्चर्य कर रहे हैं कि बेनेट जैसे अतिवादी प्रधानमंत्री के दफ्तर में उप-मंत्री की हैसियत में रहनेवाले अब्बास की कौन सुनेगा? उनकी पार्टी के सिर्फ चार सांसद हैं। यहां गौर करने लायक बात यह है कि सत्तारूढ़ होने के पहले बेनेट ने संसद में जो भाषण दिया, उसमें ईरान की परमाणु नीति का विरोध तो खुलकर किया, लेकिन फलस्तीनी राज्य के बारे में एक भी नकारात्मक शब्द नहीं कहा। इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि बेनेट इस्राइल के सभी निवासियों को साथ लेकर चलने का इरादा रखते हैं?

इस नई गठबंधन सरकार के गठन का सबसे शक्तिशाली तत्व नेतन्याहू-विरोध रहा है। नेतन्याहू लगातार बारह साल और उसके पहले तीन साल तक प्रधानमंत्री रह चुके हैं। इस्राइल के संस्थापक बेन गुरियन से भी ज्यादा लंबे समय तक वह प्रधानमंत्री रहे हैं। पिछले दो साल में चार बार इस्राइली संसद के चुनाव हो चुके हैं। लोग नेतन्याहू से ऊब चुके थे। पिछले दिनों फलस्तीनी संगठन ‘हमास’ के साथ हुए युद्ध के बावजूद नेतन्याहू बहुमत नहीं जुटा सके। यदि वह युद्ध नहीं होता तो नेतन्याहु की लिकुद पार्टी को जो 30 सीटें मिली हैं, वे भी शायद नहीं मिलतीं। वैसे भी इस्राइली सर्वोच्च न्यायालय में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मुकदमे चल रहे हैं। नेतन्याहू ने अपने कार्यकाल में अमेरिका के साथ इस्राइल के संबंधों को घनिष्ठतर तो बनाया ही है, उन्होंने मुस्लिम राष्ट्रों- सऊदी अरब, जॉर्डन, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के साथ भी अपने संबंधों को घनिष्ठ बनाने के लिए कई नई पहलें की हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने बेनेट को बधाई दी है और पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया है, लेकिन पता नहीं कि बाइडन की ईरान-नीति का बेनेट समर्थन करेंगे या नहीं। नेतन्याहू का मानना है कि बेनेट को अमेरिकी दबाव के आगे झुकना होगा।

नेतन्याहू और नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत संबंध भी काफी अच्छे हो गए थे। नेतन्याहू के निमंत्रण पर मोदी इस्राइल जानेवाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने और नेतन्याहू भी भारत आए। दोनों देशों के आर्थिक और सामरिक संबंध इतने घनिष्ठ हो गए हैं कि बेनेट के दौर में भी वे आगे ही बढ़ेंगे। पिछले दिनों हमास-इस्राइली मुठभेड़ के दौरान भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जो पैंतरे बदले, उसका कारण भी यही था। जैसे डॉनल्ड ट्रंप के जाने के बाद जो बाइडन से हुए, वैसे ही अब बेनेट से भी मोदी के संबंध घनिष्ठ हो जाएंगे। देखना यही है कि बेनेट की सरकार कितने दिन चलेगी और कैसे चलेगी? यदि इस गठबंधन की एक पार्टी या सिर्फ दो सदस्य भी खिसक गए तो नेतन्याहू फिर प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएंगे।

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