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पेट्रोल-डीजल में लगी आग को बुझा सकती है ये सरकार ?

आनंद प्रधान

पेट्रोल और डीजल की कीमतों में जैसे आग लग गई है। इनकी कीमतें हर दिन एक नया रेकॉर्ड बना रही हैं। पिछले शनिवार को एक बार फिर कीमतों में बढ़ोतरी के साथ देश के सात राज्यों में पेट्रोल की कीमतें 100 रुपये प्रति लीटर की ‘मनोवैज्ञानिक रेखा’ को भी पार कर गईं। डीजल की कीमतें भी ज्यादातर राज्यों में 90 रुपये से ऊपर पहुंच गई हैं और राजस्थान के श्रीगंगानगर में तो डीजल ने भी शतक लगा दिया है। 4 मई के बाद से अब तक पेट्रोल और डीजल की कीमतों में 23 बार बढ़ोतरी हो चुकी है।

रिजर्व बैंक पर दबाव
दिल्ली में पिछले साल मध्य अप्रैल की तुलना में इस साल 12 जून तक पेट्रोल की कीमतों में 26 रुपये (38 फीसदी) और डीजल की कीमतों में 24.6 रुपये (39 फीसदी) से ज्यादा की वृद्धि हुई है। जाहिर है कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में लगातार और तीखी वृद्धि आम लोगों को चुभने लगी है। यही नहीं, इस साल अप्रैल में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई दर रेकॉर्ड उछाल के साथ 10.5 प्रतिशत तक पहुंच गई।

भारतीय रिजर्व बैंक भी इससे परेशान है। पेट्रोलियम उत्पादों के दाम में तेजी से उसके लिए महंगाई दर को नियंत्रित रख पाना मुश्किल हो रहा है, जिसका दबाव ब्याज दरों पर पड़ सकता है। वह नहीं चाहता है कि महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए उसे ब्याज दर बढ़ानी पड़े। इस समय ऐसा करने पर मांग और निवेश दोनों पर नेगेटिव असर पड़ेगा, जो कोरोना महामारी की मार से पस्त पड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था की मुश्किलें और बढ़ा सकता है।

आखिर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें इतनी क्यों बढ़ रही हैं? पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का यह कहना एक हद तक ही सही है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी के कारण देश में भी कीमतें बढ़ रही हैं। यह सही है कि इस साल जनवरी से अब तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में 37 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि हुई है और ब्रेंट कच्चे तेल की कीमतें 51.8 डॉलर से बढ़कर 71 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गईं।

लेकिन साल 2013 में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की औसत कीमत 101 डॉलर प्रति बैरल थी, तो दिल्ली में पेट्रोल का दाम 63 रुपये प्रति लीटर था। आज जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत वर्ष 2013 से लगभग 30 डॉलर प्रति बैरल यानी 42 फीसदी कम है तो दिल्ली में पेट्रोल की कीमत लगभग 53 फीसदी ज्यादा यानी 96.12 रुपये हो गई है।

असल में, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी की सबसे बड़ी वजह उस पर लगने वाले केंद्रीय और राज्य टैक्स हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, अभी पेट्रोल की कीमत में लगभग 60 फीसदी और डीजल की कीमत में लगभग 54 फीसदी हिस्सा केंद्रीय और राज्य करों का है। पिछले साल एक समय पेट्रोल की कीमत में करों का हिस्सा दो-तिहाई से भी ज्यादा पहुंच गया था, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोरोना महामारी के कारण आर्थिक गतिविधियां सुस्त पड़ने और कच्चे तेल की मांग गिरने के बाद उसकी कीमतें काफी नीचे चली गईं थीं।

असल में, पिछले साल मार्च से लेकर मई के बीच केंद्र सरकार ने पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी में कुल 13 रुपये प्रति लीटर यानी 65.7 फीसदी और डीजल पर कुल 16 रुपये प्रति लीटर यानी 101 फीसदी की बढ़ोतरी कर दी थी। इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट के बावजूद उसका फायदा भारतीय ग्राहकों को नहीं मिला और वे पहले की तरह ज्यादा कीमत चुकाते रहे। जाहिर है कि इस रेकॉर्डतोड़ टैक्स बढ़ोतरी का छप्परफाड़ फायदा केंद्र सरकार और कुछ हद तक राज्य सरकारों को हुआ।

इसलिए 2020-21 में जीडीपी में नकारात्मक वृद्धि के बावजूद केंद्र सरकार रेकॉर्ड एक्साइज ड्यूटी वसूलने में कामयाब रही। एक्साइज ड्यूटी की वसूली के मामले में केंद्र सरकार ने बजट अनुमान को भी पीछे छोड़ दिया, जबकि अन्य सभी करों खासकर कॉरपोरेट टैक्स की वसूली के मामले में गिरावट दर्ज की गई। यहां एक और तथ्य पर गौर करना जरूरी है कि पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले कुल टैक्स में केंद्र सरकार का हिस्सा क्रमश: लगभग 72 फीसदी और 60 फीसदी है।

लोगों पर बढ़ा बोझ
इसका अर्थ यह हुआ कि बेलगाम होती पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कटौती की कुंजी केंद्र सरकार के पास है। वह चाहे तो एक्साइज ड्यूटी में पिछले साल की गई बढ़ोतरी वापस लेकर न सिर्फ आम लोगों को बड़ी राहत दे सकती है बल्कि महंगाई बढ़ने से फिक्रमंद रिजर्व बैंक की मुश्किलें भी कम कर सकती है। एक अखबारी रिपोर्ट के मुताबिक, खुद पेट्रोलियम मंत्रालय का एक सर्वेक्षण बताता है कि पेट्रोल के ग्राहकों में सबसे बड़ा लगभग 60 फीसदी हिस्सा दो पहिया यानी स्कूटर-मोटरसाइकल चलाने वाले आम लोगों का है। इसी तरह डीजल में 13 फीसदी कृषि क्षेत्र और लगभग 38 फीसदी हिस्सा कमर्शल वाहनों (ट्रक और बसों आदि) का है।

लोकल-सर्कल नाम के एक सामुदायिक प्लैटफॉर्म ने पूरे देश में 22 हजार से अधिक लोगों के बीच कराए एक सर्वे में पाया कि पेट्रोलियम उत्पादों की बेतहाशा बढ़ती कीमतों के कारण करीब 51 फीसदी लोगों को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ रही है जबकि 21 फीसदी लोगों को बुनियादी जरूरत की चीजों पर कैंची चलानी पड़ी है। वहीं, 14 फीसदी अपनी बचत से खर्च करने को मजबूर हुए हैं।

साफ़ है कि पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतें न सिर्फ मध्य और निम्न मध्यवर्ग को बहुत भारी पड़ रही हैं और महंगाई की आग में पेट्रोल डाल रही हैं बल्कि इन सबका बुरा असर पहले से ही मांग में गिरावट के संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। रिजर्व बैंक ने लाल झंडी दिखा दी है। गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में है। वह इस मुद्दे से अब और आंखें नहीं चुरा सकती।

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