कोरोना काल में जल चिकित्सा का महत्व

 

जल ही जीवन है

शास्त्रों का कथन है : “अग्नीषोमात्मकम् जगत्।”
अर्थात् यह जगत् अग्नि और सोम (जल) का संघात (Mixture) है। संसार में सब कुछ इनके सम्मिश्रण से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् (2.1) का कथन है : ” वायोरग्नि:। अग्नेराप:। अद्भभ्य: पृथिवी।” अर्थात् वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि पृथ्वी का 72% हिस्सा पानी से घिरा हुआ है। जीवविज्ञान के अनुसार, हमारे शरीर में पानी का अनुपात भी लगभग इतना ही है।

जल जीवन का प्रतीक है। यह सर्वविदित है कि विश्व की सभी संस्कृतियाँ नदियों के तट पर ही पनपी हैं। वैज्ञानिक पृथ्वी-इतर जीवन (Extraterrestrial Life) की खोज में, दूसरे ग्रहों पर जल की उपलब्धता को सर्वोपरि मान रहे हैं।

जीवन का आधार तीन तत्त्व हैं — वायु, जल और अन्न। प्राणायाम से वायु की आपूर्ति की जाती है जिसका वर्णन हमने पूर्व लेखों में किया है। जल से जीवन को कैसे समृद्ध बनाया जा सकता है, इसका वर्णन आगे किया जाएगा ।

अन्न का महत्त्व सभी जानते हैं। इस स्थूल शरीर को “अन्नमय कोश” कहा जाता है। कहावत है : जैसा अन्न, वैसा मन। छल, कपट, बेईमानी से कमाया धन/अन्न, मन में विकार और शरीर में बीमारियां उत्पन्न करता है। अन्न के विषय में उपदेश है कि मनुष्य को ” मित भोगी ” ( कम खाना ), ” ऋतभोगी” (ऋतु के अनुसार खाना) और ” हित भोगी” (हितकारी/पौष्टिक आहार खाने वाला; मांस- मदिरा से परहेज़ करने वाला) होना चाहिए।

भोजन के उपरान्त शरीर की अवस्था का वर्णन योगरत्नाकर में इस प्रकार किया गया है :
भुक्तवोपविशतस्तन्द्रा शयानस्य तु पुष्टता।
आयुश्चंक्रममाणस्य मृत्युर्धावति धावत:।।

अर्थात् भोजन के बाद बैठने वाले को तन्द्रा ( झपकी / Nap, Dozing off ) आती है; (अन्न में मादकता/ नशा है, इसलिए खाने के बाद एक घंटे तक गाड़ी नहीं चलानी चाहिए); (बांई ओर) लेटने वाले को पुष्टता मिलती है; चहल- कदमी वाले की आयु बढ़ती है; दौड़ने वाला मृत्यु/ रोगग्रस्त होता है।

प्राण का जल से सम्बन्ध को छान्दोग्य उपनिषद् (6.7.1) में इस प्रकार समझाया गया है :
षोडशकल: सौम्य पुरुष: पञ्चदशाहानि माsशी:
काममपः पिबामोमय: प्राणो न पिबतो विच्छेत्स्यत इति ।।

अर्थात् हे वत्स! यह पुरुष सोलह कलाओं (अंशों) वाला है। अगर तुम पन्द्रह दिन तक खाना न खाओ, किन्तु पानी यथेच्छा पीते रहो ; तो जल पीते रहने के कारण प्राण नहीं टूटेगा– प्राण जलमय जो है।

ऋग्वेद और अथर्ववेद में जल को औषधीय गुणों से संपन्न कहा गया है। “अप्सु विश्वानि भेषजा।” (अथर्ववेद – 1.6.2) अर्थात् जल में सभी औषधियाँ निहित है। ” अप्स्वे१न्तरमृतमपसु भेषजमपामुत प्रशस्तये।”(ऋग्वेद 1.23.19) अर्थात् जल के अन्दर अमृत है; जल में औषधि है; जीवन को प्रशस्त / सुखी/ उत्कृष्ट बनाने के लिए, इसका सेवन करो।

अथर्ववेद (1.6.3) में प्रार्थना है :
“आप: पृणीत भेषज वरूथं तन्वे३ मम।”
अर्थात् हे जलो! अपनी औषधीय शक्तियों से मेरे शरीर में एक कवच उत्पन्न कर दो, ताकि दीर्घ आयु हो सकूं।

( वेद में “आप:” शब्द बहुवचन में प्रयुक्त होता है। जल के साथ-साथ सभी प्रकार के शरीर में उत्पन्न होने वाले रस ( Secretions), फलों व औषधियों के रस जल व सोम से जाने जाते हैं।)

कोरोना महामारी में निम्न ऑक्सीजन ( प्राण वायु ) स्तर एवं डिहाईड्रेशन (शरीर में पानी की कमी) के गंभीर परिणाम हो सकते हैं । ऑक्सीजन की कमी जहां प्राणायाम से पूरी की जा सकती है, वहां जल ( H20) आक्सीजन और हाइड्रोजन का सम्मिश्रण होने से दोनों समस्याओं के लिए लाभप्रद है।

यहां हम केवल जल चिकित्सा का ही वर्णन करेंगे। सुश्रुत में कहा गया है कि जो व्यक्ति सुबह उठकर पांच अंजलि पानी पीता है, वह 100 वर्ष तक जीता है। ध्यान देने योग्य है कि परिमाण प्राकृतिक है। एक बच्चे और एक व्यस्क की पानी पीने की मात्रा समान नहीं हो सकती।

रात को पानी तांबे के पात्र में रखें और सुबह उस पानी को पिये।

मनुष्य को 1 दिन में कम से कम 2 लीटर पानी पीना चाहिए।

कोरोना काल में गर्म पानी पीने की हिदायत दी जाती है। इससे कोरोना वायरस निष्क्रिय हो जाता है।

सभी ऋतुओं में गुनगुना पानी पीना लाभप्रद है।

ग्रीष्म ऋतु में प्राय: लोग फ्रिज का पानी पीते हैं। यह कई प्रकार के रोग को जन्म देता है। इसकी बजाय घड़े या सुराई का पानी पिएं।

पानी सदा बैठ कर पियें; खड़े होकर के नहीं। खड़े होकर पानी पीने से घुटनों में दर्द होता है।

पानी सदा एक एक घूंट करके पीना चाहिए, एकदम गढ़ गढ़ करके नहीं। किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा है : “We should drink food and eat water” अर्थात् हमें खाने को पीना चाहिए और पानी को खाना चाहिए।

आयुर्विज्ञान का निर्देश है : “भोजनमध्ये जलं पिबेत मुहुर्मुहु:।” अर्थात् भोजन करते समय बार-बार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में जल पियें परन्तु बाद में नहीं क्योंकि “भोजनान्ते विषं वारि:।” भोजन के अन्त में पानी विष के समान है।

भोजन एवं जलपान सम्बन्धी वाग्भट का कथन है :
भुक्तस्यादौ जलं पीतमग्निसादं कृशाङ्गताम्।
अन्ते करोति स्थूलत्वमूर्ध्वमामाशयात् कफम्।
मध्ये मध्याङ्गतां साम्यं धातुनां जरणं सुखम्।।

भोजन से पहले (खाली पेट) पिया हुआ पानी जठराग्नि को मन्द और शरीर को कमज़ोर बनाता है। भोजन के बाद पिया हुआ पानी मोटापा बढ़ाता है और अमाशय के ऊपरी भाग अर्थात फेफड़ों में कफ पैदा करता है। भोजन के बीच में पिया हुआ जल शरीर के अङ्गों में यथोचित पुष्टता पैदा करता है, शरीर की धातुओं में समता बनाता है और अन्न के पाचन में सहायक होता है।

आत्रेयसंहिता में यह भी विधान किया गया है कि कब पानी नहीं पीना चाहिए।
अध्वाश्रान्ते क्षुधाकान्ते शोकक्रोधातुरेषु च।
विषमासनोपविष्टे च पीतं वारि रुजाकरम्।
तस्मात् प्रसन्ने मनसि पानीयं मन्दमाचरेत्।।

अर्थात् बहुत अधिक मार्ग चल कर थकने पर, अधिक भूख लगने पर, बहुत दु:खी व अधिक क्रोधित होने पर, टेढ़े-मेढ़े या उल्टे आसन में बैठने पर, पिया हुआ पानी विकार/ रोग उत्पन्न करता है। अत: (इन अवस्थाओं के दूर होने पर) मन प्रसन्न होने पर धीरे- धीरे पानी का सेवन किया जाए।

ध्यानाकर्षण
क्योंकि जल ही जीवन है, इसलिए जल के संरक्षण एवं इसकी शुद्धि का दायित्व सब पर है।

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शुभ कामनाए
विद्यासागर वर्मा
पूर्व राजदूत
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