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भारतीय संस्कृति

“आओ लौट चलें वेदों की ओर”

देवेंद्र सिंह आर्य

वैदिक संस्कृति ,वैदिक सभ्यता और वैदिक धर्म को किस प्रकार से सुरक्षित और संरक्षित रखते हुए हम भारत को उसके प्राचीन गौरव को प्रदान करते हुए कैसे उसे विश्व गुरु के गौरवशाली पद पर पुन: पदस्थापित करें ?
इस पर लेखनी प्रत्येक विद्वान समूह सदस्य साथी की चलनी चाहिए ,ऐसी अपेक्षा की जाती है।
वैदिक संस्कृति, वैदिक सभ्यता की बात जहां तक हम करते हैं उसमें कुछ ऐसा लगता है कि शायद हम किसी एक विशेष वर्ग की बात कर रहे हैं।
हम हिंदुओं की बात नहीं कर रहे । इस विषय में मैं
यहां पर यह भी निवेदन करना चाहूंगा कि हिंदू हमारे लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। बल्कि हम आर्य डायनेस्टी के उत्तराधिकारी है ।
महर्षि दयानंद ने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में हिंदू शब्द की जो व्याख्या की है तो उसमे उन लोगों को हिन्दू बताया है जो विधर्मी यों के दृष्टिकोण से काफिर एवं कायर हैं।
वास्तविकता यह है कि आर्य कभी कायर नहीं रहे।
वैदिक संस्कृति ,वैदिक सभ्यता और वैदिक धर्म ही केवल ऐसा धर्म है जो किसी वर्ग विशेष की अथवा व्यष्टि की बात नहीं करता बल्कि वह सर्व समाज की, मानवता की, समग्र सृष्टि की बात करता है।
वैदिक धर्म मनुष्य मात्र के कल्याण की बात करता है।
वैदिक धर्म किसी के प्रति हिंसा, तोड़फोड़, लूट , अत्याचार ,बलात्कार, अपहरण, दूसरे के धन की चोरी करने की शिक्षा नहीं देता।
आशा है मेरा आशय सभी विद्वत जन समझ चुके होंगे।
इसलिए मैं यहां पर हिंदू शब्द का प्रयोग नहीं करते हुए केवल वैदिक धर्म की बात के आधार पर अपनी बात कहना चाहूंगा।
“साक्ष्यों से सिद्ध है कि हमारे सारे साहित्य का विध्वंस किया गया। मुसलमानों ने साहित्य को जलाया।
वेद भी भारतवर्ष में नहीं रहे। महर्षि दयानंद ने वेदों को जर्मनी से मंगवाकर वेदों की ओर लौटने का आग्रह किया था।
जो हमारी प्राकृत भाषा है
वह ईश्वर प्रदत्त है, जिससे संस्कृत की उत्पत्ति होती है और हिंदी की उत्पत्ति होती है । उसी संस्कृत भाषा से विश्व की समस्त भाषाओं की उत्पत्ति होती है । क्योंकि हम यह बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि संस्कृत ही सभी भाषाओं की जननी हैं ।इसको भी मिटाने का प्रयास किया गया।
आपको स्मरण करा दूं कि सायनाचार्य , उव्वट, महिढर, मैक्स मूलर, ग्रिफिथ, मैकडॉनल आदि ने वेदों का भ्रष्ट भाष्य किया। यह सब कुछ इसलिए किया गया जिससे वेद के प्रति श्रद्धा समाप्त हो जाए।
वेदों में ज्योतिष, वास्तु शास्त्र, गणित, कृषि, कला_ कौशल, पशुपालन, ललित कला और व्याकरण आदि अनेक विषयों का समावेश है ।वैदिक कर्मकांड हवन_ यज्ञ के संबंध में पढ़ करके उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है।
वेदों का ज्ञान परमात्मा द्वारा सृष्टि के आरंभ में मनुष्य मात्र के लिए ब्रह्मा के माध्यम से 4 आदि ऋषि यों क्रमश: अग्नि ,वायु ,आदित्य, अंगिरा के द्वारा दिया गया। यही ऋषि मंत्रों के दृष्टा थे औरतों का साक्षात करने वाले थे, प्रत्युत मंत्रों के रचीयता नहीं थे।
सृष्टि रचना के संबंध में अनेक मतों का खंडन करते हुए महर्षि दयानंद ने मनुष्य उत्पत्ति अथवा सृष्टि तिब्बत में सर्वप्रथम बताई। जिसको अब वैज्ञानिक भी सिद्ध कर चुके हैं।
वेद ,स्मृति, उपनिषद, दर्शन, इतिहास ,पुराण आदि धर्म ग्रंथों में वर्णित वैदिक सिद्धांतों का प्रतिपादन और आर्य संस्कृति का सरल
स्वरूप में साधारण जन की समझ आने के योग्य भाषा में शब्दों में प्रस्तुत करना चाहिए।
यदि आप इस समय को राष्ट्र परिवर्तन का समय मानते हैं तो आपको आर्य संस्कृति की ओर और वेदों की ओर दर्शनों की ओर लौटना पड़ेगा। राष्ट्र परिवर्तन करना पड़ेगा।
राष्ट्र परिवर्तन पूर्व जन्म के समान ही होता है। क्योंकि राज्य परिवर्तन के साथ साथ अनिश्चित सभ्यता को जो हम अंगीकार कर चुके हैं इसका छोड़ना कठिन अनुभव होता है।
आर्यों के समस्त आर्य साहित्य और आर्य व्यवहार से एक समवेत स्वर से यही आवाज निकलती है कि वैदिक आर्य सभ्यता का आदर्श मोक्ष को केंद्र मानकर लोक में समस्त प्राणियों के दीर्घ जीवन का प्रबंध कर के सबसे सबको सुख पहुंचाने की ओर ले जाता है ।तथा अपनी इस सभ्यता को चिरंजीवी रखने की शक्ति प्रदान करके एक ऐसा राजमार्ग बना देता है कि जिस पर चलने से समस्त प्राणी दीर्घ अति दीर्घ जीवन मुक्त को सरलता से पहुंच सकते हैं।
यह और दुख का विषय है कि वेद के माने वाले इस समय अनेक संप्रदाय विभक्त है। क्योंकि आर्यों में से अनार्य भी उत्पन्न हुए ।जो वेद को मानते हैं लेकिन आर्यों के साथ संघर्ष करते हैं। इन्हीं अनार्योंका विरोध लड़ाई आर्य शास्त्र विध्वंस का कारण बना। और ऐसे कारणों से ही पारियों में मध्य मांस व्यभिचार श्रंगार कला व्यापार की प्रवृत्ति हुई और सब विलासी होकर निर्बल हो गए जिसका परिणाम यह हुआ कि इनकी कारीगरी, व्यापार, और धन के लालच से प्रेरित होकर विदेशियों ने धावा किया और भारत देश पराधीन हो गया, तथा आर्य जाति का हर प्रकार से पतन हुआ।
यह भी सुसिद्ध , सुस्थिर, वा स्थापित हो चुका है कि संसार भर के मनुष्य आर्यों के ही वंशज हैं।
अ नारियों ने जिस प्रकार आर्यों के साहित्य को बिगाड़ा उसी प्रकार अन्य जातियों ने भी बिगाड़ा है।
मैं यहां पर यह निवेदन करना भी उचित समझता हूं कि जहां एक और कुछ लोग वेदों से भौतिक विज्ञान और यूरोप के ढंग की बातें निकालते हैं ।वहां दूसरी ओर कुछ लोग पशु हिंसा, मद्यपान ,व्यभिचार ,अश्लील पूजन और ऐसी ही अन्य अनेक असंगत ,अनावश्यक और बुद्धि विपरीत सांप्रदायिक बातें निकालते हैं।तथा यह भी कहते हैं कि वेदों में वर्तमान समयउपयोगी बातों का बिल्कुल अभाव है। और कहते हैं कि इस समय पाश्चात्य विज्ञान ने जो उन्नति की है और विद्वानों ने जितना ज्ञान संग्रह किया है उसको देखते हुए वेदों में कुछ भी उन्नत विचार नहीं पाए जाते ।इसलिए वेदों के पीछे पड़ना उनके अध्ययन अध्यापन में समय नष्ट करना उचित नहीं है ।लेकिन हम देखते हैं कि इनकी बातों का प्रभाव साधारण लोगों पर तो बड़ा ही साथ ही बड़े से बड़े नेता भी इन बातों के प्रभाव से नहीं बचे और इसी कारण से हिंदू धर्म को मानते हुए भी वेदों के पठन-पाठन का, वैदिक विज्ञान के विचार का और वैदिक व्यवस्था के प्रचार का सारे भारतवर्ष में कहीं पर भी किसी भी पाठशाला ,गुरुकुल ,ऋषि कुल और विश्वविद्यालय में प्रबंध आज तक नहीं किया गया है। इन संस्थाओं के संचालकों को वेदों में समय उपयोगी शिक्षा की कोई भी विधि दिखलाई नहीं पड़ी। कुछ तो उनमें रेल_ तार का वर्णन , न पाकर हताश हो गए। कुछ सांप्रदायिक बातों को न देखकर चुप्पी साध गए और कुछ यह समझ कर उपेक्षा कर बैठे हैं कि वेदों में वर्तमान युग के अनुकूल शिक्षा नहीं है। तथा यूरोप से समय उपयोगी शिक्षा मिल रही है ।इसलिए वेदों में सिर मारने की आवश्यकता नहीं है।
परिणामत: वेदों को और संस्कृत भाषा को राजनीतिक लोगों की ओर से प्रश्रय नहीं मिला।
परंतु हमको वेदों को समक्ष लाते हुए यह प्रयास करना होगा कि वेदों की ही शिक्षा इस समय में भी सब उपयोगी है यूरोप की नहीं वेदों में जो समूह क्योंकि शिक्षा का अभाव दिखलाई पड़ता है उसका कारण वेद नहीं किंतु वेदों के भाष्य कार हैं। वेदों के अधिकांश भाष्य कारों ने वेदों से वेदों की वास्तविक शिक्षा के प्राप्त करने का प्रयास ही नहीं किया प्राकृतिक उन्होंने वेदों से बलात उन बातों के निकालने का यत्न किया है जो उनको प्रिय थी, जिनमें उनका मनोरंजन था और जिन से वे प्रभावित है ,यही कारण है कि लोगों को वेदों के वास्तविक स्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता। बहुत दिन से देशी और विदेशी सभी भाष्यकार वेदों को चक्कर में डाले हुए हैं।ऐसी दशा में लोगों की जो वेदों से उपेक्षा दिखलाई पड़ती है वह स्वाभाविक ही है, परंतु अब समय परिवर्तन हो रहा है। संसार में वेदों के अनुकूल वातावरण तैयार होने लगा है । एक प्रकार से संसार स्वयं वेदों की वास्तविक शिक्षा की ओर आने लगा है ।इसलिए अब हमें वेदों की वास्तविक शिक्षा को ही संसार के सामने प्रस्तुत करने के लिए प्रयत्न करना होगा।
ऐसा करने के पश्चात ही हम जैसे वैदिक ज्ञान विहीन क्षुद्र व्यक्ति भी वेदों से एक सार्वभौम योजना की सामग्री प्राप्त कर सकते हैं। तब वे विद्वान जो ज्ञान_ विज्ञान ,भाषा_ शास्त्र, इतिहास ,धर्म और राजनीति के ज्ञाता हैं यदि वेदों का स्वाध्याय करें तो वेदों से बहुत कुछ लोक उपयोगी शिक्षा का पता लगा सकते हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो वेद आदिम कालीन नहीं होते और उनको अपौरुषेय नहीं कहा जाता ,अर्थात उनमें जो सार्वभौम शिक्षा दी गई है वह निश्चित रूप से निर्भ्रांत है ,और संसार के समस्त मनुष्यों के लिए उपयोगी और प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है।”
यदि भारतवर्ष को उसके प्राचीन गौरव को प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम
“आओ लौट चलें वेदों की ओर”

(लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।)

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