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कविता

क्रंदन दूर होगा एक दिन …..

क्रंदन दूर होगा एक दिन ……

निशा निराशा की आये उत्साह बनाए रखना तुम।          लोग नकारा कहें भले उत्कर्ष पे नजरें रखना तुम।।

भवसिंधु से तरने हेतु निज पूर्वजों से अनुभव लो।        उल्टे प्रकृति के चलो नहीं मन में ये ही नियम धरो।।

कुछ भी दुष्कर है नहीं मन में यदि शिवसंकल्प है।      भंवर में फँसता है वही जो ढूंढता सदा विकल्प है।।

उस सृष्टिकर्ता ईश का जब ईशत्व हमारे साथ है ।
नहीं बैठना थककर सखे ! जब सर्वरक्षक साथ है।।

जितना सुगंधित कर सको उतना करो संसार को।
यज्ञ हवन करते चलो और बाँटिये निज प्यार को।।

आत्मकुण्ठा से कभी ना आत्मा का करो हनन ।
हृदय की दरिया में उतर प्रेम का ही करो खनन ।।

प्रेम की ही खोज में यह विश्व चक्कर खा रहा ।
है प्रेम सृष्टि के मूल में यह धर्म तुम्हें समझा रहा।।

असमर्थता के बोझ से यदि हम दब के रह गए ।
छूट मंजिल जाएगी यदि कहीं व्यर्थ बैठे रह गए ।।

जीवन मिला है उत्कृष्ट की प्राप्ति और खोज को।
निकृष्ट से तू मुक्त कर ले प्यारे अपनी सोच को।।

महामारियां दुर्भिक्ष देखे कितने अपने मार्ग में ?
कोई न भ्रष्ट कर सका योद्धा को अपने मार्ग से।।

संसार समर क्षेत्र है यहां बैठना सर्वथा त्याज्य है।
भोग को यह भूमि मिली समझो बड़ा सौभाग्य है ।।

क्रंदन दूर होगा एक दिन बंधन शिथिल हो जाएंगे। ‘राकेश’ बहारें लौटेंगी दिन उजले फिर हो जाएंगे।।

  • डॉ राकेश कुमार आर्य
    संपादक : उगता भारत

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