जीवन की सार्थकता इसी में है कि लोग आपसे मिलकर प्रसन्न हों

यदि आप के कारण कोई प्रसन्न होता है, तो इससे आपको पुण्य मिलता है। यदि आप के कारण कोई दुखी होता है, तो इससे आपको पाप लगता है। अतः पुण्य कमाएँ, पाप नहीं।


व्यक्ति सुबह से रात्रि तक प्रायः खाली नहीं बैठता, दिनभर कुछ न कुछ कर्म करता रहता है। उन कर्मों में से कुछ कर्म अच्छे होते हैं, और कुछ कुछ कर्म बुरे भी होते हैं। जैसे पशु पक्षियों को भोजन दाना चारा खिलाना। किसी रोगी की मदद करना, उसको दवाई दिला देना। किसी विद्यार्थी को पुस्तक दिला देना। यज्ञ हवन करना इत्यादि। ये सब अच्छे कर्म हैं।
और कहीं झूठ बोल देना, थोड़ा छल कपट कर लेना, किसी को परेशान करना, जोर से स्टीरियो बजाना, जिससे पड़ोसियों की नींद खराब होती हो, या किसी रोगी को विश्राम करने में बाधा पड़ती हो, सिगरेट बीड़ी पीना, अंडे मांस खाना, शराब पीना, फैक्ट्री कारखाने आदि चलाकर प्रदूषण बढ़ाना इत्यादि। ये सब बुरे और मिश्रित कर्म हैं। तो इन सब अच्छे बुरे और मिश्रित कर्मों में से अधिकतर कर्मों में, व्यक्ति का कुछ न कुछ धन भी खर्च होता है। जब वह उक्त प्रकार के अच्छे काम करता है, तब उसे पुण्य मिलता है। और जब ऊपर बताए बुरे या मिश्रित कर्म करता है, तब उसमें उसे कुछ न कुछ पाप भी लगता है, या मिश्रित फल मिलता है।
परंतु ईश्वर ने हम सब को एक ऐसा विशेष गुण दिया है, जिसका नाम है, प्रसन्न रहना। प्रसन्न रहने में कोई धन भी खर्च नहीं होता। यदि हम सदा प्रसन्न रहते हैं। हमारे चेहरे पर उत्साह दिखता है। तब जो व्यक्ति हमारे प्रसन्न एवं उत्साहित चेहरे को देखता है, तो हमारे चेहरे का उस पर प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप वह भी प्रसन्न और उत्साहित हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति हमारे उदास चेहरे को देखता है, तब भी हमारे चेहरे का उस पर प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप वह भी उदास और निरुत्साहित हो जाता है।
अब यदि हम प्रसन्न रहते हैं, तब हमारा प्रसन्न चेहरा देखकर दूसरा व्यक्ति तो प्रसन्न होता ही है, उसे उत्साह मिलता है, सुख मिलता है; साथ ही साथ इससे हमको भी पुण्य मिलता है, क्योंकि हमने उसके सुख में वृद्धि की। और यदि हम दुखी उदास चेहरा लेकर दूसरों के सामने जाते हैं, और उन्हें भी दुखी तथा निरुत्साहित कर देते हैं, तो ऐसा करने से हमें पाप लगता है, क्योंकि हमने उसके दुख में वृद्धि की।
ईश्वर का यह न्यायपूर्ण नियम है, कि किसी के सुख में वृद्धि करने से पुण्य मिलता है। एवं किसी के दुख में वृद्धि करने से पाप लगता है।
अब यह हमारी इच्छा पर आधारित है, कि हम अपना प्रसन्न चेहरा लेकर दूसरों के सामने जाएं, और दूसरों का सुख व उत्साह बढ़ावें। अथवा दुखी उदास चेहरा लेकर दूसरों के सामने जाएं, और उन्हें भी दुखी तथा निरुत्साहित कर दें।
तो ईश्वर की कृपा का लाभ उठावें। सदा प्रसन्न चेहरे से दूसरों के सामने जाएं। उनका स्वागत करें। उनके उत्साह आनंद को बढ़ावें। इसमें आप भी आनन्दित रहेंगे, और दूसरा व्यक्ति भी। इसमें आपका कोई धन भी खर्च नहीं होगा, और बिना कुछ धन खर्च किए मुफ्त में आप को पुण्य भी मिलेगा।
स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।

 

प्रस्तुति  : अरविंद राजपुरोहित

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