मेरे एक परिचित के यहां हवन यज्ञ का कार्यक्रम था जिसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था। हवन यज्ञ की पूर्णाहुति के पश्चात पंडित जी ने बोलना प्रारंभ किया “सत्य सनातन धर्म की जय हो, प्राणियों में सद्भावना हो,विश्व का कल्याण हो,गौ माता की जय हो,गौ हत्या बंद हो, यहां तक तो सामान्य था परंतु अंत में पंडित जी ने बोला पीर महाराज की जय हो अब मेरे कान खड़े हो गए मैं सोचने लगा कि हमारे धार्मिक यज्ञ हवन या किसी कर्मकाण्ड में पीर महाराज की जय का क्या औचित्य है मेरा मस्तिष्क गर्म होने लगा सभी पुरुष महिलाएं प्रसाद लेकर अपने अपने घर के लिए प्रस्थान कर गए अर्धांगिनी ने चलने के लिए बोला तो मैंने उन्हें अपने मन की पीड़ा बताई अर्धांगिनी बोली कि जब इन लोगों को कोई आपत्ति नहीं तो आप क्यों इनके कार्य में विघ्न डाल रहे हो मैंने कहा आज पंडित जी से बात किए बिना नहीं जाउंगा और मैं कुपित मन से पंडित जी के समापन अर्थात फ्री होने की प्रतीक्षा करने लगा।
काफी बार हम अपने समक्ष हो रहे ग़लत कार्यों से मुंह मोड़कर निकल जाते हैं कि मैं क्यों पंगा लूं कोई और देखेगा बस यही हमारी कमी होती है कि हम गलत कार्य के विरुद्ध आवाज उठाने से डरते हैं। जबकि एक बार विरोध करने से ही कई बार परिणाम बदल जाते हैं। वही पंडित जी लगभग एक साल उपरांत पुनः उसी घर में हवन यज्ञ के लिए पधारे संयोगवश मुझे भी जाना पड़ा अबकी बार मैं सबसे पीछे कोने में बैठकर पूर्णाहुति के पश्चात होने वाले जयकारे नाद और पंडित जी के पीर महाराज की जय बोलने की प्रतीक्षा करने लगा परंतु इस बार पंडित जी ने पीर महाराज को नहीं बुलाया जो मुझे बहुत अच्छा लगा कि कम से कम मेरे एक बार टोकने मात्र से हिंदू संस्कारों कर्मकाण्डों में पीर का अस्तित्व समाप्त हो गया मैंने पंडित जी का आभार व्यक्त किया और प्रणाम कर अपने गंतव्य को लौट आया।
विष्णु दत्त शर्मा
बागपत।