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आज का चिंतन

हमें ऐसी नौकरशाही की आवश्यकता, जो जोखिम उठाने को तैयार हो

के. सी. जैन

कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में नौकरशाही को लेकर एक बयान दिया। उन्होंने कहा कि आईएएस अफसर हर क्षेत्र के एक्सपर्ट नहीं हो सकते। सरकारी मशीनरी को चलाने के लिए इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि आईएएस अधिकारी सब कुछ कर सकते हैं। प्रधानमंत्री के इस बयान को लेकर बहस छिड़ गई।

हालांकि मोदी के इस बयान की जड़ें उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले से जुड़ी हैं। वह लगातार देश को उस संस्कृति से मुक्त कराने की कोशिश करते रहे हैं, जो नौकरशाही और कार्यपालिका में घर कर गई है। अगर हम नौकरशाही को छोड़कर दूसरे क्षेत्रों को देखें तो यह फर्क और स्पष्ट हो जाता है। चाहे बात किसान की हो या व्यापारी, उद्योगपति, उद्यमी की। इनमें से किसी के पास भी वह कवच नहीं होता, जो नौकरशाह के पास होता है।

किसी उद्यमी को अपने बिजनेस के लिए रोजमर्रा के कामकाज से लेकर सरकारी मंजूरियां लेने तक, हर कदम पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। नेता से लेकर नौकरशाह तक उनसे फेवर मांगते हैं। उद्योगपति उन सबकी मुरादें पूरी करता है और तब भी सफल होता है। फिर भी, कोई कितना ही कामयाब उद्योगपति क्यों न हो, उसे नौकरशाह के ऑफिस के बाहर इंतजार करना ही पड़ता है।

इसके उलट अब देश की नौकरशाही व्यवस्था पर नजर डालिए। कहते हैं कि यूपीएससी की परीक्षाएं सबसे ‘आला दिमाग’ लोगों को चुनने के लिए होती हैं, ताकि वे सिविल सर्वेंट बनें। जिस दिन से ऐसे अफसर काम शुरू करते हैं, उन्हें कोई भी फैसला करने से पहले संभावित पचड़े से खुद को बचाने की सीख दी जाती है। पहले वे अपने हित के बारे में सोचते हैं। जनता, समाज और देश का हित उसके बाद आता है।

मुझे याद है, 1980 में मैं इंडियन रेवेन्यू सर्विसेज के लिए चुना गया। ट्रेनिंग के दौरान एक जाने-माने वरिष्ठ नौकरशाह हमारे इंस्ट्रक्टर थे। उन्होंने हमें एक सुनहरी सीख दी, ‘आप जो भी फैसला करें, अगर वह रेवेन्यू सर्विसेज के हक में हो, तो आपको फिक्र करने की जरूरत नहीं।’ यानी आपके दूसरी ओर जो शख्स खड़ा है, उसे न्याय मिले न मिले, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह रूल हमारे इंस्ट्रक्टर ने नहीं बनाया था। उन्हें भी यह अपने सीनियरों से विरासत में मिला था। वह तो इस विरासत को हम तक पहुंचा रहे थे। यह ‘गोल्डन रूल’ सिर्फ एक ब्रांच या एक डिपार्टमेंट या किसी एक पद तक सीमित नहीं है। नौकरशाही में नीचे से ऊपर तक यही सोच फल-फूल रही है। हालांकि यह बात सही है कि जो लोग यूपीएससी की परीक्षाओं के जरिए चुने जाते हैं, वे उत्साही, सक्रिय और आदर्शवादी होते हैं, लेकिन नौकरशाही में आने के बाद इनमें से ज्यादातर मौजूदा माहौल में ढल जाते हैं और छोटे से छोटा जोखिम भी नहीं लेना चाहते।

अगर किसी उद्यमी की बात करें तो वह सिर्फ एक ही मकसद से काम करता है- अपने बिजनेस को मुनाफे में लाना। अब पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को लीजिए, जिन्हें नौकरशाह चलाते हैं। उनमें प्रतिभा और महत्वाकांक्षा होती है, लेकिन वे जोखिम नहीं उठाना चाहते। नौकरशाहों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि उन्हें जितने बड़े फलक पर काम करने का अवसर मिलता है, वह देश के शीर्ष उद्यमियों के लिए रश्क का सबब हो सकता है। अगर आज भी नौकरशाहों को इज्जत मिलती है तो सिर्फ इस वजह से कि उनमें से कई ईमानदारी से काम कर रहे हैं। उन्हें जनता की फिक्र है और वे देश हित को ध्यान में रखकर फैसले कर रहे हैं। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि ऐसे लोगों की संख्या दिन-ब-दिन घट रही है। सरकारों पर नौकरशाही की जबरदस्त पकड़ है। नेता इसका अपने फायदे के लिए तो इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन सत्ता गंवाने का रिस्क लेकर ही वे नौकरशाही में सुधार लाने की हिम्मत कर सकते हैं।

इसलिए अगर हम देश को तरक्की की राह पर आगे ले जाना चाहते हैं तो हमें ऐसी नौकरशाही की जरूरत होगी, जो जोखिम उठाने को तैयार हो और निर्णायक फैसले करे। या फिर हमें मौजूदा नौकरशाही की जगह ऐसी व्यवस्था लानी होगी, जो इनउम्मीदों को पूरा कर सके।

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