विक्रमी संवत चलाने वाले सम्राट विक्रमादित्य का इतिहास

#विक्रमादित्य
आज आप विक्रम संवत चलाने वाले विक्रमादित्य का इतिहास पढ़ रहे है।

जिन्होंने भयंकर युद्धोंमें विदेशी आक्रमणकारियोंको परास्तकर , भारतकी रक्षा की और उन्हें इस देश से निकाल बाहर कर , अपने नाम से संवत् चलाया , जो आज तक विक्रम संवत के नामसे पुकारा जाता है ।आप ही का चलाया संवत् अबतक पञ्चाङ्गों ,यंत्रियो और साहूकारों के बही-खातों में लिखा जाता है । यद्यपि काल की कुटिल गति , ज़माने के फेर या देश के दुर्भाग्य से आजकल ईस्वी सन की तूती बोल रही है ।

लोग चिट्ठी-पत्रियों एवं अन्य काग़ज़ और दस्तावेजों में आपके संवत को छोड़कर ईसवी सन को लिखने की मूर्खता करते हैं ; पर बहुत से सज्जन अपनी भूलको सुधारकर , फिर महाराजके संवत से ही काम लेने लगे हैं । आशा है , सभी भूले हुए राह पर आ जायेंगे और संवत के कारणसे महाराज का शुभ नाम चन्द्र – दिवाकर इस लोक में अमर रहेगा ।

महाराज विक्रम के समयमें बौद्ध – धर्म बड़े जोरों पर था । ब्राह्मण – धर्म की नींव खोखली होगई थी । आपने ही बौद्धों को मार भगाया और ब्राह्मण – धर्म की फिर से स्थापना की । आप अपने ज़माने में भारतके सर्वश्रेष्ठ नृपति समझे जाते थे । प्रायः सभी राजे – महाराजे आपको अपना सम्राट् या नेता मानते थे । सभी आपके इशारों पर नाचते थे ।

आप कहनेको तो उज्जैनके राजा कहलाते थे , पर आपके राज्य की सीमा बड़ी लम्बी – चौड़ी थी । अतुल धन – वैभव और सुविस्तृत राज्यके अधीश्वर होने पर भी , आपमें अभिमान नामको भी न था । आप छोटे – बड़े सभीसे मिलते और बातें करते थे । आप एक चटाई पर सोया करते और अपने पीनेके लिये क्षिप्रा नदीसे एक तूम्बा जल स्वयं अपने हाथोंसे भर लाते थे । आप आजकलके राजाओंकी तरह प्रजा के पैसेसे ऐश – आराम नहीं करते थे । आपका सारा समय प्रजा की भलाई में ही व्यतीत होता था ।

आप अधिक – से – अधिक तीन चार घण्टे सोते थे । रातके समय भेष बदल कर , आप अक्सर शहर में गश्त लगाया करते थे और इस बातकी खोज करते थे , कि मेरी किस प्रजाको कौनसा दुःख है । आप जिसे दुःखी देखते थे , उसका दुःख या अभाव किसी न किसी तरह अवश्य ही दूर कर देते थे । अनेक मौकों पर तो आपने अपनी बेश कीमत जानको ख़तरे में डालकर भी , प्रजाका दुःख दूर किया था । इसी से प्रजा आपको “ परदुःख भञ्जन ” कहती थी ।

भारतमें अब तक हज़ारों – लाखों राजा – महाराजा हो गये होंगे , पर आपके सिवा और किसीको भी यह महामूल्य उपाधि नसीब नहीं हुई ।

मैं जिस समय समय की बात कर रहा हूँ, यह शकों के आक्रमण का नही, भारत मे शकों के पूरी तरह स्थापित हो जाने का समय था, भारत का एक भी ऐसा क्षेत्र नही बचा था, जहां शकों का प्रभाव ना हो । भारत की जितनी समुद्री सीमाएं है, वहां के प्रदेशो पर तो शकों का अधिकार था ही, अब वह छोटे से बचे राज्य मालवा को भी अपने अधीन करना चाहते थे, ओर शकों ने मालवा पर भी आक्रमण करना शुरू कर दिया ।। इन शकों ने भारत मे यज्ञ हवन , सब कुछ पूरी तरह से बन्द करवा दिए थे …. यह स्तिथी इतनी विकट थी, की देवताओं के भी पसीने छूट गए ..

इंद्र के नेतृत्व में देवतागण कैलाश पधारे ।।

उस सम कैलाश में ” जो सबको पराजित कर सकते थे, वह शिव और पार्वती साक्षात कैलाश में विराजमान थे । मल्लेछो से त्रस्त देवतागण शिव के पास गए, ओर उनकी प्रशंसा करने लगे ।।

भगवान शिव ने आने का कारण पूछा -तो देवताओं ने प्रार्थना की —

है देवाधिदेव !! दिति के पुत्र असुरो ने , जो प्राचीन काल मे आपके द्वारा मारे गए थे , पुनः मल्लेछो के रूप में जन्म लिया है, उन्होंने प्रसन्न देवताओं की दशा तिनके के बराबर कर दी है । अब केवल आपकी ही शरण है । ”

हे देवाधिदेव !! आपने ओर विष्णुजी ने जिन असुरो का संहार किया था , पृथ्वी पर मल्लेछो के रूप में फिर अवतरित हुए है । वे यज्ञ ओर अन्य कर्मो में बाधा डालते है । वे साधुओं ओर कन्याओं को उठा ले जाते है । सच तो यह है, की ऐसा कौनसा अपराध है, जो उन्होंने छोड़ रखा है ।

आप तो जानते है देवाधिदेव !! देवताओं को पोषण पृथ्वीलोक से ही मिलता है , क्यो की ब्राह्मणो द्वारा जो आहुति यज्ञ में दी जाती है, उसी से देवताओं को पोषण मिलता है — चूंकि मल्लेछो ने पृथ्वी को रौंद डाला है, तो शुभ शब्द आहुति के साथ कहीं सुनाई नही पड़ता , ओर देवतागण यज्ञ ओर आहुति की कमी के कारण एकदम शक्तिहीन हो गए है । अतः इस ओर से विचार कीजिये, ओर किसी जननायक को धरती पर भेजिये, जो इनके संघार में सक्षम हो .. ( बृहत्कथा-मंजरी – 20-1,- 8 – 20 )

#कथासरितसागरकेअनुसार

” जिस तरह दसरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ हवन ओर व्रत किये थे, उसी तरह मालवा के शासक महेन्द्रादित्य ने भी पुत्र प्राप्ति के लिए महान यज्ञ का आयोजन् किया । जिस समय महेन्द्रादित्य के यहां यज्ञ हो रहे थे, उसी समय देवतागण शिवजी के पास पहुंचे थे ।

तब भगवान शिव ने देवताओं से कहा – जाओ, चिंता की कोई आवश्यकता नही । निश्चिन्त रहो ।। शिव के आश्वाशन के बाद देवतागण वहां से चले गए ।

देवताओं के जाने के बाद शिव ने पार्वती की गोद मे बैठे गणेशजी को बुलाया, ओर कहाँ, गणपति माल्यवन्त ” जाओ, मनुष्य रूप धारण करो, ओर महेन्द्रादित्य के यहां जन्म लेकर पृथ्वी की रक्षा करो , ओर मल्लेछो का विनाश कर दो —

इस घटना से हमे यह ज्ञात होता है की विक्रमादित्य का जन्म कौई साधारण तरीके से नही हुआ था, इसके लिए उनके पिता को कठोर तपस्या करनी पड़ी थी । उज्जयिनी में श्रीगणेश ने विक्रमादित्य के रूप में जन्म लिया ।।

कहते है, जब विक्रमादित्य का जन्म हुआ, तो आकाश बिल्कुल साफ हो गया । बड़ी मधुर वर्षा हुई, पंडितों ने चारों ओर शंखनाद किया, यहां तक कि देवताओं के नाद से भी पृथ्वी थर्रा गईं

भगवान शिव ने महेन्द्रादित्य के स्वपन में आकर कहा ” मैं आपसे प्रसन्न हूँ राजा , मेरे पुत्र गणेश ने तुम्हारे यहां जन्म लिया है, यह समस्त अधर्मियों का नाश करेगा, ओर तुम्हारा गौरव दूर दूर तक फैला देगा ।। इसका मूल नाम विक्रमादित्य रखना, ओर उपनाम विषमशील रखना । ( कथासरितसागर – 18,1 )

विषमशील विक्रमादित्य का दूसरा नाम साहसांक था । इसका ज्ञान कालिदास की अभिज्ञानशाकुंतकम की कपितय पांडुलिपि तथा कुछ अन्य स्रोतों से होता है ।

महेन्द्रादित्य में विक्रमादित्य की शिक्षा के बेहतर इंतजाम किए, लेकिन विक्रम तो ज्ञान और किसी भी शिक्षा में अपने आचार्यो का भी आचार्य था ।। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने गुरुओं की शरण मे भेजा गया, लेकिन छोटी सी अवस्था में ही उन्होंने अपने गुरुओं को ही ज्ञान दान देना शुरू कर दिया, विक्रमादित्य गए तो शिक्षा प्राप्त करने थे, लेकिन गुरुकुल जाकर खुद ही वहां के श्रेष्ठ ज्ञानी सिद्ध हुए ।।

कालिदास ने विक्रमादित्य के बारे में लिखा है ” अवन्ति के एक राजा है, जो दीर्घ शरीर वाले है , उनकी भुजाएं ओर छाती विशाल है, आजकल हम अगर किसी के पास ईश्वर देखने की दृष्टि हो, तो वह विक्रमादित्य में अंसख्य सूर्य और चन्द्र देख सकता है । वह साक्षात कोई अवतार है , वह साधारण मनुष्य या राजा नही, शिव के परमावतर है ।।
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घोर विपदा आयी … जब विक्रमादित्य बहुत ही कम आयु के थे, उसी समय शकों ने सिंधु नदी पार कर दी, ओर पूरे भारत को ही रौंद डाला …..

उन्होंने सर्वप्रथम सौराष्ट्र पर आक्रमण दिया, वहां के राजा ने शकों की शक्ति के आगे बिना लड़े ही आत्मसमर्पण कर दिया ।। सौराष्ट्र के बाद वह आगे नही बढ़े, बल्कि सौराष्ट्र को आधार बनाकर उन्होंने वर्षाऋतु में मालवा पर आक्रमण कर दिया ….

शकों ने विक्रमादित्य के पिता के राज्य पर आक्रमण करके उस राज्य को भी तहस नहस कर दिया … खुद विक्रमादित्य को बहुत कष्ठ झेलने पड़े । एक अवतारी पुरूष संघर्ष के सारे दरिया को पार कर ही समाज के आगे उदाहरण प्रस्तुत करता है, वह कभी नही बताता, की वह अन्य लोगो से आसाधरण है …

विक्रमादित्य के पिता से उन्हें अलग होना पड़ा, पूरा परिवार ही छिन्न भिन्न हो गया, अपने कुछ सहायकों के साथ विक्रमादित्य अपनी जान बचाकर भाग निकले ….यह वर्ष विक्रमादित्य के लिए कठिनाइयों से भरे थे । यह उनकी अग्नि परीक्षा थी लेकिन वह प्रतिभाशाली युवक महान भविष्य की कहानी लिख रहा था ।

सेना के नाम पर विक्रमादित्य के पास केवल एक सैनिक था …. उनका मित्र भट्ट — यहां से विक्रमादित्य की कहानी शुरू हुई, ओर विश्वविजेता बनकर खत्म हुई ….

चन्द्रगुप्त मोर्य को भी #असुर_विजयी कहा गया है, लेकिन विक्रमादित्य को असुर विजयी नही, बल्कि #धर्मविजयी कहा गया है । यही कारण है की चन्द्रगुप्त मोर्य को लोग भूल गए है, लेकिन विक्रमादित्य आज भी सबको याद है ।

विक्रमादित्य ने जो भी युद्ध किये, वह प्रथम आक्रमण नही था, बल्कि वह शकों द्वारा किये गए आक्रमण का परिणाम था, उनकी विजयगाथा का कथासरित सागर में वर्णन कुछ इस प्रकार है :-

हे देव !! विक्रमादित्य ने सौराष्ट्र को सहित मध्यदेश को, दक्षिणापथ को ( कर्नाटक, आंध्र, तमिल ) अंग बंग ( बिहार, बंगाल , बर्मा से लाओस इंडोनेशिया तक ) सहित समस्त पूर्वी क्षेत्र को जीत लिया है ।

वृहतकाव्यमन्जरी भी यह सब विजयो की पुष्टि तो करता ही है, साथ मे यह वर्णन भी कथामन्जरी के मिलान खाता है :-

अथ श्री विक्रमादित्यो हेलया निर्जिताखिलः।
मल्लेछान्कम्बोज जययवनान्नीचा हूणान्सबर्बरान ।।
तुषारान्पारसीकांश्च त्यक्ताचारानिबश्रृंकंलान।।
हत्वा भ्रुभंगमात्रेण भुवो भारमवार्यत ।। ( कथासरितसागर )

अर्थात विक्रमादित्य ने बड़ी सरलता से सबपर विजय प्राप्त कर ली है, उन्होंने मल्लेछो , कम्बोजो, यवनों, बर्बरों, नीच हूणों , तुषारों , पारसिको जिन्होंने आर्यसंस्कृति का त्याग कर धरती पर भार बढ़ा दिया था, विक्रमादित्य ने इन सबको मार डाला ,जो बच गए थे, उन्हें अपने अधीन किया, ओर आर्य संस्कृति की रक्षा की । यहां आपके लिए यह जानना जरूरी है, की मात्र इस छोटे से श्लोक में कितने देश आ जाते है । विक्रमादित्य द्वारा विजित प्रदेशो में यवन, पारसिको आदि प्रदेशो का नाम भी कथासरित सागर में है ।

कालिदास ने विक्रमादित्य की तुलना अयोध्या के महाप्रतापी राजा#रघु की है । श्रीरघु के समय अयोध्या पर रावण का आक्रमण होना बताया जाता है, लेकिन रघु में रावण को इस तरह पछाड़कर मारा, की वह खुद अपनी सेना सहित रघुस्तुति करके अपने प्राणों की रक्षा कर पाया। शरण मे आये का इक्ष्वाकुवंशी प्राण नही हरते, यही सोचकर रघु ने रावण को बख्स दिया था । रावण उस समय आधी धरती का सम्राट था, ओर जिस समय शक भारत मे प्रभावी थे, उनका भी आधी से ज़्यादा धरती पर अधिकार था ।।

भारत ने शकों के मददगार बने सभी देशों राजाओ के छत्र तो उतारे ही, लेकिन उसका वर्णन यहां क्या करना ??

विक्रमादित्य ने महेन्द्रगिरि पर्वत को पार किया – और वहां से बर्मा , मिजोरम, थाईलैंड, लाओस, वियतनाम, कम्बोडिया, मलेशिया, आदि सभी प्रदेशो को जीता, विक्रमादित्य द्वारा पराजित जिन मल्लेछ जातियों का वर्णन आता है, वह मल्लेछ जाति इन्ही देशो को माना जाता है । मलेशिया शब्द स्वयं मल्लेछ का ही प्राकृत रूप है ।

इसी विशाल सेना के साथ विक्रमादित्य ने किरात जाति – हिमालय से लेकर मंगोल जिसमे चीन भी आता है । उसपर बड़ा भयँकर हमला किया, ओर उसे अपने राज्य में मिला लिया ।।

उसके बाद विक्रमादित्य ने पारसिक राजा को परास्त किया , आज से मात्र 1500 वर्ष पूर्व की पारसी राजा का साम्राज्य सऊदी अरब की वर्तमान राजधानी रियाद तक था । पारसियों पर यह विजय सम्पूर्ण अरब क्षेत्र पर विजय का प्रतीक है ।।

यवन के रूप में जिनका वर्णण आता है, वह ग्रीस आदि से शुरू हुए, समस्त यूरोप वासी है ।

हूण जाति की जिस विजय का उल्लेख है, वह चीन की सीमा से सम्पूर्ण रूस तक कि विजय का प्रतीक है । धरती का कोई ऐसा कौना नही बचा था, जो विक्रमादित्य ने जीता नही हो ।

#विक्रमादित्यकेयुद्धकास्वरूप

विक्रमादित्य के युद्धो को जनता आज भी आदर्श दिग्विजय मानती है, वह रक्तपात कर खून की नदियां बहाने वाला क्रूर राजा नही था । वह एक सन्यासी था, जो राजा विक्रमादित्य की शरण मे आये, वह पहले की तुलना में दुगना सम्मान लेकर लौटे, विक्रमादित्य ने उनका अपमान नही किया, बल्कि उन्हें राष्ट्र के एकीकरण का महान सहयोगी बताक़र उनके सम्मान को ओर ज़्यादा बढ़ा दिया, विक्रमादित्य के अधीन होकर कोई भी अन्य राजा खुद को अपमानित नही, बल्कि गौरवशाली महसूस करता था । विक्रमादित्य ने किसी का प्रदेश तो छीना ही नही, बल्कि उस प्रदेश की शासन व्यवस्था को अपने अनुरूप चलाया, उन्होंने राजा नही बदले, बल्कि राजव्यवस्था बदली ।। दूसरी बड़ी बात यह थी की विक्रमादित्य ने कोई अश्वमेध यज्ञ नही किया, उन्होंने किसी को मजबूर नही किया, वह अधीन आये, केवल कुछ युद्धो में उन्होंने शत्रुओ को अपने पराक्रम की ऐसी धमक सुना दी, की अन्य शत्रु खुद इतने भयभीत हो गए, की वह विक्रमादित्य की शरण मे आ गए ।। वर्तमान में विश्व का जो गणतांत्रिक स्वरूप है, वह विक्रमादित्य की ही देन है । लोकतंत्र के प्रथम प्रणेता राजा विक्रमशील विक्रमादित्य ही है ।।
विक्रमादित्य के समय मे राजा आनुवंशिक होता था, लेकिन बाकी के सभी नेताओं का चुनाव जनता स्वयं करती थी, ऐसा कालिदास में स्वयं लिखा है ।

#बौद्धों के ” अहिंसा परमोधर्म ” के सिद्धांत ने भारत को एक तरह से पंगु बना दिया, विदेशी आक्रमण होते रहे, ओर हम अहिंसा का जाप करते रहें । वैदिक धर्म का सूर्य अस्ताचल में लीन हो गया , प्रजा दुःखी थी, देश मे शकों के आक्रमण के कारण अत्याचारो से त्राहिमाम त्राहिमाम मचा हुआ था । ऐसे महान विपत्तिकाल में गौ ब्राह्मण हितायार्थ ” की कहानी को चरितार्थ करने वाला सत्य तथा धर्म का प्रचारक वीर विक्रमादित्य का जन्म हुआ :-

विक्रम कितने दयालु थे, कितने वीर थे, कितने दानी थे, उसका थोड़ा सा चित्रण गुणाढ्य कवियों की निम्न पंक्तियों से होता है :-

स पिता पितृहनिनामंबन्धुनां स वान्धवः।
अनाथानां च नाथः प्रजानां कः स नामवत्।।
महावीरोप्यभूदराजा स भीरूः परलोकतः ।
शुरोपिचाचण्डकरः कुमर्ताप्यड़गनप्रियः।।

अर्थात :- वह पितृहीनो का पिता, भाृतहीनो का भाई, ओर अनाथों का नाथ था , वह प्रजा का राजा नही, प्रजा का मित्र था, वह प्रजा का क्या नही था ?? महावीर होने पर भी वह परलोक से डरता था, ओर शूरवीर होने पर भी वह प्रचंडकर नही था :–

●वर्तमान में भारत की सेना – 25 लाख के आसपास है ( रिजर्व एक्टिव मिळाकर)
●चीन की एक्टिव सेना 25 लाख है , हो सकता है, इतनी ही रिजर्व सेना हो ।
●अमेरिका की कुल सेना 60 लाख के ऊपर है, रिजर्व हम जोड़ ले, तो भी 1 करोड़ के आसपास होगी ।
●रूस की कुल सेना 20 लाख के आसपास है ।

ओर विक्रमादित्य की सेना कितनी थी, अगर आप यह जानेंगे, तो आपको पता चलेगा, की कितना सुनहरे अतीत को हम छोड़ आये है :-

रघुवंश में विक्रम की सेना की संख्या जो बताई गई है :- उसमे विक्रमादित्य के पास 3 करोड़ की पैदल सेना, उसके 10 कमांडर , 90,000 हाथी, ओर पांच लाख की नोसेना थी । वर्तमान में भारत, चीन, रूस, अमेरिका की कुल सैनिक शक्ति भी विक्रमादित्य की सैनिक शक्ति से कम थी ।। इससे अनुमान लगाया जा सकता है, की वह कितना बड़ा ओर शक्तिशाली राजा था :-

विक्रमादित्य ने शकों के आक्रमण को कुचलकर रख दिया था , ओर केवल इतना ही नही, इन शकों के जो सहयोगी राजा थे, उन्हें भी मसलकर रख दिया , अपनी शक्ति की उन्होंने चहुँओर धाक जमा दी ।

विक्रमादित्य ने चारों ओर से शकों को घेरकर मारा, ओर इतना ही नही, रोम ( इटली से लेकर मिस्र ) तक के राजा को बांधकर उज्जैन ले आया ।

बौद्धों के प्रबल प्रचार और विदेशी सहयोग से अयोध्याजी पूरी तरह नष्ट हो गयी थी, भगवान राम के जन्मस्थान अयोध्याजी की पतितवस्था विक्रम से देखी न गयी, भगवान राम की नगरी की चहल पहल नष्ठ होकर बौद्धों की बस्ती में परिवर्तित हो गयी, स्वधर्म ओर आर्य सभ्यता का प्रचारक विक्रम इस बात को सहन नही कर सका, पतितपावनी सरयू के तट पर अयोध्या की यह दुर्दशा विक्रम से देखी नही गयी, सरयू की पवित्र नदी में स्नान करके उसने भीषण प्रतिज्ञा की, ” जिस तरह बौद्धों ने अयोध्या को उजाड़ा है, में उसी तरह श्रावस्ती का सर्वनाश ना कर डालूं, तब तक मैं चैन से नही बैठूंगा !! ओर यह कार्य उन्होंने शीघ्र ही किया ।।

अपनी पूरी सैनिक शक्ति के साथ विक्रम में अयोध्या के बौद्ध राजा पर धावा बोला, ओर उसे मारकर #श्रावस्ती का विध्वंस कर दिया । इतना ही नही, उन्होंने बौद्धों का मानमर्दन करके काशी के पंडितों को आश्वासन दिया, की इन नास्तिकों से डरने की कोई जरूरत नही, वह अब सनातन वैदिक धर्म का प्रचार निडर होकर कर सकते है ।।

#श्रीविक्रम के बारे में वर्णन मिलता है, की वह इतना निडर ओर शक्तिशाली था, की शत्रुओ के केम्पो में भी अकेला घूम आता था ।
साभार
✍🏻अजित कुमार पुरी

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