Categories
पर्यावरण

पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों का योगदान और महत्व

प्रस्तुति – शिवा सैन

भारतीय ऋषियों ने मानव-मस्तिष्क को उचित दिग्दर्शन कराने के लिए वेद-संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद्, पुराण, प्रभृति उत्कृष्ट ग्रंथों की उद्भावना की, जिससे मानव-समुदाय समष्टिगत चिंतन में निरत रहते हुए, सामाजिक सद्भाव बनाए रखे और प्रकृति में अंगीभूत ‘जीयो और जीने दो’ के विधान का पालन करते हुए, विकास के प्रत्येक सोपान पर अपने चरण-चिह्न अंकित तो करे ही, साथ ही आत्मोद्धार भी करे। इस सद्भाव को बनाए रखने की प्रेरणा यजुर्वेद (36.17) के ‘शांति मंत्र’ से प्राप्त होती है, जिसमें द्युलोक, अंतरिक्ष, पृथिवी, जल, वनस्पति प्रभृति में सर्वत्र परम शांति बने रहने की उदात्त भाव अनुस्यूत है। प्रत्येक घटक में शांति की कामना तत्कालीन ऋषियों की सामाजिक और पर्यावरणीय सद्भावना का द्योतक है—
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति,सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति सा मा शान्तिरेधि॥

उपर्युक्त शांति मंत्र में पर्यावरण-संतुलन या सद्भाव को बनाए रखने हेतु भारतीय ऋषियों द्वारा प्रार्थना की गई है, जिससे स्पष्ट होता है कि वैदिककालीन ऋषि पर्यावरण के प्रत्येक रूप की संरक्षा एवं संतुलन के प्रति कितने सजग थे। उन्होंने जन सामान्य में श्रद्धाभाव जागृत कर प्रकृति के समस्त रूपों को अशांत अर्थात् सांप्रतिक परिप्रेक्ष्य में प्रदूषित न करने की प्रेरणा दी।

ऋग्वेद के अरण्यानी सूक्त (10.146.6) में कहा गया है :
आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामकृषीवलाम्
प्राहम्मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम्
कस्तूरी आदि उत्तम सुवास से युक्त, सुगंधी, विपुल फल-मूलादि भक्ष्य अन्न से पूर्ण, कृषिवलों से रहित और मृगों की माता— ऐसी अरण्यानि की मैं स्तुति करता हूँ।

पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। मत्स्यपुराण (154.511-512) उनके महत्व को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-
दशकूपसमावापी दशवापी समो ह्रदः।
दशह्रदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः।।

वराहपुराण (172.39) में ऐसा कहा गया है कि ‘एक व्यक्ति जो एक पीपल, एक नीम, एक बरगद, दस फूलवाले पौधो अथवा लताएं, दो अनार, दो नारंगी और पांच आम के वृक्ष लगाता है, वह नर्क में नहीं जाएगा—
अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दश पुष्पजातीः।
द्वे द्वे तथा दाडिममातुलिंगे पंचाम्ररोपी नरकं न याति।।

विष्णुधर्मोत्तरपुराण (3.296.17) में वृक्षों के विषय में कहा गया है कि दूसरे द्वारा रोपित वृक्ष का सिंचन करने से भी महान् फलों की प्राप्ति होती है, इसमें विचार करने की आवश्यकता नही है—
सेचनादपि वृक्षस्य रोपितस्य परेण तु।
महत्फलमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।।

हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि प्रकृति जीवन का स्रोत है और पर्यावरण के समृद्ध और स्वस्थ होने से ही हमारा जीवन भी समृद्ध और सुखी होता है। वे प्रकृति की देवशक्ति के रूप में उपासना करते थे और उसे परमेश्वरी भी कहते थे। उन्होंने जीवन के आध्यात्मिक पक्ष पर गहरा चिंतन किया, पर पर्यावरण पर भी उतना ही ध्यान दिया। जो कुछ पर्यावरण के लिए हानिकारक था, उसे आसुरी प्रवृत्ति कहा और जो हितकर है, उसे दैवीय प्रवृत्ति माना।

आज मनुष्य यह समझता है कि समस्त प्राकृतिक संपदा पर सिर्फ उसी का आधिपत्य है। हम जैसा चाहें, इसका उपभोग करें। इसी भोगवादी प्रवृति के कारण हमने इसका इस हद तक शोषण कर लिया है कि अब हमारा अपना अस्तित्व ही संकट में पड़ने लगा है। वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि प्रकृति, पर्यावरण और परिस्थिति की रक्षा करो, अन्यथा हम भी नहीं बच सकेंगे।

सम्राट अशोक, हर्षवर्धन और शेरशाह सूरी ने जो राजमार्ग बनवाए थे, उनके लिए कितने ही वृक्षों की बलि चढ़ानी पड़ी थी। परंतु उन्होंने उन सड़कों के दोनों तरफ सैकड़ों नए वृक्ष भी लगवाए थे, ताकि पर्यावरण में कोई दोष न आ जाए। आज भी आप पाएंगे कि ग्रामीण समाज अपने घरों व खेतों के आसपास वृक्ष लगाते हैं। यहां वृक्षों के थाल बनाना, उनकी जड़ों पर मिट्टी चढ़ाना, सींचना, वृक्षों को पूजना अथवा आदर प्रकट करना आज भी पुण्यदायक कार्य मानते हैं। ये सारी प्रथाएं इसीलिए शुरू हुईं ताकि वृक्षों-वनस्पतियों की रक्षा होती रहे और मनुष्य इनसे मिलनेवाले लाभ का आनंद उठाता रहे।

हमारे शास्त्रों में पर्यावरणीय घटकों की शुद्धता के लिए हमें एक अमोघ उपाय प्रदान किया गया है। वह उपाय हैं यज्ञ। यज्ञ आध्यात्मिक उपासना का साधन होने के साथ, पर्यावरण को शुद्ध करने, उसे रोग और कीटाणुरहित रखने तथा प्रदूषणरहित रखने का भी साधन है। भारतीय संस्कृति की यह शैली रही है कि इसमें जीवन के जिन कर्त्तव्यों अथवा मूल्यों को श्रेष्ठ और आवश्यक माना गया है, उन्हें धार्मिकता और पुण्य के साथ जोड़ दिया गया है, ताकि लोग उनका पालन अनिवार्य रूप से करें। जैसे कि तुलसी, पीपल की रक्षा आदि।

पर्यावरण की दृष्टि से वृक्ष हमारा परम रक्षक और मित्र है। यह हमें अमृत प्रदान करता है। हमारी दूषित वायु को स्वयं ग्रहण करके हमें प्राणवायु देता है। वृक्ष हर प्रकार से पृथ्वी के रक्षक हैं, जो मरुस्थल पर नियंत्रण करते हैं, नदियों की बाढ़ों की रोकथाम करते हैं व जलवायु को स्वच्छ रखते हैं। ये समय पर वर्षा लाने में सहायक हैं, धरती की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाते हैं। वृक्ष ऐसे दाता हैं, जो हमें निरंतर सुख देते हैं।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version